मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था में सरपंच की कुर्सी को नीलाम करने की कई खबरें पहले भी प्रकाश में आती रही हैं और इन खबरों ने पंचायतीराज व्यवस्था की कामयाबी पर सवालिया निशान लगाया है. हाल ही में आयी एक ताजा खबर ने तो पंचायतीराज व्यवस्था को ही दांव पर लगा दिया है. खबर है कि एक महिला सरपंच ने अपने पद को पॉवर ऑफ अटार्नी से दूसरे को हस्तांतरित कर दिया है. इसके पीछे महिला का तर्क है कि वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है, इसलिए उसने ऐसा किया. अपने आपमें चौंकाने वाला यह मामला यूं ही दबा रहता, यदि कोई चौकस पंचायत सचिव नहीं आता तो. नए पंचायत सचिव के आने से मामले का खुलासा हुआ. खबर के बाहर आने के बाद कानून क्या करता है और सरकार क्या करेगी, यह व्यवस्था का मामला है लेकिन पंचायतों को इस तरह दांव पर लगाया जा रहा है, यह बात तो साफ हो गई है जिस पर आप गर्व तो नहीं कर सकते हैं. सरपंच का चयन दया से नहीं बल्कि मतदाताओं के निर्णय से होता है और यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया है. इस महिला सरपंच ने एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित किया है.
महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज का सुंदर सा सपना देखा था. तब शायद उनके मन में यह बात रही होगी कि गांव की सत्ता गांव के हाथों रहने से उसका समग्र विकास हो सकेगा लेकिन शायद उन्हें इस बात का अनुभव नहीं होगा कि एक दिन उनके सपनों को दांव पर लगाया जाएगा. बात थोड़ी जटिल है लेकिन समझ में भी ना आए, इतनी जटिल नहीं. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायतीराज का ऐलान किया था. इस व्यवस्था में पूरे देश को जिम्मेदारी दी गई थी, उसमें मध्यप्रदेश भी शामिल था. मध्यप्रदेश में पंचायती राज का संचालन सफलतापूर्वक हो रहा था किन्तु समय आगे बढऩे के साथ पंचायतीराज व्यवस्था और सुंदर होने के बजाय कुरूप होता गया. चुनावी व्यवस्था ने पंचायतीराज व्यवस्था को जख्मी कर दिया. पहले तो गांव, फिर मोहल्ले और बाद के दिनों में घरों में तनातनी और विवाद की स्थिति उपजने लगी. पद और सत्ता की लालसा ने पंचायतीराज को दांव पर लगा दिया. देश के और प्रदेशों में भी पंचायतीराज व्यवस्था का यही हाल होगा, कहा नहीं जा सकता किन्तु मध्यप्रदेश को लेकर अनुभव कड़ुवे रहे हैं. इस कड़़ुवे अनुभव का यह ताजा उदाहरण है.
पूर्व में भी मध्यप्रदेश के अनेक पंचायतों में सरपंच पद पर बोली लगायी जाती रही है. साधन सम्पन्न और धनिक परिवारों द्वारा अनेक प्रकार से आर्थिक मदद कर सरपंच पद पर कब्जा करने की खबरों की पुष्टि हुई है. इधर पंचायत चुनाव को प्रभावी बनाने के लिए राज्य सरकार की योजना भी पंचायतीराज व्यवस्था को क्षति पहुंचा रही है. निर्विरोध निर्वाचन के लिए ईनाम दिए जाने की सरकार की योजना के चलते वास्तविक हकदार पीछे रह जाते हैं. निर्विरोध निर्वाचन को आधार बनाकर बाहुबली सरपंच पद पर कब्जा कर लेते हैं. राजधानी भोपाल के आसपास क्षेत्रों से लेकर प्रदेश के सुदूर अंचलों में ऐेसे कई मामले प्रकाश में आते रहे हैं.
यह सब उदाहरण निराश करते हैं तो आशा की किरणें भी कम नहीं है. मध्यप्रदेश में खासतौर पर महिलाओं के जज्बे के आगे बाहुबली पानी भरते नजर आए हैं. इन महिलाओं ने कोई समझौता नहीं किया. सरकार द्वारा महिलाओं के लिए पंचायतों में आरक्षण का प्रावधान किए जाने से उनके हौसले और भी बढ़े हैं. बालाघाट की महिला सरपंच ने परवाह किए बिना गांव के बीचोंबीच बने शराब की दुकान को गांव की सीमा के बाहर कर दिया तो एक आदिवासी महिला सरपंच ने अपने बूते गांव में स्कूल में ऐसी व्यवस्था की कि वह स्वयं बच्चों के साथ पढऩे आने लगी. उसने अपने पद और मर्यादा का खयाल ही नहीं रखा अपितु दूसरे लोगों के लिए उदाहरण बन गयी. स्वच्छता, रोजगार और महिला अधिकारों के साथ बच्चों की शिक्षा, खासतौर पर बच्चियों की शिक्षा में भी महिला सरपंचों ने हौसले का परिचय दिया है. हालात यह है कि प्रदेश की कुछ पंचायतें तो ऐसी हैं जहां पूरी पंचायत पर महिलाओं का कब्जा और दबदबा है.
मध्यप्रदेश पंचायती राज के दोनों चेहरे समाज के सामने हैं. पंचायतीराज सत्ता नहीं बल्कि सहभागिता की व्यवस्था है। और इसे सत्ता समझ कर सत्ता के लाभ को पाने वालों की मंशा भी दिखती है और सहभागिता मानकर गांव के विकास के लिए प्रतिबद्ध पंचायतों की फेहरिस्त भी है. सवाल यह है कि महात्मा गांधी के सपनों के पंचायतीराज व्यवस्था को किस दिशा में आगे ले जाना है, इस पर मीमांसा करने की जरूरत होगी. राजस्थान में पंचायत चुनाव के लिए शैक्षिक योग्यता अगर शर्त है तो इस शर्त को लागू करने में दूसरे प्रदेशों को आगे आना होगा. यदि ऐसा नहीं किया गया तो अशिक्षा के बहाने पंचायतें दांव पर लगती रहेंगी.
लेखक मनोज कुमार से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.