प्रो. चितरंजन मिश्र जी
प्रतिकुलपति
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा
सन्दर्भ :
१. सूरीनाम का सृजनात्मक साहित्य (सम्पादिका: डा. पुष्पिता अवस्थी) – 2012 साहित्य अकादमी
२. सूरीनाम का सृजनात्मकता हिंदी साहित्य (संपादक: डा. विमलेश एवं भावना सक्सेना)– 2015 राधाकृष्ण प्रकाशन
माननीय प्रतिकुलपति जी,
सूचनार्थ निवेदन है कि 11 जून को निवेदित पत्र का उत्तर न प्राप्त होने कि स्थिति में 4 जुलाई 2015 को मैंने पुनः पत्र प्रेषित किया था (ईमेल द्वारा)| इस सन्दर्भ में 19 जुलाई को आपके द्वारा एक पत्र प्राप्त हुआ है जिसको पढ़कर मैं चकित हूँ क्योंकि –
1. अपने दोनों पत्रों में मैंने पुस्तक की विषय वस्तु के अपहरण का उल्लेख करते हुए आपसे जाँच समिति गठित करने का निवेदन किया था| क्योंकि मैं तो आश्वस्त हूँ ही कि ‘यह सिर्फ एक ही शीर्षक से दो किताबें नहीं हैं बल्कि एक ही शीर्षक और विषय सामग्री में दो पुस्तकों के होने से पहले की पुस्तक को अपदस्थ करने कि कुत्सित योजना भी है|” जबकि साहित्य अकादमी से प्रकाशित पुस्तक 200 रुपये में है और उसमें 70 पृष्ठों का शोधपरक अनुसन्धान होने के साथ-साथ 350 पृष्ठ हैं| आपके विश्वविद्यालय के सौजन्य से प्रकाशित पुस्तक में 300 पृष्ठ हैं और कीमत 600 रुपये है| ऐसी स्थिति में अपहृत सामग्री के प्रकाशन का औचित्य और नैतिक औचित्य क्या है? जबकि आपके यहाँ से प्रकाशित पुस्तक के कॉपीराइट वाले पृष्ठ में छपा है – इस पुस्तक के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं| प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना इसके किसी भी अंश की फोटोकॉपी (यहाँ तो प्रिंटिंग कॉपी है) एवं रिकॉर्डिंग सहित इलेक्ट्रॉनिक अथवा मशीनी प्रणाली, किसी भी माध्यम से अथवा ज्ञान के संग्रहण एवं पुनर्प्रयोग की प्रणाली द्वारा, किसी भी रूप में, पुनुर्सम्पादित अथवा संचारित-प्रसारित नहीं किया जा सकता|” सभी प्रकाशकों की पुस्तकों में यह छपा रहता है| इन तथ्यों के आधार पर क्या इस पुस्तक का प्रकाशन अवैध नहीं है तथा इसका वितरण नहीं रुकवा देना चाहिए?
2. पुस्तक की परीक्षण की सुविधा के लिए मैं बताना चाहूंगी कि मुंशी रहमान खान की 103 से लेकर 107 पृष्ठ की रचनाएँ मेरी पुस्तक (साहित्य अकादमी) पृष्ठ 77 से लेकर पृष्ठ 91 तक से ली गयी हैं| इसी तरह महादेव खुनखुन जी की सम्पूर्ण कबिरावली – 98 से 102 पृष्ठों तक मेरे द्वारा साहित्य अकादमी से सम्पादित पुस्तक से ली गयी है| ऐसा ही अन्य रचनाकारों के साथ भी है, जिसके अवलोकन की आपको आवश्यकता है| आपत्ति के लिए उदाहरणस्वरूप क्या इतना पर्याप्त नहीं है? अन्य जाँच समिति द्वारा उपलब्ध करने कि कृपा करें|
3. आपके पुनर्प्रकाशन की राय से मैं भी सहमत हूँ लेकिन उन रचनाकारों को कबीर, तुलसी, प्रेमचंद और रामचंद्र शुक्ल तो होना चाहिए! यहाँ स्थिति यह है कि 2003 में कविता सूरीनाम, कथा सूरीनाम में पुस्तक रूप में आने से पूर्व ये रचनाएँ सिर्फ रचनाकारों के पास साठ-सत्तर पृष्ठों के आसपास की बच्चों को पढ़ने वाली पुस्तक की तरहबड़े-बड़े अक्षरों में छपी हुईं थी, जिसके लिए उन्होंने मुझसे अनुरोध करते हुए कहा – गुरु जी, यह पन्ने हमारे जीते जी सड़ जाएँगे, इसलिए पुस्तकाकार में छपवा दीजिएगा तो सुरक्षित हो जाएँगे| यदि आप चाहें तो अपने यहाँ से प्रकाशित पुस्तक (राधाकृष्ण प्रकाशन) की सन्दर्भ सूची देख सकते हैं – जिसमें अधिकांश की पृष्ठ संख्या साठ से अधिक की नहीं है| इसके अतिरिक्त ये भी ध्यातव्य है कि उनकी हिंदी शिक्षा का कुल आधार – वर्धा के राष्ट्रभाषा विभाग के प्रथमा, मध्यमा, उत्तमा, प्रवेशिका, परिचय, कोविद, रत्न तक का है जो भारत के हाई-स्कूल, इंटर के विद्यार्थी से आधिक नहीं है| इसमें से कुछ रचनाकारों ने आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान से भी एक वर्ष का प्रशिक्षण हासिल है| इसलिए साहित्यिकता- भाषा और वैचारिकता का वह स्तर नहीं है जो मारीशस के डा. प्रहलाद राम शरण जी का है या डा. सरिता बुद्धू जी का है या फिजी के श्री जोगिंदर सिंह कंवल और पं. विवेकानंद शर्मा जी का है| लेकिन इन रचनाकारों के लिखे का सूरीनाम के हिंदी साहित्य में ऐतिहासिक महत्व का है|
राधाकृष्ण प्रकाशन से आपके विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक के प्राक्कथन में श्री विमलेशकांति जी लिखते हैं – परिनिष्ठित हिंदी में लिखी गयी इन रचनाओं में आपको व्याकरणगत अशुद्धियाँ दिखेंगी (अगर यह परिनिष्ठित हिंदी का उदाहरण है तो अशुद्धियाँ कैसे और यदि अशुद्धियाँ हैं तो यह परिनिष्ठित कोटि में क्यों है? विचारणीय) साहित्यिक कलात्मकता का अभाव भी अखर सकता है|” तो क्या ऐसे रचनाकारों को प्रसाद, निराला के सामानांतर रख कर पुनर्प्रकाशन की छूट ली जा सकती है? वह भी तब जबकि आपका विश्वविद्यालय भी मानव संसाधन मंत्रालय का ही अंग है| वहां से ढाई वर्ष बाद ही दूसरी पुस्तक दूसरे लेखकों के नाम से छपे जबकि वह मेरे द्वारा पहले सम्पादित पुस्तक की ही पुनर्प्रस्तुति है| क्या यह वांग्मय चोरी का मामला नहीं है?
4. आपके विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक में श्री विमलेशजी सूरीनाम देश में पीढ़ियों से जन्मे पले बढ़े रचनाकारों की रचनाओं को लेकर इस पुस्तक के प्राक्कथन में पृष्ठ 13 पर दो बार लिखते हैं कि ये रचनाएँ प्रवासी भारतीयों की हैं| इस तरह से वे सूरीनामी रचनाकारों को प्रवासी भारतीय कहने की भूल कर रहे हैं जबकि वे भारतवंशी हैं| प्रवासी भारतीय तो वे लोग हैं जो भारत में जन्मे, पले-बढ़े और किन्ही कारणों से तीस-चालीस सालों से विदेश में प्रवास कर रहे हैं|
5. “प्रवासी साहित्य” पर केंद्रित पुस्तक भी इसी तरह से लेखकों की अपहृत सामग्री से तैयार की गयी है, जिसका उल्लेख मैं पूर्व पत्र में कर चुकी हूँ|
6. 2003 से लेकर 2012 तक के बीच सूरीनाम पर सात से अधिक मेरी पुस्तकें प्रकाशित होने पर आदरणीय कुलपति जी पुरोवाक में लिखते हैं- इसमें सरनामी हिंदी की रचनाएँ पहली बार आपको पढ़ने को मिलेंगी| दूरदेश में रची गयी ये रचनाएँ प्रवासी भारतीयोंकी संघर्ष कथा के साहित्यिक दस्तावेज हैं| जबकि इस बीच और भी सुधी लेखकों की किताबें आयीं होंगी| फिर भी यह पंक्तियाँ आखिर किस आधार पर लिखी गयीं?
उपर्युक्त समस्त सन्दर्भों में कार्यवाही का नैतिक दायित्व विश्वविद्यालय और मानव संसाधन मंत्रालय को सौंपते हुए पत्र प्राप्ति की सूचना की प्रतीक्षा में,
भवदीया,
डॉ.पुष्पिता अवस्थी
Dr. Pushpita Awasthi
Director
Hindi Universe Foundation | P.O. Box 1080, 1810 KB Alkmaar,
The Netherlands
प्रतिलिपि:
1. आदरणीया श्रीमती स्मृति ईरानी जी, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
2. कुलपति, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
3. निदेशक, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
4. अध्यक्ष, साहित्य अकादमी, दिल्ली
5. सचिव, साहित्य अकादमी, दिल्ली
6. उपाध्यक्ष, केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
7. प्रबंधक, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
8. श्री ओम थानवी, जनसत्ता
9. उपाध्यक्ष, केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा