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व्‍यंग्यकार का दुराचारी अनुभव

देश में दुराचार की घटनाओं पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। कोई मुलायम सिंह कह सकता है, कि इन घटनाओं के पीछे लडके-लडकियों की ‘सेटिंग’ होती हैं। कोई वैज्ञानिक दृष्टि से शरीर की बायलॉजी को ‘मांग और आपूर्ति’ के चश्‍मे से देख सकता है। दूसरी ओर कोई कह सकता है कि दुराचार हमेशा रहा है लेकिन आज मीडिया के कारण घटनाएं लगातार प्रकाश में आ रही हैं। इन तर्कों को देखें तो दुराचार को एक मानवीय प्रवृत्ति माना जा सकता है। प्रवृत्ति किसी में भी पायी जा सकती है….साहित्‍यकार में भी
उर्मिल कुमार थपलियाल का व्‍यंग्‍य ऐसा ही संकेत करता है। चूंकि साहित्‍य की एक परिभाषा उसे भोगे हुए सच की अभिव्‍यक्ति के रूप प्रस्‍तुत करती है। इसलिए कह सकते हैं कि लिखने वाला साहित्‍यकार दुराचार का अनुभव रखता है। इसे वह अपनी रचना में बयां करता है। यह रचना छपती है इस शनिवार के ‘हिन्‍दुस्‍तान’ में थपलियाल मेरे प्रिय व्‍यंग्‍य लेखकों में से हैं। ‘सरेराह चलते-चलते का चरित्र चित्रण’ उनके तमाम व्‍यंग्‍यों की तरह बेहतरीन है। लेकिन इसमें दुराचार के सुख की अभिव्‍यक्ति एक मौलिक प्रयोग है। अब इसकी खुलेआम स्‍वीकारोक्ति कितनी जायज है, वह अलग बात है। अखबार ने उस अंश को छापा, यह भी काबिले गौर है।

<p>देश में दुराचार की घटनाओं पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। कोई मुलायम सिंह कह सकता है, कि इन घटनाओं के पीछे लडके-लडकियों की ‘सेटिंग’ होती हैं। कोई वैज्ञानिक दृष्टि से शरीर की बायलॉजी को ‘मांग और आपूर्ति’ के चश्‍मे से देख सकता है। दूसरी ओर कोई कह सकता है कि दुराचार हमेशा रहा है लेकिन आज मीडिया के कारण घटनाएं लगातार प्रकाश में आ रही हैं। इन तर्कों को देखें तो दुराचार को एक मानवीय प्रवृत्ति माना जा सकता है। प्रवृत्ति किसी में भी पायी जा सकती है....साहित्‍यकार में भी <br />उर्मिल कुमार थपलियाल का व्‍यंग्‍य ऐसा ही संकेत करता है। चूंकि साहित्‍य की एक परिभाषा उसे भोगे हुए सच की अभिव्‍यक्ति के रूप प्रस्‍तुत करती है। इसलिए कह सकते हैं कि लिखने वाला साहित्‍यकार दुराचार का अनुभव रखता है। इसे वह अपनी रचना में बयां करता है। यह रचना छपती है इस शनिवार के ‘हिन्‍दुस्‍तान’ में थपलियाल मेरे प्रिय व्‍यंग्‍य लेखकों में से हैं। ‘सरेराह चलते-चलते का चरित्र चित्रण’ उनके तमाम व्‍यंग्‍यों की तरह बेहतरीन है। लेकिन इसमें दुराचार के सुख की अभिव्‍यक्ति एक मौलिक प्रयोग है। अब इसकी खुलेआम स्‍वीकारोक्ति कितनी जायज है, वह अलग बात है। अखबार ने उस अंश को छापा, यह भी काबिले गौर है।</p>

देश में दुराचार की घटनाओं पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। कोई मुलायम सिंह कह सकता है, कि इन घटनाओं के पीछे लडके-लडकियों की ‘सेटिंग’ होती हैं। कोई वैज्ञानिक दृष्टि से शरीर की बायलॉजी को ‘मांग और आपूर्ति’ के चश्‍मे से देख सकता है। दूसरी ओर कोई कह सकता है कि दुराचार हमेशा रहा है लेकिन आज मीडिया के कारण घटनाएं लगातार प्रकाश में आ रही हैं। इन तर्कों को देखें तो दुराचार को एक मानवीय प्रवृत्ति माना जा सकता है। प्रवृत्ति किसी में भी पायी जा सकती है….साहित्‍यकार में भी
उर्मिल कुमार थपलियाल का व्‍यंग्‍य ऐसा ही संकेत करता है। चूंकि साहित्‍य की एक परिभाषा उसे भोगे हुए सच की अभिव्‍यक्ति के रूप प्रस्‍तुत करती है। इसलिए कह सकते हैं कि लिखने वाला साहित्‍यकार दुराचार का अनुभव रखता है। इसे वह अपनी रचना में बयां करता है। यह रचना छपती है इस शनिवार के ‘हिन्‍दुस्‍तान’ में थपलियाल मेरे प्रिय व्‍यंग्‍य लेखकों में से हैं। ‘सरेराह चलते-चलते का चरित्र चित्रण’ उनके तमाम व्‍यंग्‍यों की तरह बेहतरीन है। लेकिन इसमें दुराचार के सुख की अभिव्‍यक्ति एक मौलिक प्रयोग है। अब इसकी खुलेआम स्‍वीकारोक्ति कितनी जायज है, वह अलग बात है। अखबार ने उस अंश को छापा, यह भी काबिले गौर है।

 

संलग्‍न –  उर्मिल कुमार थपलियाल के व्‍यंग्‍य की छायाप्रति
सरेराह चलते-चलते का चरित्र चित्रण

जब जाली नोट तक चल जाते हैं, तो छुटभइये क्यों नहीं चल सकते?
अकेला या तो शेर चलता है या फकीर। कोई शेर, फकीर नहीं होता, तो फकीर क्या शेर होगा। चलना तो एक फितरत है। कई सरकारें हैं, जो जहां की तहां खड़ी या लेटी हैं, मगर लगता है कि चल रही हैं। अपने मोदी जी जैसा चलायमान तो आगे दुर्लभ ही समझो। अपना देश छोड़कर डेढ़ साल में पूरी दुनिया नाप दी। लंबी रेस का धावक अकेला होता है। यह सिद्ध हो गया। चलने को तो हजूर चक्की भी चलती है, घड़ी भी चलती है, सूरज-चांद सभी चलते हैं, किंतु इनकी मजबूरी है। चलने को तो राष्ट्रीय प्रपंच और राजनीतिक षड्यंत्र भी चलते हैं। लेकिन ये आगे की खाई या कुंआ नहीं देखते। चलने को तो कांग्रेस भी चल रही है। कभी संसद चला करती थी। अब चले, तो संसद नहीं लगती।
   चतुर और खुर्राट मंत्री लोग खुद कम चलते हैं। अजी जब जाली नोट चल जाते हैं, तो छुटभइये क्यों नहीं चल सकते?  चलने वाला लालच में अगर दौड़ने लगे, तो चरित्र से भी गिर जाता है। मेले में आदमी अकेला ही चलता है। अकेले दुराचार करने का अपना सुख है। सामूहिक दुराचार करने में सुख बंट जाता है। स्वर्ग भी अकेले चलकर जाया जा सकता है। दूसरों को लंगड़ीं मारकर चलना ही राजनीति कहलाती है। गठबंधन की सरकारें तो यूं लगती हैं, जैसे तीन टांग की दौड़ हो रही हो। धरना या प्रदर्शन अधिक दिनों तक नहीं चल पाते। सरकार से गुपचुप समझौता करना पड़ता है। बहुतों के दिल नहीं होते, उनके दिमाग चलते हैं। चालू खाते भी चलते हैं। वे अंखियां किस काम की, जो छुरियां न चला सकें? इससे तो उनमें मोतियाबिंद अच्छा। चलने या टहलने या टहलाने में फर्क है। कुछ को मधुमेह की मजबूरी में तेज चलना होता है। वयोवृद्ध अपनी बीमारी में धीरे-धीरे इसलिए चलते हैं कि मौत की मंजिल कुछ देर से आए। जवानी में जब कभी आंख चल जाती है, तो मुहब्बत होने लगती है। हमारे देश का कानून इसीलिए आहिस्ता चलता है कि वह अंधा होता है। कभी किसी मीना कुमारी को जब कोई सरेराह चलते-चलते मिल गया था, वह फिल्म भी चल गई थी। पाकीजा होने के बावजूद।

 

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