Shambhunath Shukla : अक्सर मीडिया, राजनेताओं और बौद्घिकों द्वारा चलाई गई हवा की दिशा में बहकर हम जमीनी मुद्दों को भूल जाते हैं। और फिर मीडिया ही उन मुद्दों पर ध्यान खींचता है तो लगता है कि अरे इस पर तो कभी सोचा ही नहीं। आज सुबह ‘सबलोग’ में प्रकाशित आशीष कुमार अंशु का एक लेख- आरक्षण की समीक्षा वाया सवर्ण आयोग पढ़ा तो दंग रह गया। शहर में रहते हुए हम हकीकत नहीं जानते हैं। आज जो इक्का-दुक्का सवर्ण गांवों में हैं उनकी स्थिति काफी दयनीय है।
‘सबलोग’ के जनवरी 2016 के अंक में प्रकाशित एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। इस संस्थान ने बिहार में सवर्णों- कायस्थों, भूमिहारों, राजपूतों और ब्राह्मणों तथा शेख, सैयद व पठानों के बीच एक सर्वे किया तो पाया कि परंपरागत जातियां (ब्राहमण व राजपूत तथा पठान) आज की दौड़ में बेहद पिछड़ गई हैं। सिर्फ भूमिहार, कायस्थ और सैयद ही पैसे वाले हैं और अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर जागरूक हैं। पिछड़े सवर्णों में वे सारी बुराइयां हैं जो उनके पिछड़े होने का संकेत देती हैं। मसलन वे पढ़ नहीं पाते, इलाज के लिए तांत्रिक व झाड़-फूंक पर यकीन करते हैं। हिंदू 12.7 प्रतिशत, मुसलमान 24.2 प्रतिशत। कर्ज में डूबे हैं और कृषि भूमि नई कुलक जातियों ने छीन ली। यह सर्वे समाज के एक वर्ग की ताजा स्थिति का बयान तो करता है।
किसानी परंपरा के सामाजिक तानेबाने के चलते श्रेष्ठता के अहंकार के कारण संभव है अकर्मण्यता का भाव ब्राह्मणों व अन्य सवर्णों में आया हो मगर जल्दी ही गायब हो गया। अब ब्राह्मण कुछ भी करना चाहते हैं पर पेशेवर जाति होने के कारण वे सिर्फ पूजा-पाठ ही जानते हैं। यह भाव शासक वर्गों के स्वार्थ के चलते आया। अगर आजादी के बाद पूजा पाठ का आरक्षण उनसे छीन लिया जाता तो यकीनन यह जहीन जाति ज्यादा तरक्की करती। आजादी के बाद से ब्राहमण प्रधान कांग्रेस सत्ता में रही। वह चाहती तो इन वर्गों की चेतना का स्तर बढ़ाती। जब एक बाबा साहेब अंबेडकर सदियों से दबी-कुचली आत्माओं को जगा सकते थे तो सत्ता पर बैठे लोगों ने ये प्रयत्न नहीं किए। पूजापाठ एक पेशा है। उतना ही ग्लानिपरक जितना कि एक मैला उठाने वाले का। मगर ब्राहमण सत्ताशीनों ने इन बेवकूफों को बस घंटी हिलाने के काम में लगाए रखा।
वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल के फेसबुक वॉल से.