देश में न्याय के लिए सर्वोच्च स्थान रखने वाली संस्था के आदेश सरकारी तंत्र कितनी संजीदगी से लागू करता है इसका ताज़ा उदाहरण मजीठिया वेज बोर्ड मामले में देखने को मिल रहा है। न्यायपालिका द्वारा दिए गए 4 माह के लंबे समय के बावजूद राज्य सरकारें चाही गयी रिपोर्ट सब्मिट नहीं कर पायी है, या ये कहे की करना ही नहीं चाहती है। वैसे तो देश में कोई भी काम समय पर होने की उम्मीद करना भी बेमानी है लेकिन कोर्ट द्वारा शक्तियाँ दिए जाने के बावजूद लेबर डिपार्टमेंट कुछ नहीं कर पाया है।
आलम तो यह था कि लेबर डिपार्टमेंट के अधिकारियों को अखबार के दफ्तर में आते हुए भी संकोच हो रहा था। इससे साफ़ जाहिर होता है कि जबतक कानून अपनी शक्ति का भय नहीं दिखायेगा तब तक यह ढर्रा सुधरने वाला नहीं है। माननीय न्यायालय द्वारा तय समय सीमा में मात्र 8-10 राज़्यों द्वारा हलफनामे देना यह कतई साबित नहीं करता की राज्य सरकारें पत्रकारो के हितों और कोर्ट के आदेशों के प्रति चिंतित है। अगर राजस्थान की बात करें तो कोर्ट के आदेश की पालना उस रूप में नहीं हुई जैसा माननीय न्यायालय चाहता था। जनसुनवाई आयोजित कर श्रम विभाग ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। खैर ख़ुशी की बात यह है कि कोर्ट में सब्मिट की गयी रिपोर्ट पत्रकारों के पक्ष में है लेकिन दूसरे राज़्यों से रिपोर्ट आने में हो रही देरी अख़बार मालिकों के लिए संजीवनी का काम कर रही है। अब ऐसी आशंका होने लगी है कि जिस प्रकार अख़बार मालिक कोर्ट के आदेशों की परवाह नहीं कर रहे है, राज्य सरकारें भी उसी राह पर चल निकली हैं। ऐसे में पहले से ही मजीठिया नहीं देने का मन बना चुके अखबार मालिकों को अपने बचाव का पूरा मौका और समय मिल रहा है। अब देखना यह है कि कानून की देवी कब अपनी आँखों की पट्टी हटा इनको इनके किये की सजा और पत्रकारों व गैर पत्रकारों को न्याय दे पाती है।