Ajay Prakash : कल अमृतसर की एक खबर सोशल मीडिया पर घूम रही थी। उस खबर को आज अखबारों में खोजने की कोशिश की पर दिखी नहीं। सोशल मीडिया पर भी नहीं दिखी फिर गुगल किया तो नजर आयी। उम्मीद है खबर आपको याद आ गयी होगी। कितना निर्मम है वो वीडियो, मजदूर की चीख—कराह के बीच उस पर निगाह टिकानी मुश्किल हो रही है। वीडियो में एक मजदूर को मालिक चोरी के आरोप में उल्टा लटकाकर मार रहा है। वह मजदूर को इतना मारता है कि वह मर जाता है। करीब आधे घंटे का यह वीडियो अबतक हजारों लोग शेयर कर चुके हैं और देखने वालों की संख्या भी लाखों में है।
यह वीडियो देखते हुए मुझे दिल्ली में हुआ निर्भया कांड और हाल ही में दादरी में मारे गए अखलाक की याद आयी। यह दोनों ही घटनाएं राष्ट्रीय विमर्श और चिंता का विषय बनीं। समाज के ज्यादातर लोगों ने इन दोनों ही हृदयविदारक घटनाओं को मानवता पर कलंक कहा और सरकारों और प्रशासन ने भी इन वारदातों को तरजीह दी। इन दोनों ही घटनाओं पर समाज की जागरुकता तारीफे काबिल है। बेशक एक जिंदा समाज की पहचान भी यही है। जुल्म और शोषण के खिलाफ सबसे बुलंद आवाज उठाने वाला समाज ही सबसे लोकतांत्रिक कहा जा सकता है। जाहिर है भारत उस बढ़ रहा है।
पर अमृतसर की अमानवीय घटना पर समाज क्यों नही उबल रहा? राष्ट्रीय स्तर पर कोई डिबेट कहीं देखने को क्यों नहीं मिल रही? यह मुद्दा आज के अखबारों की सुर्खियां में क्यों नहीं है? अगर आपने वीडियो देखा हो तो वह हत्या का लाइव है। इतनी नृशंशता कोई सपने में भी नहीं सोच सकता। टीवी वालों लायक इसमें पर्याप्त मसाला भी है फिर भी वे इसे प्राइम टाइम में नहीं ले रहे। निर्भया बलात्कार कांड या अखलाक की हत्या का हमने लाइव नहीं देखा था फिर भी हम उबल पड़े, सड़कों पर उतर आए। पर यहां मौत के लाइव में इतनी आग क्यों नहीं दिखती कि वह अखबारों की सुर्खियां बन पाए। एक मजदूर को जिंदा लटका कर मार दिया जाता है लेकिन वह खबर सोशल मीडिया के ट्रेंड पर एक दिन भी नहीं टिक पाती। एक मजदूर के मामले में सोशल मीडिया भी पेड मीडिया के रोल में क्यों? आखिर क्यों?
क्या यह मान लिया जाए कि इस देश में किसी सवाल के उठने के लिए उसका जातिवादी, सांप्रदायिक और यौनिक होना जरूरी है। दलित—पिछड़ा, मुसलमान—क्रिश्चियन या औरत होना जरूरी है तभी सवाल उठेगा। पर मजदूर का सवाल हमारी चिंताओं और सरोकारों के केंद्र में नहीं आ सकता क्योंकि उसकी कोई जाति नहीं है। वह मजदूर मात्र है। उसकी एक ही जाति है कि वह मजदूर है और उसकी नियती मालिक का शोषण है। एक मजदूर की हालत, उसकी जीवन स्थितियां, परेशानियां, उसके शोषण से हमारा कोई जुड़ाव ही नहीं है। हमारा सरोकार भी पेड है। हमारे लगाव भी जातिवादी, सांप्रदायिक और यौनिक हैं। इसके अलावा और क्या वजह है कि फैक्ट्री मालिक एक मजदूर को पीट—पीट कर मौत के घाट उतार देता है और किसी संगठन, पार्टी, लिंग, जाति या समुदाय में उबाल नहीं आता।
पत्रकार अजय प्रकाश के फेसबुक वॉल से.