अर्द्ध विराम और पूर्ण विराम का फ़रक
रोको, मत जाने दो।
रोको मत, जाने दो।
एक बार एक कवि हलवाई की दुकान पहुँचे, जलेबी ली और वहीं खाने बैठ गये।
इतने में एक कौआ कहीं से आया और दही की परात में चोंच मारकर उड़ चला…
हलवाई को बड़ा गुस्सा आया उसने पत्थर उठाया और कौए को दे मारा।
कौए की किस्मत ख़राब, पत्थर सीधे उसे लगा और वो मर गया…. ये घटना देख कर कवि हृदय जगा। वो जलेबी खाने के बाद पानी पीने पहुँचे तो उन्होंने एक कोयले के टुकड़े से वहाँ एक पंक्ति लिख दी।
“काग दही पर जान गँवायो”
तभी वहाँ एक लेखपाल महोदय, जो कागजों में हेराफेरी की वजह से निलम्बित हो गये थे, पानी पीने आए।
कवि की लिखी पंक्तियों पर जब उनकी नजर पड़ी तो अनायास ही उनके मुँह से निकल पड़ा…
कितनी सही बात लिखी हैं ! क्योंकि उन्होंने उसे कुछ इस तरह पढ़ा :-
“कागद ही पर जान गँवायो”
तभी एक मजनूँ टाइप लड़का, पिटा-पिटाया सा वहाँ पानी पीने आया।
उसे भी लगा कितनी सच्ची बात लिखी हैं। काश उसे ये पहले पता होती, क्योंकि उसने उसे कुछ यूँ पढ़ा था :-
“का गदही पर जान गँवायो”
इसीलिए संत तुलसीदास जी ने बहुत पहले ही लिख दिया था :-
“जाकी रही भावना जैसी… प्रभु मूरत देखी तिन तैसी”