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सबके प्यारे दलित हमारे : यूपी में दलित वोटों के लिये बिछी बिसात, महापुरुषों के सहारे दलित वोटों की लामबंदी

अजय कुमार, लखनऊ

सबके प्यारे दलित हमारे। आज की सियासत में यह जुमला सटीक बैठता है। किसी भी बिरादरी से सियासी रिश्ता जोड़ने के लिये उनके महापुरूषों का कुछ विशेष अवसरों पर महिमामंडन करने की परम्परा दशकों पुरानी है। यह ऐसा नुस्खा है जो हमेशा कारगर साबित होता है। आपके मन में श्रद्धाभाव हो या न हो लेकिन जुबान और बॉडी लैंग्वेज से ऐसा आभाष होना चाहिए जैसे आप उनके कुल देवताओं या महापुरूषों के दर्शन करके धन्य हो गये है।पूरा खेल काफी चतुराई भरा होता है,जरा सा फिसलना भारी नुकसानदायक हो जाता है। वैसे तो पूरे साल तमाम महापुरूषों के सामने ‘श्रद्धालु’ नतमस्तक होते रहते हैं। मगर चुनाव के समय इसमें और अधिक तेजी आ जाती है। ठीक वैसे ही जैसे परीक्षाओं के समय में मंदिरों में छात्रों की संख्या बढ़ जाती है,जिसने साल भर पढ़ाई की वह भी और जिसने किताब खोलकर नहीं देखी वह भी परीक्षा के समय भगवान मेहरबानी करेंगे, ऐसी उम्मीद लगाये रहता है। छात्रों में जो श्रद्धा परीक्षा के दौरान दिखाई देती है, वैसा ही श्रद्धाभाव नेताओं में चुनाव के समय दिखाई देता है।

<p><strong>अजय कुमार, लखनऊ</strong></p> <p>सबके प्यारे दलित हमारे। आज की सियासत में यह जुमला सटीक बैठता है। किसी भी बिरादरी से सियासी रिश्ता जोड़ने के लिये उनके महापुरूषों का कुछ विशेष अवसरों पर महिमामंडन करने की परम्परा दशकों पुरानी है। यह ऐसा नुस्खा है जो हमेशा कारगर साबित होता है। आपके मन में श्रद्धाभाव हो या न हो लेकिन जुबान और बॉडी लैंग्वेज से ऐसा आभाष होना चाहिए जैसे आप उनके कुल देवताओं या महापुरूषों के दर्शन करके धन्य हो गये है।पूरा खेल काफी चतुराई भरा होता है,जरा सा फिसलना भारी नुकसानदायक हो जाता है। वैसे तो पूरे साल तमाम महापुरूषों के सामने ‘श्रद्धालु’ नतमस्तक होते रहते हैं। मगर चुनाव के समय इसमें और अधिक तेजी आ जाती है। ठीक वैसे ही जैसे परीक्षाओं के समय में मंदिरों में छात्रों की संख्या बढ़ जाती है,जिसने साल भर पढ़ाई की वह भी और जिसने किताब खोलकर नहीं देखी वह भी परीक्षा के समय भगवान मेहरबानी करेंगे, ऐसी उम्मीद लगाये रहता है। छात्रों में जो श्रद्धा परीक्षा के दौरान दिखाई देती है, वैसा ही श्रद्धाभाव नेताओं में चुनाव के समय दिखाई देता है।</p>

अजय कुमार, लखनऊ

सबके प्यारे दलित हमारे। आज की सियासत में यह जुमला सटीक बैठता है। किसी भी बिरादरी से सियासी रिश्ता जोड़ने के लिये उनके महापुरूषों का कुछ विशेष अवसरों पर महिमामंडन करने की परम्परा दशकों पुरानी है। यह ऐसा नुस्खा है जो हमेशा कारगर साबित होता है। आपके मन में श्रद्धाभाव हो या न हो लेकिन जुबान और बॉडी लैंग्वेज से ऐसा आभाष होना चाहिए जैसे आप उनके कुल देवताओं या महापुरूषों के दर्शन करके धन्य हो गये है।पूरा खेल काफी चतुराई भरा होता है,जरा सा फिसलना भारी नुकसानदायक हो जाता है। वैसे तो पूरे साल तमाम महापुरूषों के सामने ‘श्रद्धालु’ नतमस्तक होते रहते हैं। मगर चुनाव के समय इसमें और अधिक तेजी आ जाती है। ठीक वैसे ही जैसे परीक्षाओं के समय में मंदिरों में छात्रों की संख्या बढ़ जाती है,जिसने साल भर पढ़ाई की वह भी और जिसने किताब खोलकर नहीं देखी वह भी परीक्षा के समय भगवान मेहरबानी करेंगे, ऐसी उम्मीद लगाये रहता है। छात्रों में जो श्रद्धा परीक्षा के दौरान दिखाई देती है, वैसा ही श्रद्धाभाव नेताओं में चुनाव के समय दिखाई देता है।

 

यूपी और पंजाब के चुनाव नजदीक हैं। बंगाल में भी चुनाव होने हैं। ऐसे में सियासतदारों के बीच तमाम महापुरूषों को लेकर श्रद्धाभाव बढ़ना लाजिमी है,जिस समाज का जितना मजबूत वोट बैंक है उसके महापुरूषों की उतनी ही पूछ होती है। यही वजह है आजलक दलितों को लुभाने के लिये बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के बाद संत रैदास के लिए सियासतदानों की श्रद्धा में भी अचानक सेंसेक्स की तरह उछाल आ गया है। 22 फरवरी 2016 को रैदास जयंती पर उनके जन्म स्थान बनारस में पीएम से लेकर दिल्ली के सीएम तक सिर दंडवत करते नजर आये। जो वाराणसी नहीं पहुंच पाये उन्होंने जहां थे वहीं से संत रैदास को याद किया। लखनऊ में समाजवादी पार्टी  और कांग्रेस के दफ्तरों में उनके विचार गूंजेंगे तो दलितों पर अपना हक जताने वाली बसपा सुप्रीमों मायावती ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित कई नेताओं की संत रविदास की स्तुति और मत्था टेकने पर तंज करते हुए कहा कि संत के आदर्शो और कर्मो को अपनाकर ही इंसान बना जा सकता है। तभी देश के गरीबों और शोषित जनता का सही रूप में भला होगा। मायावती ने कहा कि उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) को तो संत रविदास की जयन्ती मनाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, जिसने सत्ता में आते ही बसपा सरकार के उनके नाम पर रखे गए संतरविदास नगर जिले का नाम बदलकर भदोही कर दिया।

रैदास जयंती पर पहली बार इतने बड़े पैमाने पर हो रहे सियासी जुटान को यूपी-पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं। यूपी में करीब 21 फीसदी और पंजाब में 32 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी दलित वोटों की है। बीजेपी के लिए यूपी-पंजाब दोनों ही अहम हैं। बताते हैं कि बीजेपी की स्थानीय इकाई के सुझाव पर ही पीएम को गए निमंत्रण को हामी मिली थी। वहीं, आप पंजाब में दिल्ली जैसा दम दिखाना चाह रही है। मजबूत काउंटर अटैक के लिए मोदी के 15 मिनट के बदले केजरीवाल 1.5 घंटे रैदास मंदिर में रहे। सपा कार्यालय पर भी पहली बार संत रविदास के कार्यक्रम का दायरा बढ़ा दिया गया। यह और बात है कि प्रोन्नित में आरक्षण कोटा खत्म किये जाने,सपा राज में दलितों पर बढ़ते अत्याचार की वारदातों,दलितों की जमीन बिक्री कानून में बदलाव के चलते दलित समाजवादी पार्टी से खासे नाराज चल रहे हैं।

‘जाति जाति में जाति है जो केतन के पात, रैदास मनुष ना जुड़ सकें जब तक जाति न जात’ की अवधारणा वाले संत  रविदास ने इस दोहे के जरिये संदेश दिया था कि जाति का भाव खत्म किए बिना मानवता को जोड़ा नहीं जा सकता। करीब 600 साल बाद उन्हीं संत रविदास के बहाने जाति की बिसात पर सियासी फसल लहलहाने की कोशिशें हो रही है। अंबेडकर के बाद संत रविदास के नाम पर भाजपा, बसपा और कांग्रेस के साथ ही सपा भी दलित वोटों की होड़ में शामिल हो गई है। काशी में जन्में संत रविदास ऐसे महान संत थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के जरिये सामाजिक विसंगतियों पर गहरी चोट की। इसमें जातिवाद की बुराई भी शामिल थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जहां वाराणसी में रविदास मंदिर में आयोजित समारोह में शामिल हुए वहीं सपा के प्रदेश कार्यालय में भी पहली बार अनुसूचित जाति, जनजाति प्रकोष्ठ की ओर से रविदास जयंती समारोह पूर्वक मनाई गई।

आप नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी पहली बार काशी में रविदास जयंती समारोह में शामिल हुए। प्रधानमंत्री मोदी ने रविदास जयंती के जरिये भाजपा के दलित एजेंडे को पुख्ता करने की कोशिश की। संत रविदास जंयती से चार दिन पहले दलित सम्मेलन करने वाली कांग्रेस के प्रदेश मुख्यालय में संत रविदास जयंती समारोह आयोजित करके विरोधी दलों पर निशाना साधा गया। वक्ताओं ने कहा, मौजूदा राजनीतिक माहौल में संत रविदास की प्रासंगिकता और बढ़ गई है। प्रदेश कांग्रेस कांग्रेस अनुशासन समिति के अध्यक्ष रामकृष्‍ण द्विवेदी ने बसपा का नाम लिए बिना कहा कि कुछ दल एक जाति विशेष का इस्तेमाल केवल वोट बैंक के लिए कर रहे हैं। उनका दबे-कुचले और वंचित समाज के विकास व उत्थान से कोई लेना-देना नहीं है।

बहरहाल, एक तरफ दलितों के महापुरूषों की पूजा हो रही है तो दूसरी सच्चाई यह भी है कि दलितों के साथ आदिकाल से अन्याय होता आ रहा है। उनके साथ भेदभाव किया जाता है। समाज में बराबरी का हक नहीं मिलता है। कथित ऊंची जाति वाले इनके हाथ का छुआ खाना खाना तो दूर इनकी बस्ती से गुजरने से भी परहेज करते हैं। इन्हें सवर्ण जाति के लोग अपने बराबर में नहीं बैठने देते हैं। कई जगह दलितों को कुएं-हैंडपंप से पानी नहीं भरने दिया जाता। यह दर्दनाक स्थिति तब बनी हुई है जबकि तमाम सरकारें दलितों के उत्थान के लिये बड़े-बड़े कार्यक्रम चलाती हैं। दलितों के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाता है, उसी से दुखी होकर महात्मा गांधी ने कहा था कि अस्पृश्यता इंसानियत और जीवन के लिये अपराध है। बीते कुछ दशकों में यह भेदभाव काफी कम हुआ है, लेकिन आज भी जातिवाद के खिलाफ पूरी तरह से जागरूकता नहीं आई है। छूआछूत का खत्मा होने में शायद अभी कुछ और दशक लग जायेंगे। तमाम कोशिशों के बाद भी छूआछूत अगर खत्म नहीं हुआ है तो इसकी जितनी बढ़ी वजह हमारा समाज और वर्ण व्यवस्था है, उससे कहीं अधिक जिम्मेदार हमारे सियासतदार हैं जो दलितों केा वोट बैंक के नजरिये से देखते हैं। जहां अशिक्षा वहॉ अंधेरा।यह बात दलित समाज पर पूरी तरह से लागू होती है। दलित आज भी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है तो इसकी मुख्य वजह शिक्षा का अभाव है। कारण कोई भी हो,परंतु हकीकत यही है। शिक्षा के अभाव में जब दलित अपने अधिकार के बारे में ही नहीं समझ पायेंगे तो अपना हक कैसे लेंगे। अपने अधिकार हासिल करने के लिये कभी कांग्रेस के और कभी बसपा के पीछे लामबंद होने वाला यह समाज पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ खड़ा दिखाई दिया।

2017 में दलित हमारे हो जाये। यह मुहिम सभी दलों के नेता चलाये हुए हैं। यहां तक की उत्तर प्रदेश में पहली बार विधान सभा के उप चुनाव में अपनी पार्टी की किस्मत अजमाने के लिये मैदान में उतरे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम)के नेता ओवैसी को भी वोट बैंक की सियासत में मुस्लिमों के बाद दलितों पर सबसे अधिक भरोसा है। बीकापुर मं ओवैसी की पार्टी ने किस मुसलमान को नहीं एक दलित को चुनाव मैदान में उतारा था। इसी भरोसे उन्होंने फैजाबाद की बीकापुर विधान सभा क्षेत्र में चुनावी समीकरण पलट दिये। बसपा की गैर-मौजूदगी में यहां के दलितों ने कांग्रेस,सपा और भाजपा के मुकाबले एआईएमआईएम पर अधिक भरोसा जताया। बिना किसी खास तैयारी से उतरे ओवैसी के दलित उम्मीदवार प्रदीप कोरी को 11,857 वोट मिले जो ओवैसी के लिये एक अच्छा संदेश रहा। यह वोट बीजेपी प्रत्याशी से मात्र 76 वोट कम थे। उप-चुनाव में एक सीट पर हुई ओवैसी की धमाकेदार इंट्री ने 2017 के लिये ताल ठोक रहे तमाम दलों के दिग्गज नेताओं की नींद उड़ा दी है। ऐसा लगता है कि अबकी से कई दलों के नेता समाजवादी पाटी के मजबूत एम-वाई (मुस्लिम-यादव) गठजोड़ को डी-एम (दलित-मुस्लिम) गठबंधन के सहारे ध्वस्त करके अपनी ताकत बढ़ाने के फिराक में लगे हैं।

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उत्तर प्रदेश में करीब 21 प्रतिशत आबादी दलितों और 18  प्रतिशत आबादी मुस्लिमों की है। यूपी में दलितों का प्रतिशत ज्यादा है। यह दोनों जिसके भी पक्ष में एकजुट होकर वोट कर दंेगे उसकी जीत का रास्ता स्वतः ही आसान हो जायेगा है, लेकिन इससे दलितों का कितना भला होगा यह कोई नहीं जानता है। दलित एक मजबूत वोट बैंक है फिर भी उसका उद्धार क्यों नहीं हो रहा है। इस पर भाजपा नेता, सांसद और दलित चिंतक उदय राज कहते हैं। यह सच है कि दलित एक मजबूत वोट बैंक है, लेकिन वह अपने बल पर कुछ भी नहीं कर पाता है। दलितों की कोई लीडरशिप नहीं उभर पाई है। इसी वजह से दलितों के उत्थान के लिये  दलित आंदोलन की जो दिशा होनी चाहिए थी, वो नहीं है, जो उपलब्धियाँ होनी चाहिए थी, वो भी नहीं है.डॉक्टर अंबेडकर की जो मुख्य लड़ाई थी वो वर्ण व्यवस्था के खिलाफ थी. वो चाहते थे कि इस देश में इंसान रहें, जातियाँ न रहें. हम प्रयास कर रहे हैं कि अंबेडकर जी की बात को आगे लेकर चल रहे हैं,मायावती, पासवान और आरपीआई वाले भी अपने-अपने तरीके से दलित आंदोलन को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन अंबेडकर जी की जो मूल लड़ाई थी यो उनकी मुख्य विचारधारा थी, बाकी के लोग उसमें शामिल होने से कतराते हैं।

दरअसल, इसके कई कारण है। इस देश में जाति धर्म से भी ज्यादा मजबूत है. जाति ही आगे आकर खड़ी हो जाती है. जब भी इस देश में चुनाव होते हैं, सरकार को चुनने का समय आता है तो न विकास मुद्दा रहता है, न बिजली, न पानी, किसान की समस्या. जो किसान आज आत्महत्या कर रहा है, कल उसी परिवार के लोग मुद्दे की जगह जाति के आधार पर वोट देंगे. बस जाति ही निर्णायक हो गई है। दूसरे हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी कुछ ऐसी ही रही है. इस देश में सच्चाई कम और दोहरे चरित्र ज्यादा कामयाब रहे हैं.इसके अलावा लोगों की मानसिकता भी जम्मिेदार है. जिन हाथों ने काम किया, उनकी हमेशा उपेक्षा हुई और जो लोग बैठकर खाते रहे, पाखंड फैलाते रहे उनकी पूजा की जाती रही. काम के जरिए सम्मान कभी नहीं मिला.

यह सच है कि पूरे देश में दलित आंदोलन में कहीं कोई फर्क नजर नहीं आता लेकिन उत्तर की स्थिति में महाराष्ट्र के दलितों की स्थिति कुछ बेहतर है। ंदलितों के उत्थान के लिये अंबेडकर ने जो आंदोलन शुरू किया था, वह कई हिस्सो में बंट गया है। आरपीआई आज कई हिस्सों में बँट गया है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के भी दलित आंदोलनों की स्थिति अच्छी नहीं है. मदुरै का उदाहरण लें तो वहां पंचायत चुनावों में दलित खड़े तो होते थे पर कुछ ही दिनों में उन्हें इस्तीफा देना पड़ता था क्योंकि तथाकथित संभ्रांत वर्ग उन्हें कुछ करने ही नहीं देता था। यह खेदजनक है कि दलित राजनीति का आरंभ तो दलित आंदोलन से होता है किंतु सत्ता प्राप्ति के साथ ही दलित राजनीति का अंत हो जाता है. दक्षिण भारत के या उत्तर भारत के राजनेताओं का क्रियाकलाप, अवसरवादिता के अलावा कुछ नहीं है.

बात 2014 के लोकसभा चुनाव की कि जाये तो यह सच है कि राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने प्रतिद्वंदी कांग्रेस की तुलना में दलितों के बीच और अधिक वोट हासिल करने में कामयाब रहा है। दूसरा, बहुजन समाज पार्टी की गिरावट (यहां तक ​​कि दलित मतदाताओं के बीच) से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों का रहनुमा बनने की बसपा की महत्वाकांक्षा एक दूर का सपना है। 90 के दशक में बीजेपी हर दस दलित मतदाताओं में से एक को आकर्षित करने में कामयाब रहता था। मगर 2014 में हर चार दलितों में से एक भाजपा के लिए मतदान किया। भाजपा दलित वोट का एक बड़ा हिस्सा आकर्षित करने में कांग्रेस और बसपा को पार कर गया। दलित मतदाताओं के बीच बड़े पैमाने पर सियासी बदलाव दो कारणों से दिखता है। पहला सच यह है कि राजग के चुनाव पूर्व गठबंधनों ने दलित वोट को उसके पक्ष में करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पार्टी के बिहार, महाराष्ट्र में भारत के रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी (।जीअंसम) में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) जैसे दलित नेताओं के साथ गठबंधन में प्रवेश किया, और दिल्ली में उदित राज शामिल किया। दूसरा, सर्वेक्षण के आंकड़ों से स्पष्ट रूप में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जाति लाइनों में कटौती। श्री मोदी और उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ प्रतीकात्मक असंतोष का प्रतिनिधित्व करने में सफल रहे। दलित मतदाताओं के बीच भाजपा के लाभ की ज्यादातर कांग्रेस और बसपा की कीमत पर आया था। 2017 के विधान सभा चुनाव में दलित वोटर किस करवट रूख लेगा,इसकी की जाये तो निश्चित ही दलितों को लुभाने के लिये कोई भी दल पीछे नहीं रहना चाहता है।संविधान निर्माता अंबेडकर से लेकर संत रविदास,राजा सुहेलदेव या फिर कांशीराम आदि सभी महापुरूष सियासतदारों को वोट बैंक की सियासत में अचानक अच्छे लगने लगे हैं।

दलित वोट बैंक

उत्तर प्रदेश की 21 प्रतिशत दलित आबादी का 55 प्रतिशत जाटव बिरादरी है। यह वोट परंपरागत रूप से बसपा का समर्थक माना जाता है। पर, गैर जाटव बिरादरी में 16 प्रतिशत पासी, 6.50 प्रतिशत भागीदारी वाली धोबी, 5.39 प्रतिशत कोरी, 3 प्रतिशत वाल्मीकि और अन्य बिरादरियों की 14 प्रतिशत आबादी चुनावी रुझान और समीकरणों के साथ वोट देती रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में इनका ज्यादातर वोट भाजपा के पक्ष में गया था। तभी भाजपा को सूबे की सभी 17 सुरक्षित सीटों पर जीत मिली थी। मोदी की कोशिश इस वोट को भाजपा के साथ बांधे रखने की है। स्वाभाविक रूप से इसके लिए अंबेडकर से बेहतर नाम कोई दूसरा नहीं हो सकता।

ऐसे थे संत रैदास

संत रविदास जो रैदास के नाम से अधिक जाने जाते थे के जन्म वर्ष की कोई सटीक जानकारी नहीं मिलती। संत रविदास मंदिर के प्रभारी मनदीप दास रैदास जी की जन्मतिथि के बारे में कहते हैं कि कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि उनका जन्म सन 1450 में बनारस में हुआ था। कुछ मानते हैं कि वह सन 1377 या 1399 में पैदा हुए थे।‘ मन चंगा तो कठौती में गंगा’ की मशहूर कहावत उन्हीं से जुड़ी है। कबीर ने ‘संतन में रविदास’ कहकर इन्हें मान्यता दी थी। रैदास के चालीस पद ‘गुरुग्रंथ साहब’ में भी शामिल हैं। काशी में उनके मंदिर पर हर साल यूपी व पंजाब से रैदासी जुटते हैं। उनके लिए इस स्थान व जयंती का धार्मिक महत्व ‘कुंभ’ जैसा ही होता है। संत रैदास का जन्म स्थान तीर्थस्थल जैसा है। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और मंत्री से संत्री तक कोई भी यहां आ सकता है। किसकी क्या कामना है वह जाने…। संत रैदास तो कह गए हैं- ‘ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिले सबन को अन्न। छोट बड़े सब सम बसे, रैदास रहे प्रसन्न।’‘ बनारस में संत रैदास के जन्मस्थान पर बने मंदिर की जिम्मेदारी पंजाब के संत रविदास जन्मस्थान पब्लिक चौरिटेबुल ट्रस्ट, जालंधर के पास है। 2009 में सत्ता में रहते मायावती ने आदि धर्म मिशन से लेकर यह जिम्मेदारी इस ट्रस्ट को सौंपी थी। इस मुद्दे पर तीन मुकदमे भी चल रहे हैं।

लेखक अजय कुमार उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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