`लौन्डा-लपाड़ी मित्रमण्डल’ आप सभी ‘धरम पिरेमी’ जनता का हारदीक-हारदीक अभिनंदन करती है… सुवागत करती है… वंदन करती है… इसी के साथ जनता ‘हेमा’ बन गई… (अब इतना डिपली में मत घुसो और आगे बढ़ो!)
वो हुवा यूं कि अपन भण्डारे में गए थे… ये लिख इसलिए रिया हूं कि भण्डारे की लोकेशन ही कुछ ऐसी थी कि – एकदम खुल्लमखुल्ला जगो… (गंदगी वाला ‘झक्कास कम्पाउण्ड’ बोल सकते हो!)… अपन ने आयोजक को ‘दण्डवत’ तभी कर दिया जब देखा कि एक ओर ‘कल्लू की कलाली’ पर ‘सोमरस’ के लिए ‘श्रद्धालु’ लाइन में लगे थे, वहीं उसके ठीक सामने ‘जिमने का जश्न’ चल रहा था… मतलब इधर पियो… और उधर सूतो…
सूतने में तो तादाद कम थी, लेकिन ‘लपक की झपक’ ‘कल्लू की कलालीÓ पर ज्यादा थी… इसी बीच अपना नम्बर भी सूतने के लिए आ गया… अपन भी सूतने में माहिर ठहरे… ‘कर्मठों’ ने पेले तो 3-4 जगो से उठाया… भिया यां नी… भिया वां नी… अपन ने पूछ ही लिया… भिया ‘सूतने’ आया हूं, तुम तो ‘सताने’ लगे… डांस कर दूं क्या..!
जैसे-तेसे जगो मिली, बैठ गए…, दोने-पत्तल आए… गिलास के साथ पूड़ी-सब्जी भी आ ही गई थी… अपनने खाना चालू किया ही था कि पास में बैठा ‘टल्ली टुनटुन’ बोला – भिया कैसा बना..? मैं बोला – अरे, भिया खान्तो दो..!
अपन समझ ही गए थे कि भिया ‘सोमरस’ का स्वाद लेकर आए हैं… फिर 2-3 पूड़ी सूती ही थी कि टल्ली टुनटुन फिर बोल उठा… खैर, इस बार उसका टारगेट सामने वाला था – भिया कुछ मंगाऊँ क्या..? टल्ली टुनटुन पूछ-परख तो ऐसी कर रिया था कि मानों जंवाईं के ससुराल वालों को निमंत्रण पर बुलाया हो…
इसी बीच माइक से अनाऊंस हुआ… लौन्डा-लपाड़ी मित्रमण्डल भाई ‘छगन छबिला’ का हारदीक-हारदीक स्वागत करती है… वंदन करती है… अभिनंदन करती है… ‘माइक का माइकल’ आगे बोला… भाई छगन छबिला की ओर से इस भंडारे में ‘अति स्वादिष्ट’ भूमिका निभाई है… मैंने मन में सोचा – ‘अति स्वादिष्ट’ मतलब!! माइकल बोला – भिया ने भंडारे में ‘नमक’ की व्यवस्था करवाई है… मैंने भी छगन छबिला को ‘सब्जी सहित परणाम’ किया… वाकई बन्दे ने ‘नमकÓ का कर्ज अदा किया था… बस थोड़ा ‘कम’ था, वो अलग बात है..!
भण्डारे की सब्जी की बात ही अलग होती है… तीन पूड़ी जादा सूती… इसी बीच माइकल फिर बोल उठा… लौन्डा-लपाड़ी मित्रमण्डल एक बार फिर हमारे जुझारू… कर्मठ… अण्ड-सण्ड आवाज निकालने वाले… भाई… पप्पू पाटनीपुरी (ऑन ली ‘पाटनीपुरी’ नॉट ‘पानीपुरी’… ऑफ ली तो कुछ भी बोल सकते हो… मुझे क्या!!) का हार्दिक सुवागत करता है…
वहीं मैं कोरा ठूंस ही रहा था कि टल्ली टुनटुन फिर बोला – भाई कैसा बना..? मैंने बोला… भाई एक नम्बर… वो बोला… पर हो तो ‘दो नम्बर’ में रिया है… ऐसा कहते ही टल्ली टुनटुन की ‘वार्तालाप’ ने मेरे ‘खाने’ को ‘भोजविलाप’ में बदल दिया…
खैर अपन तो निपट चुके थे… अब दौर विदाई का था… अरे भिया… इतना माथा तो खपा लिया… पर ये नी पूछा कि भण्डारा काए का था..? खैर, ये तो मैं भी नहीं बता सकता… पता ही नी चल रिया था… बस ‘माइक का माइकल’ यही बोल रिया था… ‘विशाल भण्डारा… विशाल भण्डारा…’ लगता है किसी ‘विशाल’ को भण्डारे के लिए बुला रिया था…
अपन जाने के लिए गाड़ी पीछे मोड़ ही रिये थे कि मन में ‘खोजी खियाल’ आया… यार इस ‘विशाल’ का पता तो करो..! इसी बीच टल्ली टुनटुन प्रकट हुए… मैंने पूछा – भाई, ये ‘विशाल’ है कहां..? वो बोला – भिया मेरे साथ ही ‘कल्लू की कलाली’ पर था… मैं उसे सुला के आया हूं उसके घर पे… जादा हो गई थी, इसलिए आ नी पाया… तब जा के अपने को तसल्ली हुई… अपनने टल्ली को बोला – जा फिर माइकल को बोल आ… फिर अपन निकल लिए… इसी के साथ जय-जय सिया राम..!!
(नोट – यह लेख पूरी तरह से काल्पनिक है… इसे केवल ‘हास्य-व्यंग्य’ के रूप में ही लिया जाए…)
रोहित पचौरिया `इंदौरी’
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