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पैसों से खबरें छपवाकर क्रांति करने का जज्बा

मीडिया के सहयोग के बिना क्या आज किसी राजनैतिक पार्टी और आन्दोलन का अस्तित्व सचमुच संभव नहीं रह गया। इस बारे में याद आता है 90 का दशक जब अखबारों के ज्यादातर पाठक सवर्ण बिरादरी के थे। मुसलमानों में भी अखबारों की पहुंच बहुत कम थी। जाहिर है कि इसकी वजह से अखबारों का रुझान भी एक पक्षीय था। दैनिक जागरण और दैनिक आज जैसे अखबारों ने अयोध्या में 30 नवम्बर 1990 को पुलिस द्वारा गोली चलाने से सैकड़ों कारसेवकों के मारे जाने की जो अनर्गल खबरें छापी थीं वह इसी एक पक्षीय आवेग का परिणाम था। इसी दौर में मण्डल आयोग की रिपोर्ट के क्रियान्वयन को लेकर सवर्ण युवकों द्वारा आत्मदाह और आत्महत्या करने की गढ़ी हुई खबरें भी छापी जा रही थीं लेकिन जल्द ही अखबारों को समझ में आ गया कि वे राजनीति के भाग्य विधाता नहीं हैं। अम्बेडकरवादी आन्दोलन, मण्डल आन्दोलन और अयोध्या विवाद की पृष्ठभूमि में अस्तित्व रक्षा के लिये चिंतित मुसलमानों की राजनैतिक जागरूकता का अचानक बढ़ा ग्राफ अखबारों के लिये एक नया स्पेस तैयार कर रहा था। उधर अखबारों के बीच प्रसार संख्या बढ़ाने की जीवन मरण की लड़ाई छिड़ी हुई थी। नतीजा यह हुआ कि नये स्पेस को हथियाने के लिये अखबारों ने एकदम शीर्षासन कर दिया। मायावती के बारे में आपत्तिजनक समाचार प्रकाशन के बाद दैनिक जागरण के लखनऊ कार्यालय में जो हंगामा हुआ था उसके बाद अखबार ने यह फैसला लेना चाहा था कि उसमें बसपा की खबरें नहीं छपेंगी लेकिन जागरण अपने इस संकल्प पर टिका नहीं रह सका।

<p>मीडिया के सहयोग के बिना क्या आज किसी राजनैतिक पार्टी और आन्दोलन का अस्तित्व सचमुच संभव नहीं रह गया। इस बारे में याद आता है 90 का दशक जब अखबारों के ज्यादातर पाठक सवर्ण बिरादरी के थे। मुसलमानों में भी अखबारों की पहुंच बहुत कम थी। जाहिर है कि इसकी वजह से अखबारों का रुझान भी एक पक्षीय था। दैनिक जागरण और दैनिक आज जैसे अखबारों ने अयोध्या में 30 नवम्बर 1990 को पुलिस द्वारा गोली चलाने से सैकड़ों कारसेवकों के मारे जाने की जो अनर्गल खबरें छापी थीं वह इसी एक पक्षीय आवेग का परिणाम था। इसी दौर में मण्डल आयोग की रिपोर्ट के क्रियान्वयन को लेकर सवर्ण युवकों द्वारा आत्मदाह और आत्महत्या करने की गढ़ी हुई खबरें भी छापी जा रही थीं लेकिन जल्द ही अखबारों को समझ में आ गया कि वे राजनीति के भाग्य विधाता नहीं हैं। अम्बेडकरवादी आन्दोलन, मण्डल आन्दोलन और अयोध्या विवाद की पृष्ठभूमि में अस्तित्व रक्षा के लिये चिंतित मुसलमानों की राजनैतिक जागरूकता का अचानक बढ़ा ग्राफ अखबारों के लिये एक नया स्पेस तैयार कर रहा था। उधर अखबारों के बीच प्रसार संख्या बढ़ाने की जीवन मरण की लड़ाई छिड़ी हुई थी। नतीजा यह हुआ कि नये स्पेस को हथियाने के लिये अखबारों ने एकदम शीर्षासन कर दिया। मायावती के बारे में आपत्तिजनक समाचार प्रकाशन के बाद दैनिक जागरण के लखनऊ कार्यालय में जो हंगामा हुआ था उसके बाद अखबार ने यह फैसला लेना चाहा था कि उसमें बसपा की खबरें नहीं छपेंगी लेकिन जागरण अपने इस संकल्प पर टिका नहीं रह सका।</p>

मीडिया के सहयोग के बिना क्या आज किसी राजनैतिक पार्टी और आन्दोलन का अस्तित्व सचमुच संभव नहीं रह गया। इस बारे में याद आता है 90 का दशक जब अखबारों के ज्यादातर पाठक सवर्ण बिरादरी के थे। मुसलमानों में भी अखबारों की पहुंच बहुत कम थी। जाहिर है कि इसकी वजह से अखबारों का रुझान भी एक पक्षीय था। दैनिक जागरण और दैनिक आज जैसे अखबारों ने अयोध्या में 30 नवम्बर 1990 को पुलिस द्वारा गोली चलाने से सैकड़ों कारसेवकों के मारे जाने की जो अनर्गल खबरें छापी थीं वह इसी एक पक्षीय आवेग का परिणाम था। इसी दौर में मण्डल आयोग की रिपोर्ट के क्रियान्वयन को लेकर सवर्ण युवकों द्वारा आत्मदाह और आत्महत्या करने की गढ़ी हुई खबरें भी छापी जा रही थीं लेकिन जल्द ही अखबारों को समझ में आ गया कि वे राजनीति के भाग्य विधाता नहीं हैं। अम्बेडकरवादी आन्दोलन, मण्डल आन्दोलन और अयोध्या विवाद की पृष्ठभूमि में अस्तित्व रक्षा के लिये चिंतित मुसलमानों की राजनैतिक जागरूकता का अचानक बढ़ा ग्राफ अखबारों के लिये एक नया स्पेस तैयार कर रहा था। उधर अखबारों के बीच प्रसार संख्या बढ़ाने की जीवन मरण की लड़ाई छिड़ी हुई थी। नतीजा यह हुआ कि नये स्पेस को हथियाने के लिये अखबारों ने एकदम शीर्षासन कर दिया। मायावती के बारे में आपत्तिजनक समाचार प्रकाशन के बाद दैनिक जागरण के लखनऊ कार्यालय में जो हंगामा हुआ था उसके बाद अखबार ने यह फैसला लेना चाहा था कि उसमें बसपा की खबरें नहीं छपेंगी लेकिन जागरण अपने इस संकल्प पर टिका नहीं रह सका।

प्रतिद्वंद्वी अखबार कहीं दलित चेतना के विस्फोट की वजह से उभरे नये पाठक संसार को न हथिया लें इस कारण जागरण ने बिना शर्त बसपा के सामने समर्पण करते हुए उसके समाचार प्रकाशित करने शुरू कर दिये। तमाम अखबार मण्डल समर्थक खबरों और आलेखों को जगह देने लगे। नवभारत टाइम्स जैसे दक्षिणपंथी अखबार ने सुरेन्द्र प्रताप सिंह के नेतृत्व में दो महत्वपूर्ण रविवारीय परिशिष्ट प्रकाशित किये। मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू होने की पृष्ठभूमि में प्रकाशित किये गये एक परिशिष्ट में पिछड़ा आन्दोलन के व्यापक आयामों पर आधारित अन्य लेखों के अलावा एक एक्सक्लूसिव स्टोरी इस बात पर थी कि किस तरह से अखबारों ने जिन युवकों की आत्महत्या को मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के चलते उनके अवसाद से जोड़ा था वे वास्तव में प्रेम प्रसंग में निराशा या अन्य वजह से आत्महत्या के लिये प्रेरित हुए थे। नवभारत टाइम्स के इस रहस्योद्घाटन से अफवाह को खबर बनाने वाले अखबारों की बुरी भद्द पिटी थी। दूसरा परिशिष्ट अयोध्या विवाद के बारे में था। जिसमें डा.रामविलास शर्मा जैसे महान विद्वानों ने बताया था कि राम पूजा की परंपरा कितनी नई है। इस कारण सदियों पुराना राम मन्दिर अयोध्या में होने के हिन्दू संगठनों के दावों की धज्जियां उड़ गयी थीं। उन दिनों इन पंक्तियों का लेखक उरई से एक दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित कर रहा था और उक्त ज्वलंत मुद्दों पर उस समाचार पत्र दैनिक लोकसारथी ने भी धारा के खिलाफ रुख अख्तियार कर रखा था जिसकी वजह से उसे स्थानीय स्तर पर अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली थी। यहां कहने का तात्पर्य यह है कि कोई राजनैतिक सामाजिक आन्दोलन अखबार या मीडिया का मोहताज नहीं है बल्कि सच यह है कि अगर कोई आन्दोलन लोगों के बीच में पैठ रखता है तो वह मीडिया को मजबूर कर सकता है कि उसके कर्ताधर्ताओं की उपेक्षा के बावजूद वह उसे कवर करे।

पर आज इसके उलट हो रहा है। तथाकथित जनवादी आन्दोलन और पार्टियां भी आज कारपोरेट अखबारों में खबर छप जाये इसके लिये मीडिया कर्मियों पर पैसा खर्च करती हैं। सवाल यह है कि उनकी यह दयनीय दशा क्यों हुई है। साथ ही यह भी कि इस तरह की स्थितियों के रहते क्या कोई वैकल्पिक राजनैतिक मंच राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर तैयार हो सकता है। इन स्थितियों में वैकल्पिक राजनीति के लिये जनता की छटपटाहट केजरीवाल जैसे स्वर्ण मृगों पर विश्वास करके छले जाने के लिये अभिशप्त हो गयी है। कांशीराम मीडिया के लोगों को अपनी सभाओं से भाग जाने तक की कहने से नहीं चूकते थे लेकिन जितना ही उन्होंने मीडिया को जलील किया उतना ही मीडिया के लिये उनका आकर्षण बढ़ता गया। मूल बात यह है कि पैसे देकर खबरें छपवाकर कोई राजनैतिक दल क्रांति करेगा यह भरोसा जनता को किसी कीमत पर नहीं करना चाहिये। अगर किसी राजनैतिक आन्दोलन को जनता का समर्थन हासिल करना है तो लोगों के साथ संवाद की अन्य विधियां और प्रक्रियायें उसे अपनानी होंगी। आज भी अगर किसी आन्दोलन और पार्टी की लोगों में पैठ है तो उसे खबरों के लिये पैसा देने की जरूरत पड़े यह बात तो अलग है अगर वह दुत्कारे भी तब भी मीडिया उसके दर पर मत्था टेकने को मजबूर होगी। हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर इन पंक्तियों के लेखक ने 24 घंटे के सूचना आघात और किसी मुद्दे पर सम्पूर्णता की बजाय उसके खास पहलुओं पर चर्चा कराने की मीडिया में प्रचलित हो रही परिपाटी को जनता के सहज विवेक को नष्ट करने वाली निहित स्वार्थी ताकतों की षड्यन्त्रकारी योजना का हिस्सा बताया था और कहा था कि इसके चलते प्राकृतिक न्याय की सोच दूर होती चली जा रही है जिससे समाज की समग्र भलाई की संभावनायें बंद होती जा रही हैं। चिंतन के इस बिन्दु पर व्यापक विचार विमर्श शुरू करने की जरूरत है।

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