आरक्षण को लेकर जितना बड़ा आंदोलन गुजरात में छिड़ा है, शायद पहले कहीं भी नहीं छिड़ा। 18-20 लाख लोगों को एक जगह इकट्ठा करना देश के किसी भी नेता के बस की बात नहीं है। गुजराती पटेलों के नेता हार्दिक पटेल को गिरफ्तार करके सरकार ने उसे देश का सबसे बड़ा युवा-नेता भी बना दिया। हिंसा भी हुई। 10-15 लोग हताहत हुए। यह आंदोलन अब फैले बिना नहीं रहेगा। सारे देश में फैलेगा। बिहार के कुर्मी, राजस्थान के गूजर, हरयाणा के जाट, महाराष्ट्र के मराठा, आंध्र और तेलंगाना के कम्मा और रेड्डी, कर्नाटक के वोकलिग्गा और कुछ पिछड़े अल्पसंख्यक भी जोर लगाएंगे कि उन्हें भी आरक्षण मिले। माले मुफ्त, दिले बेरहम। बहती गंगा में कौन हाथ नहीं धोएगा?
गुजरात में चला यह आंदोलन ठीक से संभाला नहीं गया तो भाजपा का तो भट्ठा ही बैठ गया, यह मान लीजिए। गुजरात के पटेलों के पास संख्या और साधन इतने हैं कि वे मोदी और आनंदी बेन पर बहुत भारी पड़ सकते हैं। इन्हीं पटेलों ने लगभग 30 साल पहले आरक्षण के विरुद्ध आंदोलन चलाया था। उस समय कांग्रेस के मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी ने ‘खाम’ जातियों को आरक्षण दिया था। उसके विरोध में लगभग 100 लोग मारे गए थे। भाजपा के पास अभी दो ही रास्ते हैं। या तो वह कुछ नई जातियों के लिए आरक्षण के द्वार खोल दे या आंदोलनों को बंदूकों से दबाए।
ये दोनों रास्ते दिमागी दिवालियापन के सबूत होंगे। एक तीसरा रास्ता भी है। वह यह कि वह देश में आरक्षण की संपूर्ण व्यवस्था पर पुनर्विचार के लिए तुरंत एक आयोग की घोषणा करे, जिसका काम यह जांचना हो कि आज तक आरक्षण से क्या-क्या लाभ हुए? क्या जातीय आधार पर आंख मींचकर आरक्षण देना उचित है? आरक्षण का उद्देश्य क्या है? उसके सही आधार क्या हों? क्या थोक-आरक्षण जरुरी है? क्या आरक्षण को जारी रखना जरुरी है? यदि थोक-आरक्षण देना ही है तो किन नई जातियों को जोड़ा जाए और किन को हटाया जाए? क्या सरकारी नौकरियों में आरक्षण देना जरुरी है? यदि हां तो फौज, अदालतों, निजी नौकरियों में क्यों नहीं? क्या सिर्फ असली वंचितों को सिर्फ शिक्षा में आरक्षण देना काफी नहीं है? यह सही समय है, जबकि आरक्षण की व्यवस्था के बारे में ये बुनियादी सवाल खड़े किए जाएं। यदि आरक्षण के आंदोलनों को लाठियों और गोलियों से दबाने की कोशिश की गई तो हमारे नेता ही दब मरेंगे।
लेखक डॉ. वेदप्रताप वैदिक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं.