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ये दुनिया

घर के बुजुर्ग का निधन हुआ तो परंपरा के नाम पर मुझे परीक्षा देने से रोक दिया गया!

Rajeev Sharma-

कोई परंपरा किसलिए होती है? बहुत आसान शब्दों में कहूँ तो इसलिए कि जीवन में अनुशासन पैदा हो, सब काम ठीक तथा व्यवस्थित ढंग से पूरे हों। ऐसे कई क्षण आए, जब मुझे परंपराओं और जीवन की बेहतरी में से किसी एक को चुनना पड़ा तो मैंने बेहतरी को चुना। इसके लिए बहुत लोगों की नाराज़गी मोल ली, लेकिन मैं उनके सामने मज़बूती से डटा रहा।

मुझे याद है, मार्च 1999 में हमारे परिवार में एक वृद्ध सदस्य का निधन हो गया था। उस घटना के हफ़्तेभर बाद मेरी मौखिक परीक्षाएँ शुरू हो गईं। जो टाइम टेबल आया, उसके मुताबिक़, एक ही दिन में तीन मौखिक परीक्षाएँ होनी थीं, शायद दस-दस नंबर की।

जब मैंने इसके बारे में बताया तो मुझे ‘कुछ बड़े लोगों की ओर से’ स्पष्ट आदेश मिला कि ‘कहीं नहीं जाना है, पहले परंपराएँ हैं, उसके बाद परीक्षा है। घर पर काम करवाओ।’

मैंने इसका विरोध किया। मैं सातवीं कक्षा का बच्चा था और यह सोच-सोचकर हैरान था कि कुछ लोगों को मेरी परीक्षा और पढ़ाई-लिखाई से इतनी चिढ़ क्यों है!

मैं अपनी ज़िद पर अड़ा था कि परीक्षा देने जाऊँगा, साथ ही अन्य विकल्प अपनाने के लिए ख़ुद को तैयार कर चुका था। मैंने सामाजिक विज्ञान की किताब में पढ़ा था कि भारत में राष्ट्रपति सबसे ‘बड़े आदमी’ होते हैं … उनके पास कई शक्तियाँ होती हैं … इसलिए उन्हें चिट्ठी लिखकर मदद माँगने का इरादा किया।

मैं स्कूल में पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ता रहता था। इसलिए जानता था कि केआर नारायणन हमारे राष्ट्रपति हैं (तब थे), अगर उन्हें चिट्ठी लिखूँगा तो वे ज़रूर मेरी बात पर ध्यान देंगे।

ख़ैर, चिट्ठी लिखने की नौबत नहीं आई। मैं निर्धारित समय पर स्कूल गया। मेरी माँ ने मुझसे कहा था कि तेरी परीक्षा है, जल्दी से भाग जा।

पीछे थोड़ा-बहुत हंगामा मचा कि यह लड़का नालायक है। मैंने परीक्षाएँ दीं और घर आ गया। किसी से बहस नहीं की। अगली परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया। जब नतीजा आया तो पता चला कि मैं पूरी कक्षा में प्रथम स्थान पर रहा हूँ। मुझे दु:ख इस बात का था कि मेरी कामयाबी को जो सबसे ज़्यादा सराहता, वह अब इस दुनिया में नहीं था।

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इसी तरह, जनवरी 2003 की बात है। परिवार में एक और वृद्ध सदस्य नहीं रहे। उनके ग्यारहवें की रस्म (जब परिवार के सदस्य कुएँ पर नहाने जाते हैं) से दो दिन पहले अंग्रेज़ी के गुरुजी (जो ओमजी के नाम से विख्यात हैं और अपने विषय के बड़े विद्वान हैं) ने कक्षा में घोषणा की कि वे (उस रस्म वाले दिन) टेस्ट लेंगे, इसलिए सब बच्चे तैयारी करके आएँ।

मैं टेस्ट के लिए तैयार था, इस बात के लिए भी कि अब कोई मेरे टेस्ट देने में अड़ंगा डालेगा तो न केवल राष्ट्रपति (उस समय कलाम साहब थे) को चिट्ठी लिखूँगा, बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ तक अपनी आवाज़ पहुँचाऊँगा। अब मुझे देश-दुनिया की ज़्यादा जानकारी हो चुकी थी।

मैं उस दिन कुएँ पर ज़रूर गया, लेकिन थोड़ा-सा पानी लेकर सिर्फ़ मुँह धोया, प्रणाम किया और किताबों का थैला उठाकर स्कूल की ओर चल पड़ा। पीछे कुछ लोग ज़रूर बुरा-भला कहते रहे, पर मेरे क़दम कहीं नहीं रुके। मैंने टेस्ट दिया, जिसमें सबसे ज़्यादा नंबर आए।

प्राय: परंपराएं निभाने के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि इससे ईश्वर प्रसन्न होंगे, लेकिन यहाँ मेरा सवाल है- क्या ईश्वर किसी बच्चे की परीक्षा / टेस्ट में रुकावट डालने से प्रसन्न होते हैं? मैंने तो यही पढ़ा और सुना है कि ईश्वर ज्ञानियों के ज्ञानी हैं, बल्कि ज्ञान के सबसे बड़े भंडार हैं। इसलिए जो व्यक्ति ज्ञान का प्रचार-प्रसार करेगा, वे उससे प्रसन्न होंगे, न कि उससे, जो किसी न किसी बहाने से दूसरों की पढ़ाई व परीक्षाओं में बाधा डालने की कोशिश करे।

मुझे कोई अच्छा कहे या बुरा कहे, मैंने कई मामलों में ऐसे लोगों की परवाह करनी छोड़ दी है, जिनकी नज़र भविष्य पर नहीं, बल्कि हज़ार साल पुराने ज़माने पर है। उनकी सबसे बड़ी इच्छा यही होती है कि दुनिया को ऐसा गियर लगाएँ कि सबको हज़ारों साल पीछे ले जाएँ, जहाँ सुधार के लिए दूर-दूर तक कोई गुंजाइश न हो।

मैं इतिहास और पूर्वजों का विरोधी नहीं हूँ, लेकिन मेरा दृढ़ विश्वास है कि यह रवैया बड़ा ख़तरनाक है कि हम परंपराएं निभाने में विवेक व बुद्धि से काम न लें। इसने हमें बहुत नुक़सान पहुँचाया है। पुराने ज़माने की अच्छी बातों / परंपराओं को अपने निजी और सामाजिक जीवन का हिस्सा ज़रूर बनाएँ। उसके साथ इसका भी ध्यान रखें कि ये (बातें / परंपराएँ) हमारे जीवन को आसान बनाने के लिए, समाधान करने के लिए हों, न कि मुसीबत पैदा करने के लिए। हज़ारों साल पहले जैसी ज़रूरतें थीं, तब उनके मुताबिक़ परंपराएँ शुरू की गईं। उनमें से कई आज भी प्रासंगिक हैं। उन्हें जारी रखना ठीक है, लेकिन जो अपना औचित्य गँवा बैठीं, जो हमारी प्रगति व कल्याण में बाधक बन रही हैं, उनमें सुधार क्यों नहीं होना चाहिए?

न तो सब परंपराएँ अच्छी ही अच्छी हैं, न सब परंपराएँ बुरी ही बुरी हैं। हम अच्छाई को स्वीकार करें और जहाँ ज़रूरत हो, वर्तमान व भविष्य को ध्यान में रखते हुए पुरानी परंपराओं में सुधार भी करें।

मैंने अपनी मेहनत से जो थोड़े-से संसाधन जुटाए हैं, उनकी वसीयत (कोरोना काल में) कर चुका हूँ। आज अच्छे पुस्तकालयों की कमी, युवाओं में फ़िज़ूलख़र्ची, नशाख़ोरी, पर्यावरण प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन … जैसी गंभीर समस्याएँ मौजूद हैं। आज परंपराएँ ऐसी हों, जो हमें पुस्तकालय खोलने के लिए प्रेरित करें, युवाओं को बुरी आदतों, नशाख़ोरी से दूर रहने की शिक्षा देते हुए बचत के लिए प्रोत्साहित करें, जो धरती को हरी-भरी बनाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा पौधे लगाने का संदेश दें, जो जल संरक्षण व सौर ऊर्जा को बढ़ावा दें। मैं समझता हूँ कि ईश्वर इन परंपराओं से जल्दी प्रसन्न होंगे, क्योंकि आज उनकी धरती को इनकी सख़्त ज़रूरत है।

.. राजीव शर्मा ..

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कोलसिया, झुंझुनूं, राजस्थान

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