Connect with us

Hi, what are you looking for?

विविध

मंहगाई, सरकारी इमदाद और सांसदों का निवाला

क्या अनाज – अनाज में फर्क होता है ? शायद नहीं लेकिन अनाज से बने खाने और उसके दाम में फर्क होता है, बहुत होता है, 75 प्रतिशत तक होता है। जनता को बाजार दाम पर मंहगी थाली का इंतजाम करना पड़ता है वहीं उसके द्वारा लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर में भेजे गए माननीयों को लजीज थाली पर इतनी सब्सीडी मिलती है कि सुनकर पेट भर जाता है। यदि आरटीआई से मामला नहीं खुलता तो न जाने कब तक डकार भी नहीं लेते। आश्चर्य है कि मंहगाई और सब्सीडी पर मंथन करने वाली संसद के सदस्य ही अपने और लोक के बीच निवालों का ऐसा फर्क करेंगे। अब उनसे ही इंसाफ की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

<p>क्या अनाज – अनाज में फर्क होता है ? शायद नहीं लेकिन अनाज से बने खाने और उसके दाम में फर्क होता है, बहुत होता है, 75 प्रतिशत तक होता है। जनता को बाजार दाम पर मंहगी थाली का इंतजाम करना पड़ता है वहीं उसके द्वारा लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर में भेजे गए माननीयों को लजीज थाली पर इतनी सब्सीडी मिलती है कि सुनकर पेट भर जाता है। यदि आरटीआई से मामला नहीं खुलता तो न जाने कब तक डकार भी नहीं लेते। आश्चर्य है कि मंहगाई और सब्सीडी पर मंथन करने वाली संसद के सदस्य ही अपने और लोक के बीच निवालों का ऐसा फर्क करेंगे। अब उनसे ही इंसाफ की उम्मीद कैसे की जा सकती है?</p>

क्या अनाज – अनाज में फर्क होता है ? शायद नहीं लेकिन अनाज से बने खाने और उसके दाम में फर्क होता है, बहुत होता है, 75 प्रतिशत तक होता है। जनता को बाजार दाम पर मंहगी थाली का इंतजाम करना पड़ता है वहीं उसके द्वारा लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर में भेजे गए माननीयों को लजीज थाली पर इतनी सब्सीडी मिलती है कि सुनकर पेट भर जाता है। यदि आरटीआई से मामला नहीं खुलता तो न जाने कब तक डकार भी नहीं लेते। आश्चर्य है कि मंहगाई और सब्सीडी पर मंथन करने वाली संसद के सदस्य ही अपने और लोक के बीच निवालों का ऐसा फर्क करेंगे। अब उनसे ही इंसाफ की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

यकीनन जो सच सामने आया है वो बेहद कड़वा है। जहां आम आदमी मंहगी दाल खाने को मजबूर है, वहीं सांसदों को माली मदद कहें या सरकारी इमदाद जो भी, 13 रुपए 11 पैसे की ( केवल लागत) फ्राइड दाल केवल 4 रुपए में मिलती है। सब्जियां वो भी महज 5 रुएप में। मसाला दोसा 6 रुपए में। फ्राइड फिश और चिप्स 25 रुपए में। मटन कटलेट 18 रुपए में। मटन करी 20 रुपए में और 99.04 रुपए की नॉनवेज थाली सिर्फ 33 रुपए में। यदि सांसदों की थाली में सरकारी इमदाद का जोड़ – घटाना किया जाए तो मदद का आंकड़ा कम से कम 63 प्रतिशत और अधिक से अधिक 75 प्रतिशत तक जा पहुंचता है।

इस सच का दूसरा पहलू भी है। आम आदमीं की जरूरत की गैस अब कोटा सिस्टम में चली गई है। साल भर में केवल 12 सरकारी इमदाद वाले सिलेण्डर एक परिवार के लिए हैं। उस पर भी लोकलुभावन विज्ञापन, प्रधानमंत्री के प्रेरक उद्बोधन और  सरकारी इमदाद यानी सब्सीडी छोड़ने की गुजारिश। यकीनन यही हिन्दुस्तान की खासियत है जो आवाम इतनी भावुक और मेहरबान हुई कि एक झटके में साढ़े 5 लाख लोगों से ज्यादा ने गैस पर सब्सीडी छोड़ दी और इससे सरकार पर 102.3 करोड़ का बोझ कम हुआ। सब्सीडी छोड़ने की मुहिम चलनी भी चाहिए। समय के साथ यह अपरिहार्य है और देश के विकास के लिए जरूरी भी। सवाल बस एक ही है कि जब हमारा सबसे बड़ा नुमाइन्दा ही 100 रुपए का खाना 25 रुपए में खाने पर शर्मिन्दा नहीं है, जिसे पगार और दूसरे भत्तों के जरिए हर महीने डेढ़ लाख रुपए से ज्यादा की आमदनी होती है तो गैस का उपयोग करने वाले औसत आय वालों से जिनमें दिहाड़ी मजदूर और झोपड़ पट्टों में रहने वाले गरीब भी हैं, सब्सीडी छोड़ने की अपील बेजा नहीं लगती ?

आरटीआई से खुलासे के बाद जब इस पर बहस चली तो बात माननीयों के पेट पर लात मारने तक जा पहुंची। संसद की खाद्य मामलों की समिति के अध्यक्ष जीतेन्द्र रेड्डी ने सब्सीडी हटाने की संभावना को खारिज कर दिया और कहा “मेरी नानी कहती थी कि किसी के पेट पर लात नहीं मारनी चाहिए”। ससंदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू को ये अच्छी बहस का विषय लगता है लेकिन वो कहते हैं कि फैसला दो चार लोगों के बस का नहीं, मामला आया तो विचार भी होगा। कुछ सांसद भलमनसाहत में यह भी कह गए कि हम सब्सीडी छोड़ने को तैयार हैं। यहां यह भी गौर करना होगा कि इसी साल 2 मार्च को पहले प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी ने संसद की कैण्टीन में केवल 29 रुपए में भोजन किया और विजिटर बुक में ‘अन्नदाता सुखी भव’ लिखा था। हो सकता है उन्हें ख्याल न आया अन्यथा संसद कैण्टीन सब्सीडी को समाप्त करने की बेहतर पहल तभी शुरू हो सकती थी।

संसद की कैण्टीनों को वर्ष 2013 – 14 में 14 करोड़ 9 लाख रुपए, साल 2009 -10 में 10.46, 2011 – 12 में 12.52 करोड़ की सब्सीडी दी गई। इन कैण्टीनों में सांसदों के अलावा करीब 4000 कर्माचारी भी खाते हैं जिनमें 85 से 90 फीसदी आयकर दाता हैं। सुभाष अग्रवाल के आरटीआई खुलासे के बाद अब यह गरमागरम बहस का मुद्दा जरूर बन गया है। 21 जुलाई से शुरू होने वाले संसद के मानसून सत्र में माननीयों की थाली जरूर बहस का मुद्दा बनेगी। बहस होनी भी चाहिए। सवाल बस इतना है कि क्या इस पर विचार होगा कि सरकारी इमदाद के लिए बिना भेद भाव नई और स्पष्ट लक्ष्मण रेखा बनाई जाए और देश भर में तमाम महकमों, संस्थाओं और इसके असली हकदार का सार्वजनिक तौर पर खुलासा हो और खजाने पर पड़ने वाले बोझ का फायदा केवल जरूरत मंदों को ही मिले। ऐसा न हो कि जनता की गाढ़ी कमाई सरकारी इमदाद के तौर पर गुपचुप माननीयों के लजीज खाने पर खर्च हो वो भी हर साल करोड़ों में।

लेखक ऋतुपर्ण दवे से संपर्क [email protected] या 08989446288 के जरिए किया जा सकता है.

You May Also Like

Uncategorized

मुंबई : लापरवाही से गाड़ी चलाने के मामले में मुंबई सेशन कोर्ट ने फिल्‍म अभिनेता जॉन अब्राहम को 15 दिनों की जेल की सजा...

ये दुनिया

रामकृष्ण परमहंस को मरने के पहले गले का कैंसर हो गया। तो बड़ा कष्ट था। और बड़ा कष्ट था भोजन करने में, पानी भी...

ये दुनिया

बुद्ध ने कहा है, कि न कोई परमात्मा है, न कोई आकाश में बैठा हुआ नियंता है। तो साधक क्या करें? तो बुद्ध ने...

दुख-सुख

: बस में अश्लीलता के लाइव टेलीकास्ट को एन्जॉय कर रहे यात्रियों को यूं नसीहत दी उस पीड़ित लड़की ने : Sanjna Gupta :...

Advertisement