विद्याधर द्विवेदी विज्ञ हिन्दी के छायावाद युग के परवर्ती कवियों में अग्रणी हस्ताक्षर थे। बताते हैं कि पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का उन्हें आशिर्वाद प्राप्त था। एक बार निराला जी ने कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपस्थिति में उनकी कविताएं सुनीं और कहा कि विज्ञ एक दिन छायावाद युग की विरासत संभालेगा। प्रख्यात हिन्दी आलोचक डाक्टर परमानन्द श्रीवास्तव भी इस बात की ताईद करते थे। गोरखपुर के एक अन्य लेखक और मेरे अनन्य मित्र माताप्रसाद त्रिपाठी ने कुछ दिनों पहले विज्ञ जी की कविताएं यहां-वहां से एकत्र कर संग्रह छपवाया है। इसके लिए उन्होंने काफी श्रम किया है। दुर्भाग्यवश इस संग्रह की प्रति मेरे हाथ नहीं लग पायी। मेरी योजना विज्ञ जी की रचनाओं पर कुछ लिखने की थी।
1977 में मेरे मित्र वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र मिश्र ने विज्ञ जी से मुलाकात करवायी थी। दुर्भाग्य से मेरी उनसे तब भेंट हुई, जब वह पूरी तरह से विक्षिप्त हो चूके थे। उसके बाद वह कभी-कदार गोरखपुर की सड़कों पर मिल जाते थे और साथ चाय पी लेते थे। वह गोरखपुर में बैंक रोड स्थित खाकी बाबा के मजार के आसपास या फिर बेतियाहाता इलाके में विचरण करते रहते थे। रात में मजार के पास ही जैसे-तैसे सो लिया करते थे। उन दिनों वह गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर भी मिल जाया करते थे। रिक्शे वालों और फकीरों के साथ गांजा पीने की उन्हें लत थी। मिल जाए तो शराब का शौक भी फरमा लेते थे। मैं जब भी उनसे मिलता था तो मन में उनके लिए अपार करुणा उमड़ने लगती थी। विज्ञ जी विक्षिप्तता के बावजूद कभी कोई बेजा या कहें बेहूदा हरकत नहीं करते थे। उनका सेवा-पानी करने वालों की शहर में कमी नहीं थी। उपेन्द्र मिश्र उनके चाहने वालों में अग्रणी हुआ करते थे। बाद में मैं भी उन लोगों में शामिल हो गया।
विज्ञ जी बुद-बुद कर के न जाने क्या-क्या बोलते थे जो हमारी समझ में नहीं आता था। वह नहाते-धोते नहीं थे। शरीर से गंध आती थी। लेकिन फिर भी उनके चाहने वाले उन्हें अपने पास बैठाते और खिलाते-पिलाते। 1977 के अंत में मैं लखनऊ चला गया। 1979 में जागरण में नौकरी मिली तो फिर गोरखपुर आ गया। इसके बाद तो आये दिन उनसे साबका पड़ने लगा। 1984 के आसपास कुछ दिन आज अखबार में भी रहा। तब भी विज्ञ जी अक्सर मिल जाया करते थे। वह कभी-कभी उपेन्द्र को खोजते हमारे दफ्तर पर चले आते थे। उनके चाहने वालों में गोरखपुर के जाने-माने शायर महेश अश्क भी थे। उनकी कुछ हरकतें मजेदार हुआ करती थीं। एक बार उन्होंने उपेन्द्र को लकालक सफेद कुर्ता-पजामा पहने देखा। बुदबुदाते हुए इशारे से कहा– कुर्ता-पजामा हमें दे दो। कुछ दिन बाद उपेन्द्र ने उनको नया कुर्ता-पजामा सिलवा दिया। बमुश्किल एक-दो दिन पहना और गांजा-शराब का खर्चा निकालने के लिए रेलवे स्टेशन पर किसी रिक्शे वाले के हाथ बेच दिया। एक बार मुझसे भी उन्होंने मेरा कोट और मफलर मांग लिया। उसका भी वही हश्र किया।
जागरण के दिनों में एक बार वह मुझे रीड साहब धर्मशाला के पास विज्ञ जी मिल गये। मैंने यूं ही पूछ लिया– दारू पीएंगे ? उन्होंने सर हिला कर हामी भरी। मैं उनको ले कर शराबखाने गया और हम दोनों ने छक कर पी। मैंने मार्क किया कि मस्ती में आ जाने के बाद उनकी आवाज कुछ साफ हो गयी है और उनकी बात समझ में आ रही है। तभी जागरण के मेरे दो साथी वहां आ पहुंचे। एक चाय की दुकान पर बैठ कर उनसे उनके कई गीत सुने। फिर तो ऐसे अवसर हम लोग लेते ही रहे। उन्हीं दिनों एक हादसा हो गया। किसी ने उन्हें सूचना दी कि कोनी गांव में करंट लगने से उनकी पत्नी, पुत्री और शायद दामाद की मौत हो गयी है। बाद में यह सूचना देने वाले शख्स से मेरी कहीं मुलाकात हुई तो उसने बताया कि खबर सुन कर विज्ञ जी फूट-फूट कर रोने लगे थे। कोनी में उनकी ससुराल थी। यह गांव मेरे पड़ोस का गांव है। पूरी तरह से पागल हो जाने के बाद भी उनके भीतर बैठी इंसानियत सुरक्षित थी। पढ़ें विद्याधर द्विवेदी विज्ञ की तीन कविताएं–
(1)
मैं पागल, प्राण लुटा आया !
दुनिया ने केवल स्वर माँगा
मैं पागल, प्राण लुटा आया!
मन का बन फूला फूला था
साँसों में सौरभ झूला था
प्राणों की धरती पर जैसे
माधव का यौवन झूला था
तब ढँक न सका मैं अपनापन, भर गये सुरभि से धरा गगन
इसलिए कि स्वर-माला से मैं फूलों सा गान लुटा आया!
फिर चिंता के दो क्षण आये
पग थके डगर पर भरमाये
मन ऊब गया सूनेपन में
आँखों में बादल भर आये
तब मैंने मन पहचान लिया, जग आतुर है यह जान लिया
इसलिए धुएँ में डूबा भी, उर की मुस्कान लुटा आया!
सुख ने तो मधुर पराग लिया
दुख ने छाती को आग किया
फिर भी जब दुनिया वालों ने
मेरा घर मुझसे माँग लिया
तब बेघर का बेचारा मैं, अपनी मंज़िल से हारा मैं
असहाय पड़े करुणा वाले पथ को आह्वान लुटा आया!
(2)
आसमान बड़ी दूर है
धरती पर आग लगी, पंछी मजबूर है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
लपटों में नीड़ जला
आग ने धुआँ उगला
पंछी दृग बंद किये
आकुल मन उड़ निकला
सिंधु किरन में डूबी – और साँझ हो गई
आँसू बन बरस रहा पंख का गरूरा है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
बोझिल तम से अंबर
शंकित उर का गह्वर
जाने किस देश में
गिरेगा गति का लंगर
काँप रहे प्राण आज पीपल के पात से
कंठ करुण कम्पन के स्वर में भरपूर है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
उड़ उड़ जुगनू हारे
कब बन पाए तारे
अपने मन का पंछी
किस बल पर उड़ता रे,
प्रश्न एक पवन के प्रमाद में मुखर हुआ
पंछी को धरती पर जलना मंजूर है।
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
(3)
मैं आबाद रहूँगा
मैं आबाद रहूँगा
छंद-छंद में बोल रहा हूँ, गीत-गीत में डोल रहा हूँ
औरों के हित पर अपनापन अपने हाथों तोल रहा हूँ
पर भगवान नहीं हूँ
बात-बात में बिक जाता हूँ, लहर-लहर पर टिक जाता हूँ
अपने मन की बात विश्व की डगर-डगर पर लिख जाता हूँ
पर आसान नहीं हूँ
हृदय-सिंधु में बढ़ जाने दो – भाव लहर पर चढ़ जाने दो
अपनी रानी के प्राणों का बन उन्माद रहूँगा
मैं आबाद रहूँगा।
केवल ऊषा में मुस्काता – तम से घिर आँसू बरसाता
अपने वैभव के चरणों से जो दुनियाँ की धूल उड़ाता
वह इंसान नहीं हूँ
उच्च शिखर से ढह जाता है – शीत-घाम सब सह जाता है
धरती की छाती पर केवल भार रूप जो रह जाता है
वह पाषाण नहीं हूँ
मुझे दर्द में पल जाने दो – मुझे गीत में ढल जाने दो
भू अम्बर निशि-दिन पल युग का बन आह्लाद रहूँगा!
मैं आबाद रहूँगा।
पीड़ा में जो मुस्काता है – वीणा में मधु बरसाता है
जिसको पी-पी कर जन-जन का जीवन मधुमय हो जाता है
मैं वरदान वही हूँ
सत्य-शिखर सा उठा हुआ है – सुंदरता सा झुका हुआ है
दुनियाँ के हित पर शिव जैसे भाव लिये जो रुका हुआ है
मैं अभिमान वही हूँ
अरमानों को जल जाने दो – पाषाणों को गल जाने दो
अपनी वाणी के पलने का बन प्रासाद रहूँगा।
मैं आबाद रहूँगा।
लेखक विनय श्रीकर वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.