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बहुत मुश्किल है वीरेन डंगवाल होना !

वीरेन डंगवाल! बस नाम ही काफी है। जिसने सुना हो या मिला हो उसके दिल दिमाग में उनकी एक अलग ही छवि बन जाती थी, जिसकी शायद किसी से तुलना बहत मुश्किल से हो पाती थी। आज भी कोई उनके जैसा कोई दूसरा खोज सकता। ऐसा नहीं है ही कि उनके व्यक्तित्व में सब अच्छाईयां ही भरी थी, वह भी इंसान थे, सबके जैसे बेहद खिलंदड़, अल्हड, और हंसोड़ और भी न जाने क्या क्या। बयान करने से पहले सोचना भी मुश्किल है। उनका व्यक्तित्व में बहुत कुछ प्राकृतिक था। उन्होंने किसी को आदर्श नहीं माना। वह खुद के गढ़े सिद्धांतों पर चलते थे। डिगते थे, मगर बहुत परखने के बाद।

वीरेन डंगवाल! बस नाम ही काफी है। जिसने सुना हो या मिला हो उसके दिल दिमाग में उनकी एक अलग ही छवि बन जाती थी, जिसकी शायद किसी से तुलना बहत मुश्किल से हो पाती थी। आज भी कोई उनके जैसा कोई दूसरा खोज सकता। ऐसा नहीं है ही कि उनके व्यक्तित्व में सब अच्छाईयां ही भरी थी, वह भी इंसान थे, सबके जैसे बेहद खिलंदड़, अल्हड, और हंसोड़ और भी न जाने क्या क्या। बयान करने से पहले सोचना भी मुश्किल है। उनका व्यक्तित्व में बहुत कुछ प्राकृतिक था। उन्होंने किसी को आदर्श नहीं माना। वह खुद के गढ़े सिद्धांतों पर चलते थे। डिगते थे, मगर बहुत परखने के बाद।

कवि साहित्यकार, पत्रकार संपादक जैसे भारी भरकम व्यक्तित्व भले उनकी पहचान बने, मगर जब भी कोई उनसे मिला, तो वह उनमें यह सब खोजता रहा। उनसे जब भी मिला तो लगा कोई दोस्त है! आओ आओ दोस्त! यह उनका एक तकिया कलाम था, सबसे मिलने का! वज एक जादुई शख्सियत लेकर इस दुनिया में आए थे। मिलने-जुलने और यारी दोस्ती के अंदाज़ उनसे सीखने वाले थे। लोग उनके क्रांतित्व के उतने कायल नहीं थे जीतने उनके व्यवहार और सोच के उससे भी ज्यादा एक अल्हड़ अंदाज़ के। वह किसी पर अपनी मर्जी थोपते नहीं थे। यहाँ तक की पत्नी पर भी। रीता भाभी से उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि इनके लिए चाय बना दो हाँ, ये कहा कि यह कह रहे कि कि चाय जरूर पीएगें, बताओ अब क्या करूँ। उनके इस अंदाज़ से भाभी तो पूरी तरह वाकिफ थी इसलिए उन्हें हंसी नहीं आती थी।
जब भी मिले, जिससे भी मिले, गर्मजोशी से। ऐसा कभी लगा ही नहीं की कभी अपनी किसी परेशानी या उलझन या किसी और व्यस्तता में भी कभी उलझे हो। इसका मतलब यह भी नहीं की उन्होंने गृहस्थी को तवज्जो नहीं दी! जितनी आत्मीयता से वह से युवा पत्रकारों को “बेटे” कह कर का सम्बोधित करते थे, उतनी ही आत्मीयता अपने बेटों से सम्बोधन में दिखाई देती थी। सामाजिक औपचारिकता, रीतिरिवाज, परम्पराएँ और कुछ भी करने या न करने की मजबूरी का उनके जीवन में कोई स्थान नहीं था। अपनी मर्जी के मालिक थे वह। कई बार उनकी सोच सिखाती थी की खुद का आचरण कैसा हो, मगर इसके पहले खुद को उस स्थान पर रखना बहुत मुश्किल काम था। बहुत साड़ी सामाजिक परम्पराओं, रीति-रिवाजों, अभ्यागत सत्कारों को वह बेवजह का मानते थे, और उसी तरह खुद को अनौपचारिक रखते हुए, कोशिश करते थे कि सामने वाला उपेक्षित महसूस न करे। जितना संकोच और सम्मान वह दूसरों का करते थे, घर में हालत उससे भिन्न नहीं रखते थे। रीता भाभी को उन्होंने जब भी कुछ बोला तो आग्रह पूर्वक। आदर्श नहीं, अधिकार से नहीं।
पहाड़ के लोगों के बीच वीरेन दा, बरेली में डंगवाल जी थे। उनका व्यक्तित्व कभी किसी भौगोलिक सीमा मे नहीं बंधा, इसकी इजाजत उन्होंने कभी नहीं दी, मगर फिर भी उनको बांधे रखने की बहुतेरी कोशिशें हुईं, वह बंधे नहीं, मगर यह भी नहीं कह सकते कि वह ऐसे बंधन से पूरी तरह अपने मन के मुताबिक मुक्त भी हो सके। वीरेंन डंगवाल के भीतर बहुत सारे व्यक्तित्व एक साथ जीते थे। बाहर भी आते थे, सटीक समय पर। तब यकायक आश्चर्य होता था एक आदमी पल भर में इतना कैसे बदल और घुलमिल सकता है। यहाँ तक कि कभी-कभी बच्चों जैसे लगते थे। बातों से भी और शरारतों से भी।
उन्हें बहुत बड़ा साबित करने और आँकने के लिए अक्सर बड़े-बड़े नाम लिए जाते हैं, मगर मैं नहीं समझता उन्होंने अपनी तुलना किसी से करने को कभी पसंद किया हो। बरेली कॉलेज में प्रोफेसर रहते हुए रोजाना शाम को वह अमर उजाला आते थे। बरसों से उनके पास अपना विजय सुपर स्कूटर था, मगर यह क्या जब उनके बेटे साइकिल चलाने लायक हुए तो अक्सर बच्चों की साइकिल से ही अमर उजाला आ जाते थे। रास्ते में कई बार मिले, मुस्कुराते हुए, अपनी बचकानी आदतों पर, कहते थे थोड़ी वर्जिश भी होनी चाहिए। मगर यह एक बहाना ही था, वह जिंदगी को खुलकर जीते थे, कभी अपना व्यक्तित्व खुद पर हावी नहीं होने दिया, ऐसे इंसान को कोई कैसे किसी बंधन या परम्पराओं मे जकड़ सकता है?
एलएलबी करते हुए बरेली कालेज के छात्र आंदोलन मे अपनी सक्रियता के चलते कई बार अखबार से साबका पड़ा, खबर देने भी जाना पड़ता था। इसी दौरान मेरी मुलाक़ात ड़गवाल जी से हुई। एक बार मेरा छात्रों से संबन्धित एक समाचार उन्होंने देखा और बोले किसने लिखा है ये? मैंने कहा मैंने ही लिखा है। बोले यार तुम तो पत्रकारों की तरह खबरें लिखते हो, तो और लिखो। जैसे मेरे भीतर के सोये बागी आदमी और एक पत्रकार को उन्होंने उसी क्षण झकझोर के जागा दिया। मेरे घर के आसपास बरसों से शीरे का कारोबार होता था, और यह शीरा खुली नांदों में पकाया जाता था। एक तो शीरे की गैस और ऊपर से भट्टियों की आग, बेचारे पसीना बहाते मजदूरों का दर्द किसी तरह से प्रशासन की निगाह में लाने का मेरा मन था। मैंने जो भी लिख सकता था, लिखा और एक दिन जाकर डंगवाल जी को उनके घर दे आया। यह क्या अगले ही रविवार को देखा तो एक बड़ी सी स्टोरी अमर उजाला में छपी हुई थी। नीचे मेरा नाम, मैं अवाक था। इसके बाद जब-जब मैं उनसे कृतज्ञ भाव से मिला, तो उन्होंने इतना मौक़ा ही नहीं दिया और थोड़ा हिदायत देते हुए बोले तुम अच्छा कर सकते हो।
कॉलेज की प्रोफ़ेसरी का रुआब उन्होंने कभी अपने छात्रों पर नहीं दिखाया। अमर उजाला बरेली में एक अलग मुकाम शुरू से हासिल होने के बावजूद नए पत्रकारों को भले ही उनसे मिलने में संकोच हो, मगर उनके इस संकोच को भांपकर वह खुद ही आगे बढ़कर ऐसे मिल लेते थे कि संकोच काफूर! और अगला यह सोचता रह जाता था कि आखिर यह हुआ क्या।
साहित्य और पत्रकारिता में शुरू से ही एक बड़ा नाम बन गए। अपने व्यवहार और सोच ने उन्हें उससे भी बड़ा बना दिया। यही वजह थी कि अखबार में कोई पद उनके लिए बेमानी था। उन्हें अमर उजाला के दफ्तर में बैठने के लिए कोई दफ्तर नुमा कमरा सजा-धजा आफिस, ऊंची कुर्सी और वह सारे तामझाम नहीं चाहिए होते थे जो बड़े-बड़े नाम पहले मांगते रहे हैं। हालांकि उनका एक कमरा था। बढ़िया कुर्सी मेज और एक सहायक के साथ जब तक वह दफ्तर मे रहें तब तक के लिए एक चपरासी भी उनकी सेवा में रहता था, मगर उनके लिए इस सबका कोई अर्थ कभी रहा ही नहीं। अक्सर वह अखबारों के ढेर पर, रद्दी के बीच में, तो कभी जमीन पर बेतरतीब पड़े अखबारों के ढेर पर पर बैठे और कुछ पढ़ते हुए मिलते थे। कभी-कभी तो उन्हें खोजना पड़ता था कि आखिर बैठे कहाँ हैं।
सन 1985 की अक्तूबर में अमर उजाला में विधिवत काम शुरू करने के बाद से मेरा सबसे ज्यादा सबका उनसे पड़ता था। वह मुझे हमेशा प्रोत्साहित करते थे। मेरी बहुत सारी खबरें/स्टोरी ऐसी रही जिनका रुख ही उन्होंने बादल दिया। अक्सर वह मेरे उठाए विषयों को पसंद करते थे। यही वजह रही कि वह मुझसे पूछ भी लेते थे कि “विस्फोट कर रहे हो प्यारे”! मेरे लिए यह काफी था। मेरे हम उम्र कुछ साथी ओयन को मेरा उनसे और उनका मुझसे इस बेबाकी से मिलना पसंद नहीं आता था। बीच मे बहुत लंबे अरसे तक उनसे संपर्क नहीं हुआ, जब उनका ऑपरेशन हुआ और बरेली आए तो उनसे मिलना हुआ। सर्दी के मौसम मे दरी बिछाए तख्त पर ऐसे बैठे थे। मानो उन्हें कोई बीमार न समझ ले। मुहावरों चुटकुलों मे बातों को ऐसा मोड़ दे दिया करते थे कि हंसी न रुके और पल भर किसी बात को लेकर इतना गुस्सा कि खुद का चेहरा लाल हो जाया करता था। मुद्दे उन्हें छोड़ दिया करते थे। अपनी उनकी जो सोच रही सो रही, मगर बाद में उसी सोच में बांधे रखने के लिए बहुतेरे लोगों ने उनपर आखिर तक अपना एकाधिकार बनाए रखने की कोशिश की तमाम तरीके से! जिससे वह आखिर तक निकाल नहीं पाये।
उनकी एक कविता के कुछ अंश
कहाँ की होती है वह मिटटी, जो हर रोज़ साफ़ करने के बावजूद, तुम्हारे बूटों के तलवों में चिपक जाती है? कौन होते हैं वे लोग, जो जब मरते हैं, तो उस वक्त भी नफ़रत से आँख उठाकर तुम्हें देखते हैं? आँखें मून्दने से पहले, याद करो रामसिंह और चलो।

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