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दुख-सुख

ओम थानवी भी चीज हैं

Sanjaya Kumar Singh : अंग्रेजी वाला नहीं हिन्दी वाले – संग्रहणीय और दर्शनीय, चर्चा योग्य और अब लग रहा है पठनीय भी। उनका लिखा तो नहीं पढ़ा, उनके बारे में जो लिखा जा रहा है, वह। उनसे मेरी भिड़ंत उनके जनसत्ता ज्वायन करते ही हो गई थी। उनके “आई विल शो यू” के जवाब में मैंने मन बना लिया था कि उन्हें मौका देना ही नहीं है। तय हो गया कि जनसत्ता की नौकरी अब अपने से नहीं होगी। फिर भी, अब देखा कि कोई दो साल मैं उनके संपादक रहते हुए नौकरी कर पाया। इसे मैं अपनी ही मजबूरी मानूंगा। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि अच्छी भली नौकरी बगैर किसी कारण छोड़ दूं। पर मौका मिलते ही मैंने लपक लिया। आज यहां उसकी चर्चा नहीं करूंगा। ओम थानवी के जनसत्ता से रिटायर होने के कुछ ही दिन पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनकी पिटाई की चर्चा उड़ी – सही गलत के विवाद में नहीं जाउंगा। लेकिन उसपर उनकी प्रतिक्रिया और फिर उसका जवाब पढ़ने लायक रहा हालांकि, साथियों की सलाह पर मित्र ने अपना जवाब फेसबुक से हटा लिया है। इसलिए उसकी भी चर्चा नहीं करूंगा।

<p>Sanjaya Kumar Singh : अंग्रेजी वाला नहीं हिन्दी वाले – संग्रहणीय और दर्शनीय, चर्चा योग्य और अब लग रहा है पठनीय भी। उनका लिखा तो नहीं पढ़ा, उनके बारे में जो लिखा जा रहा है, वह। उनसे मेरी भिड़ंत उनके जनसत्ता ज्वायन करते ही हो गई थी। उनके “आई विल शो यू” के जवाब में मैंने मन बना लिया था कि उन्हें मौका देना ही नहीं है। तय हो गया कि जनसत्ता की नौकरी अब अपने से नहीं होगी। फिर भी, अब देखा कि कोई दो साल मैं उनके संपादक रहते हुए नौकरी कर पाया। इसे मैं अपनी ही मजबूरी मानूंगा। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि अच्छी भली नौकरी बगैर किसी कारण छोड़ दूं। पर मौका मिलते ही मैंने लपक लिया। आज यहां उसकी चर्चा नहीं करूंगा। ओम थानवी के जनसत्ता से रिटायर होने के कुछ ही दिन पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनकी पिटाई की चर्चा उड़ी – सही गलत के विवाद में नहीं जाउंगा। लेकिन उसपर उनकी प्रतिक्रिया और फिर उसका जवाब पढ़ने लायक रहा हालांकि, साथियों की सलाह पर मित्र ने अपना जवाब फेसबुक से हटा लिया है। इसलिए उसकी भी चर्चा नहीं करूंगा।</p>

Sanjaya Kumar Singh : अंग्रेजी वाला नहीं हिन्दी वाले – संग्रहणीय और दर्शनीय, चर्चा योग्य और अब लग रहा है पठनीय भी। उनका लिखा तो नहीं पढ़ा, उनके बारे में जो लिखा जा रहा है, वह। उनसे मेरी भिड़ंत उनके जनसत्ता ज्वायन करते ही हो गई थी। उनके “आई विल शो यू” के जवाब में मैंने मन बना लिया था कि उन्हें मौका देना ही नहीं है। तय हो गया कि जनसत्ता की नौकरी अब अपने से नहीं होगी। फिर भी, अब देखा कि कोई दो साल मैं उनके संपादक रहते हुए नौकरी कर पाया। इसे मैं अपनी ही मजबूरी मानूंगा। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि अच्छी भली नौकरी बगैर किसी कारण छोड़ दूं। पर मौका मिलते ही मैंने लपक लिया। आज यहां उसकी चर्चा नहीं करूंगा। ओम थानवी के जनसत्ता से रिटायर होने के कुछ ही दिन पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनकी पिटाई की चर्चा उड़ी – सही गलत के विवाद में नहीं जाउंगा। लेकिन उसपर उनकी प्रतिक्रिया और फिर उसका जवाब पढ़ने लायक रहा हालांकि, साथियों की सलाह पर मित्र ने अपना जवाब फेसबुक से हटा लिया है। इसलिए उसकी भी चर्चा नहीं करूंगा।

संयोग से जनसत्ता छोड़ने के बाद मेरी ओमथानवी से ना कोई मुलाकात हुई ना भिड़ंत। जनसत्ता में प्रभाष जी के जमाने से ही रिवाज था कि डेस्क वालों का लेख एडिट पेज पर मेन आर्टिकल नहीं छपता था। कुछ लोगों का अपवाद स्वरूप छपता रहा पर मैंने इस नियम के कारण लिखा ही नहीं। वैसे भी पेशेवर लेखक के रूप में मुझे लगता है कि हिन्दी में लिखने से ज्यादा पैसे अनुवाद के मिलते हैं तो मैंने लिखने में दिलचस्पी ली ही नहीं। कुंठा और भड़ास निकालने के लिए पहले भड़ास पर और फिर फेसबुक पर ही कायदे से लिखना शुरू किया। एक पुस्तक लिखी है उसमें भी ज्ञान या अनुभव कम भड़ास ज्यादा है। छप जाए – तो बताउंगा लेकिन उसपर चर्चा फिर कभी। जनसत्ता छोड़ने के बाद ओमथानवी से मेरी इकलौती मुलाकात बहुत अच्छी रही। इतनी कि मैं खुद दंग था। अफसोस भी हुआ कि कहीं मैंने बेकार जनसत्ता की नौकरी तो नहीं छोड़ दी। उन्होंने मुझे जनसत्ता में लिखने के लिए भी कहा, शायद अपना फोन नंबर भी दिया। लेकिन लिखना मेरा काम रहा ही नहीं।

रिटायर होने पर उन्होंने लिखा, “अब दफ्तर से घर को निकल रहा हूं। बरसों के पिटारे में से अपने निजी कागजात और असबाब लेकर। मेरी खुशनसीबी थी कि जनसत्ता में 26 साल (दस साल चंडीगढ़, सोलह बरस दिल्ली) काम किया। एक ही अखबार में इतनी लंबी संपादकी पता नहीं कितनों को नसीब हुई होगी। 58 साल पर रिटायरी का कायदा है, वरना मैं पीछा न छोड़ता। जनसत्ता में अगर कहीं कुछ सार्थक कर पाया तो अपने सहयोगियों, लेखकों, स्तंभकारों, व्यंग्यचित्रकार और चित्रकारों की बदौलत। जो नहीं कर सका, उसका जिम्मेदार मैं हूं। इतना ही है कि काश कुछ साधन और मिल पाते। पर, ‘जो नहीं है उसका गम क्या’!” मन हुआ – इसपर लिखूं कि आपके कारण कितने लोगों ने जनसत्ता छोड़ दिया और 26 साल संपादकी तो उन्हें मिलनी नहीं थी, नौकरी भी नहीं कर पाए। लेकिन अपने आपको रोक लिया।

आज देखा उन्होंने किसी का लिखा शेयर किया है, “उदार विवेचन के लिए अभिषेकजी का आभार। ग्यारह पन्नों को अनाथ छोड़ने की बात कुछ ज्यादती है; फिर सिटी और ब्यूरो में अपेक्षित संवाददाता ही न बचें, खेल और वाणिज्य-व्यवसाय के पन्नों के लिए एक भी सहयोगी न हो, संवाददाता बड़े हादसों की रिपोर्टिंग के लिए यात्रा कर मौके पर न जा सकें, हिंदी अखबार लखनऊ, पटना और भोपाल जैसे शहरों में कोई संवाददाता न रखते हुए निकालना पड़े तो क्या इसमें संपादक दोषी होगा? कौन संपादक (अगर वह खुद मालिक या प्रबंधक नहीं है) चाहेगा कि लेखक पांच-सात सौ रुपए में लेख या स्तंभ लिखें? हाथ-पाँव कहाँ से बंधे होते हैं, इसकी पड़ताल मुश्किल नहीं है। इसके बीच सांस लेने की जगह निकाल रखी, एक कोना गंभीर और जनोन्मुखी विमर्श के लिए बना रहा, मुझे सिर्फ इसका श्रेय चाहिए जो अभिषेकजी जैसे ‘आतंकी’ दे रहे हैं, मुझे और क्या दरकार!”

इसके अलावा, उनके बारे में अभिषेक रंजन का लिखा पढ़ने को मिला। इसके अंश हैं, “ …. हालांकि, एक बात आपसे ज़रूर कहना चाहूंगा, जो सिर्फ मेरा नहीं, बल्कि कई लोगों की आम शिकायतें हैं कि ओम थानवी जी फोन पर बातें कम किया करते हैं या आपसी संवाद में यकीन नहीं रखते. अगर कोई शख्स थानवी जी को अपनी ज़रूरत या जिज्ञासावश फोन करता है तो, फोन करने वाले उस शख्स से थानवी जी पहले यह पूछना मुनासिब और आवश्यक समझते हैं- “आपको मेरा नंबर किसने दिया? गुजिस्ता 7 साल पहले मैं भी ओम थानवी जी के इस प्रश्न से दो-चार हो चुका हूं. हिंदी के एक वरिष्ठ पत्रकार और चिंतक से मैंने ओम थानवी जी का फोन नंबर मांगा. नंबर देते समय उन्होंने मुझे सख्त ताकीद की कि ओम थानवी नंबर देने वाले शख्स का नाम पूछेंगे, चाहे मामला कितना भी गंभीर क्यों न हो?”

इस आखिरी तथ्य और इससे जुड़ी कई कहानियां याद आईं पर दूसरे मित्रों से संबंधित होने के कारण उनकी कोई चर्चा नहीं करूंगा पर सोचा कि ओमथानवी का नंबर ढूंढ़ना आज भी इतना ही मुश्किल है क्या? इसकी जांच तो कर ही लूं। नेट पर एक लिंक http://contactmedia.blogspot.in/2004/11/editors.html मिला जो उनका नंबर बता रहा है और ट्रू कॉलर इसे सही भी बता रहा है। मेरे पास जो पुराना नंबर है वो भी यही है और यह नंबर नेट पर नवंबर 2004 से है। अगर नंबर सही है तो थानवी जी का नंबर 15 साल से एक ही है फिर भी नंबर किसने दिया – थानवी जी ही पूछ सकते हैं। आज विकीपीडिया पर देखा कि वे बिजनेस एडमिसट्रेशन में स्नातकोत्तर हैं। अब समझ में आ रहा है कि जो जनसत्ता 2002 में जब मैंने छोड़ा, तभी मरी हालत में था, सर्कुलशन खत्म हो चुका था, नोएडा में जूते बनाने वाली एक फैक्ट्री में पहुंचा दिया गया था और जिसके बारे में रोज चर्चा होती थी कि बंद हो रहा है – वह इतने दिन कैसे चलता रहा।

एक भरा-पूरा अच्छा अखबार अगर साहित्य की पत्रिका हो जाए, जैसा कि थानवी जी ने लिखा है, बगैर आवश्यक सुविधाओं के भी चलता रहे तो उसे कोई कारोबारी प्रशासक ही चला सकता है। पुराने लोगों को विदा करना इसी रणनीति का हिस्सा रहा होगा और बगैर आवश्यक सुविधाओं के अखबार चला लेना अतिरिक्त योग्यता तो है ही। वैसे भी, जो जीता वही सिकंदर। थानवी जो को उनके सफल कार्यकाल के लिए बधाइयां और रिटायरमेंट के बाद की नई पारी के लिए शुभकामनाएं।

जनसत्ता में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह के फेसबुक वॉल से.

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