आदिवासी राजनीति का शिकार क्यों बनें?

Spread the love

मनसुखभाई वसावा

गुजरात के आगामी विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए पाटीदारों और दलितों के बाद आदिवासी समुदाय मुसीबत का बड़ा सबब बन सकते हैं। राज्य के आदिवासी इलाकों में षडयंत्रपूर्वक भिलीस्तान आंदोलन खड़ा किया जा रहा है जिसमें तथाकथित राजनीतिक दल एवं धार्मिक ताकतें भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर आदिवासी समुदाय को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। इस अनियंत्रित होती आदिवासी अस्तित्व और अस्मिता को धुंधलाने की साजिश के कारण आदिवासी समाज और उनके नेताओं में भारी विद्रोह पनप रहा है। यह प्रांत के लिए ही नहीं समुचे देश के लिए एक चिंता का विषय है। जिस प्रांत में भाजपा लगभग तीन दशक से सत्ता में है उस प्रांत में आदिवासी समुदाय की उपेक्षा के कारण उन्हें राजनीतिक जमीन बचाना मुश्किल होता दिख रहा है। यह न केवल प्रांत के मुख्यमंत्री श्री विजय रूपाणी व भाजपा अध्यक्ष श्री जीतू वाघानी के लिए चुनौती है बल्कि केन्द्र की भाजपा सरकार भी इसके लिए चिंतित है।

यह न केवल इन दोनों के लिए बल्कि देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के लिए भी एक गंभीर मसला बनता जा रहा है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री ने प्रति माह गुजरात की यात्रा का जो संकल्प व्यक्त किया है उससे जटिल होती समस्या को हल करने में सहायता मिल सकती है। समस्या जब बहुत चिंतनीय बन जाती हैं तो उसे बड़ी गंभीरता से मोड़ देना होता है। पर यदि उस मोड़ पर पुराने अनुभवी लोगों के जीये गये सत्यों की मुहर नहीं होगी तो सच्चे सिक्के भी झुठला दिये जाते हैं।

मैं प्रदेश एवं केन्द्र की राजनीति से जुड़ा हूं, लगभग तीस वर्ष का मेरा राजनीतिक सफर रहा है। हाल ही में जनजाति मंत्रालय में मंत्री के रूप में देश की आदिवासी समस्याओं से रू-ब-रू होने का मौका मिला है। आदिवासी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के कारण उनकी संवेदना और दर्द को मैं बहुत गहराई से महसूस करता रहा हूं। मूल प्रश्न गुजरात के आदिवासी समाज की उपेक्षा का है। अब जबकि चुनाव का समय सामने है यही आदिवासी समाज जीत को निर्णायक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है। हर बार चुनाव के समय आदिवासी समुदाय को बहला-फुसलाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की तथाकथित राजनीति इस बार असरकारक नहीं होगी। क्योंकि गुजरात का आदिवासी समाज बार-बार ठगे जाने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रांत की लगभग 23 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की हैं। देश के अन्य हिस्सों की तरह गुजरात के आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन-यापन करने को विवश हैं। यह तो नींव के बिना महल बनाने वाली बात हो गई। राजनीतिक पार्टियाँ अगर सचमुच में देश का विकास चाहती हैं और ‘आखिरी व्यक्ति’ तक लाभ पहुँचाने की मंशा रखती हैं तो आदिवासी हित और उनकी समस्याओं को हल करने की बात पहले करनी होगी। राजनीतिक पार्टियों को बाहरी ताकतों से लड़ने की बातें छोड़कर पहले देश की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास और रणनीति बनाना चाहिए। उनके वादे देश को आंतरिक रूप से मजबूत करने के होने चाहिए।

भारत को हम भले ही समृद्ध एवं विकासशील देश की श्रेणी में शामिल कर लें, लेकिन आदिवासी अब भी समाज की मुख्य धारा से कटे नजर आते हैं। इसका फायदा उठाकर नक्सली उन्हें अपने से जोड़ लेते हैं। कुछ राज्य सरकारें आदिवासियों को लाभ पहुँचाने के लिए उनकी संस्कृति और जीवन शैली को समझे बिना ही योजना बना लेती हैं। ऐसी योजनाओं का आदिवासियों को लाभ नहीं होता, अलबत्ता योजना बनाने वाले जरूर फायदे में रहते हैं। महँगाई के चलते आज आदिवासी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भी नहीं खरीद पा रहे हैं। वे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। अतः देश के कुल आबादी के करीब आठ प्रतिशत आदिवासियों की समस्याओं पर विशेष ध्यान देना होगा। गरीबी उन्मूलन की बात वर्षों से की जा रही है। इसके बावजूद समाज में आर्थिक विषमता ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। बेरोजगारी की समस्या यथावत है। मुद्रास्फीति घटने के बाद भी महँगाई लगातार बढ़ती जा रही है। हर नागरिक इससे त्रस्त है। आदिवासी भी इस महँगाई से अछूते नहीं हैं।

इन दिनों गुजरात के आदिवासी समुदाय को बांटने और तोड़ने के व्यापक उपक्रम चल रहे हैं जिनमें अनेक राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए इस तरह के घिनौने एवं देश को तोड़ने वाले प्रयास कर रहे हैं। ऐसे ही प्रयासों ने भिलीस्तान जैसी समस्या को खड़ा कर दिया है। एक आंदोलन का रूप देकर आदिवासी समुदाय को विखण्डित करने की कोशिश की जा रही है। मुझे निशाना बनाया जा रहा है। मेरे कुछ साथियों को भी डराया-धमकाया जा रहा है। आदिवासी समुदाय में अनेक शिक्षा, सेवा एवं जनकल्याण के कार्यों को करने वाले संत गणि राजेन्द्र विजयजी भी निशाने पर हंै।  इस भिलीस्तान आंदोलन को नहीं रोका गया तो गुजरात का आदिवासी समाज खण्ड-खण्ड हो जाएगा। इसके लिए तथाकथित हिन्दू विरोधी लोग भी सक्रिय हैं। इन आदिवासी क्षेत्रों में जबरन धर्मान्तरण की घटनाएं भी गंभीर चिंता का विषय है। यही ताकतें आदिवासियों को हिन्दू मानने से भी नकार रही है और इसके लिए तरह-तरह के षडयंत्र किये जा रहे हैं। जबकि सर्वविदित है कि आदिवासी हिन्दू संस्कृति का ही अभिन्न अंग है और वे भारतीय संस्कृति की एक अमूल्य विरासत एवं थाती है। उनके उज्ज्वल एवं समृद्ध चरित्र को धुंधलाकर राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों से सावधान होने की जरूरत है। तेजी से बढ़ता आदिवासी समुदाय को विखण्डित करने का यह हिंसक दौर किसी एक प्रांत का दर्द नहीं रहा है। इसने देश के हर आदिवासी दिल को जख्मी बनाया है, अब इसे रोकने के लिए प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है।

आदिवासियों की चरित्र को धुंधलाने की कोशिश अन्य मोर्चों पर भी हो रही हैं। उनके पारम्परिक जीवन निर्वाह के स्रोत को बाधित किया जा रहा है। खनिज और धातु ने सभ्यता और मानवजाति के विकास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कौटिल्य ने अपनी प्रसिद्ध कृति अर्थशास्त्र में कहा था कि राष्ट्र की संपदा के स्रोत खनन एवं धातुकर्म उद्योग हैं। राष्ट्र की क्षमता खनिज संसाधनों से बनती है, लेकिन समकालीन दौर में भारत या पूरे विश्व में खनिज उद्योगों या खनन गतिविधियों पर नजर डालते हैं, तो वास्तविकता कुछ और ही बयां करती है। इस वास्तविकता ने लोकतांत्रिक दायरे में खनन से संबंधित नए वाद-विवाद को जन्म दिया कि किस तरह से देश में खनन गतिविधियों द्वारा राष्ट्रीय विकास और सार्वजनिक हित के नाम पर आदिवासियों की बलि चढ़ाई जा रही है।

खनन कार्यों के लिए आदिवासियों से उनके जंगल और जमीन छीनकर आर्थिक रूप से उन्हें पंगु बना दिया गया है, जिस कारण उन्हें मजबूरन पलायन का दंश झेलना पड़ता है। जब आदिवासी क्षेत्रों में आधारभूत सुविधाएं जैसे बिजली, यातायात, सिंचाई की व्यवस्था, स्कूल, प्राथमिक स्वास्थ्य जैसी मूलभूत व्यवस्था न हो, तो लोग आजीविका के लिए अपने गांव छोड़ने पर मजबूर होकर पलायन करते हैं। इसकी वजह से आदिवासी समुदाय की सामाजिकता और संस्कृति का भी क्षरण होता है। नई जगहों पर विस्थापितों को प्रायः उनकी संस्कृति और समाजिकता का अभाव नजर आता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आदिवासी समुदाय मे पलायन एक विकराल समस्या के रूप में उभरा है। इसके निदान के लिये आदिवासी समाज को जीविका के नये विकल्पों को अपने ही इलाकों में तलाशने की जरूरत होगी। तभी समुदाय की प्रकृति और विरासत बच पायेगी। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को इस दिशा में काम करने के लिये ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है। उसी तरह उद्योगपतियों से जिन्दल, मित्तल, टाटा, बिड़ला से एम.ओ.यू. करके गाँव के गाँव तथा जंगल-झाड़ उजाडें जा रहें हैं। इससे आदिवासी विस्थापित होकर कहाँ-कहाँ जाकर खो जा रहे हैं, इसका कोई पता नहीं है।

हजारों वर्षों से जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को हमेशा से दबाया और कुचला जाता रहा है जिससे उनकी जिन्दगी अभावग्रस्त ही रही है। इनका खुले मैदान के निवासियों और तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले लोगों से न के बराबर ही संपर्क रहा है। केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी 6-7 दशक में उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएं, पीने का साफ पानी आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं। इन सभी बातों को जानने के बावजूद आदिवासियों की समस्या को तय कर पाना कतई आसान नहीं है। हर क्षेत्र की परिस्थितियां अलग-अलग हो सकती है, जैसे कि कई क्षेत्रों के आदिवासी बिना मूलभूत सुविधा के ही संतुष्ट हों तो कहीं इन सब की दरकार भी हो सकती है। कहने का अर्थ यह है कि समस्या अलग-अलग क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों की भिन्न-भिन्न हो सकती है। वैसे सामान्यतः ऐसा होता नहीं है क्योंकि आदिवासी समाज की अपनी एक पहचान है जिसमें उनके रहन-सहन, आचार-विचार, कला-संस्कृति, बोली आदि एक जैसे ही होते हैं। इधर बाहरी प्रवेश, शिक्षा और संचार माध्यमों के कारण इस ढांचे में भी थोड़ा बदलाव जरूर आया है।

वैसे वर्षों से शोषित एवं पीड़ित रहे इस समाज के लिए परिस्थितियां आज भी कष्टप्रद और समस्यायें बहुत अधिक हैं। ये समस्यायें प्राकृतिक तो होती ही है साथ ही यह मानवजनित भी होती है। विडम्बनापूर्ण तो यह है कि समस्याएं राजनीतिक और धार्मिक होकर अपनी क्रूरता के पदचिन्ह स्थापित करती है। विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों की समस्या थोड़ी बहुत अलग हो सकती है किन्तु बहुत हद तक यह एक समान ही होती है।

इसके अलावा भी आदिवासी समाज की कई समस्यायें हैं जो उनके अस्तित्व और उनकी पहचान के लिए खतरनाक है। आज बड़े ही सूक्ष्म तरीके से इनकी पहचान मिटाने की राजनीतिक साजिश चल रही है। दशकीय जनगणना में छोटानागपुर में आदिवासी लोहरा को लोहार लिखकर, बड़ाइक को बढ़ई लिखकर गैर आदिवासी बना दिया गया है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी विमुक्त, भटकी बंजारा जातियों की जनगणना नहीं की जाती है। तर्क यह दिया जाता है कि वे सदैव एक स्थान पर नहीं रहते। इतना ही नहीं हजारों आदिवासी दिल्ली या अन्य जगहों पर रोजगार के लिए बरसों से आते-जाते हैं पर उनका आंकड़ा भी जनगणना में शामिल नहीं किया जाता है, न ही उनके राशन कार्ड बनते हैं और न ही वे कहीं के वोटर होते हैं। अर्थात इन्हें भारतीय नागरिकता से भी वंचित रखा जाता है। आदिवासियों की जमीन तो छीनी ही गई उनके जंगल के अधिकार भी छिन गए। अब गैर आदिवासी लोगों के बसने के कारण उनकी भाषा भी छिन रही है क्योंकि उनकी भाषा समझने वाला अब कोई नहीं है।

जिन लोगों की भाषा छिन जाती है उनकी संस्कृति भी नहीं बच पाती। उनके नृत्य को अन्य लोगों द्वारा अजीब नजरों से देखे जाते हैं इसलिए वे भी सीमित होते जा रहे हैं। जहां उनका ‘सरना’ नहीं है वहां उन पर नए-नए भगवान थोपे जा रहे हैं। उनकी संस्कृति या तो हड़पी जा रही है या मिटाई जा रही है। हर धर्म अपना-अपना भगवान उन्हें थमाने को आतुर है। हिन्दू विरोधी उन्हें हिन्दू नहीं मानते तो हिंदुत्ववादी लोग उन्हें मूलधारा यानी हिंदुत्व की विकृतियों और संकीर्णताओं से जोड़ने पर तुले हैं और उनको रोजी-रोटी के मुद्दे से ध्यान हटा कर अलगाव की ओर धकेला जा रहा है। भिलीस्तान की आग इन्ही सब विसंगतियों एवं विदु्रपताओं का संगठित स्वरूप है। इस विद्रुपता को दूर करने के लिए व्यापक प्रयत्न करने होंगे। एक समाज और संस्कृति को बचाने के लिए यह जरूरी है। जरूरत सिर्फ सार्थक प्रयत्न की है। भला सूरज के प्रकाश को कौन अपने घर में कैद कर पाया है? लक्ष्य पाने के लिए इतनी तीव्र बेचैनी पैदा करनी है जितनी नाव डूबते समय मल्लाह में उस पार पहुंचने की बेचैनी होती है। गुजरात के आगामी विधानसभा चुनाव आदिवासी समाज के लिए एक ऐसा संदेश हो जो उनके जीवन मूल्यों को सुरक्षा दे और नये निर्माण का दायित्व ओढ़े।

मनसुखभाई वसावा
सांसद-लोकसभा एवं पूर्व जनजातीय राज्यमंत्री, भारत सरकार
10, पंडित पंत मार्ग, नई दिल्ली-110001
ईमेलः md.vasava@sansad.nic.in

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *