: गोनू झा कहिन (तीन) : विगत एक हफ्ते से गोनू झा ने गाँव के चौपाल में आ कर बैठना शुरू कर दिया क्यों कि वहां पर उनको सारे पुराने पंच, उनके समर्थक और एक दो मसखरे भी बैठे मिल जाते हैं और फिर कुछ न कुछ बात का बतंगड़ बन ही जाता है. कल शाम कर्नाटक के पूर्व मुख्यामंत्री बीएस यदुरप्पा के जेल जाने पर और रात में अस्पताल लौट आने पर पंचों के बीच में बहस छिड़ गयी और फिर जो तर्क-वितर्क की धारा बह निकली, उसका आनंद कुछ और ही था.
सबसे पहले खदेरन सिंह भड़क गए, “क्या महाराज, क्या हो गया है हमारे देश के नेताओं को? अदालत में जाने से पहले तो बड़ी ही लम्बी-लम्बी हांकते हैं और जैसे किसी मामले में फंसे और ज़मानत नहीं मिली तो फिर देखिये, सारी हेकड़ी की टेकड़ी बन जाती है. कोई सरकंडा बन जाता है तो कोई केकड़ा. क्या उस यदुरप्पा को पता नहीं था कि सरकारी ज़मीन निगलना आसान नहीं होता है. उसको आदमी तो क्या अजगर भी नहीं पचा पता है. फिर भी पुत्र मोह और अंधे लालच के चक्कर में जेल चला गया. और जेल तो जैसे सैर करने गया, कुछ ही घंटे के बाद अस्पताल में.”
गोनू झा सुनते रहे. बीच में पंडित छवि का तड़का पड़ा, “जो तकदीर में लिखा रहेगा वो ही न होगा. याद नहीं तुलसीदास के क्या कहा था- होइहें सोई जो राम रचि राखा. कोकर तर्क बढ़ावा ही साखा. जो जितना ज़ल्दी आसमान में पहुँचता है वो उतनी ज़ल्दी ज़मीन पर आकर गिरता भी है.. माना कि हर नेता को पैसा कमाने की मजबूरी होती है, हर नेता अपने आने वाली पांच पीढ़ियों के लिए धन कमा कर रखना चाहता है. हो सकता है कि पार्टी हाई कमांड को हर महीना करोड़ों पहुँचाना पड़ता होगा, अपने शौक होंगे, रखैल होगी, दोस्त, चम्पू, चमचों और चाटुकारों की फ़ौज होगी. मगर ये क्या कि जहाँ ज़मीं देखी वहीँ राल टपक गया?”
गोनू झा बोले, ‘मगर पंडितजी, वो तो बहुत बड़ा कर्मकांडी था. पता नहीं कहाँ कहाँ जाकर पूजा पाठ करता था. मंदिर में ही सच और झूठ सत्यापित करने की बाज़ी भी लगायी थी और अपने राजनीतिक विरोधियों को भी वही ताल ठोंक कर बुलाता था. फिर अचानक उसकी कुंडली के गोचर में गोबर कहाँ से भर आया और उसकी बुद्धि इतनी भष्ट कैसे हो गयी?
छवि जी बोले, “श्रीमान वो कहावत है न कि अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान. उसको लगा कई उनका कौन क्या उखाड़ सकता है. और पुत्र मोह की बीमारी तो सब युगों में ही पतन का कारण रही है. उसका भी वही हाल हुआ और अब देखिये. ये आदमी कितना भी अस्पताल बदल ले. मगर अगले ३६ दिनों तक उसको ज़मानत नहीं मिलने वाली. केतु उसके सर पर तांडव कर रहा है.”
खदेरन बोले, “मगर, एक बात तो बताओ. ये सब नेता लोग जेल जाने के कुछ ही घंटे बाद सीधे अस्पताल क्यों पहुंच जाते हैं? क्या जेल की कोठरी में साक्षात यमराज अवतरित हो जाते हैं या फिर बदनामी के बाद अकेलेपन का दंश सालने लगता है? या फिर अचानक रुतबा और भीड़ की कमी खलने लगती है?”
अरे भाई, यही तो मैं भी सोच रहा हूँ. सत्यम के राम लिंगम राजू से, भट्टा परसौल वाला तेवतिया से लेकर अमर सिंह और करीब एक सौ नेता लोग अब तक जेल गए हैं. मगर हर कोई वहां से सीधे अस्पताल पहुँच गया. कोई दो दिन रहा तो कोई दो महीना. मगर सच तो ये है कई हर नेता के पीछे कोई न कोई किस्सा या काण्ड ज़रूर होगा. सोचने की बात ये भी है कि अगर आज गोस्वामी तुलसीदास जीवित होते तो अपने नए रामायण में एक और नया काण्ड “जेल काण्ड ज़रूर लिख लिए होते”. क्या लोमहर्षक वर्णन होता उन किरदारों का!!
सरपंच ने बात काट दी, ”अरे, अब तुम भी क्या लेकर बैठ गए? मगर एक बात ज़रूर है. इन नेताओं की नौटंकी में पुलिस और अस्पतालों का सफ़र बड़ा ही अजीबो-गरीब लगता है. अगर अदालत को उनकी ऐसी बीमारियों का पता लग जाये तो उनको ऐसे ही जेल में भेजना चाहिए जहाँ से अस्पताल चंद कदम की दूरी पर हो. ताकि सरकारी एजेंसियों को माथा-पच्ची नहीं करनी पड़े..”
गोनू झा बोले, ”अरे, बौरा गए हो क्या? आज हमारे देश में एक तो जेलों की संख्या वैसे ही कम है. जिस जेल में देखो तो पांच गुना से ज्यादा कैदी ठूंस दिए गए हैं. पहले देश में इतने जेल तो बन जाये. फिर उन जेलों में सुपर क्लास अस्पताल की बात करना. हमारे देश में तो देहाती इलाके में 10 किलोमीटर की दूरी पर एक बढ़िया अस्पताल नहीं है और तुम चले ख्याली पुलाव पकाने. इन नेता लोगों की नस्ल भी कमाल की है. जब तक सत्ता में रहते हैं तो सांड बने घूमते हैं, पता नहीं, क्या-क्या खाते है, डकारते हैं, चबाते हैं, कितने सौ करोड़ की जुगाली करते हैं. कुछ ने थूक भी दिया तो पचास करोड़ का वो भी निकला. मगर जैसे ही जेल में पहुंचे तो अचानक उनका बदन बीमारियों का तालाब सा बन जाता है. और बीमारी भी नए किस्म की. कइयों का तो नाम भी नहीं सुना है. पता नहीं, नए युग की नयी बीमारियों की खेप है ये. मज़े की बात ये है कि इनमें से किसी को भी, डेंगू, मलेरिया नहीं होता. चेचक या हैजा नहीं होता. वो तो आम आदमी के लिए सुरक्षित है. आरक्षण की तरह.”
तभी चिरकुट पहलवान चौपाल में पधारे और सवाल को अजहरुद्दीन की तरह बीच में ही कैच कर लिया. “भाई लोगों, वो इसलिए कि आजकल के मच्छर भी काफी समझदार हो गए हैं. वो भी आम आदमी का ही खून पीना पसंद करते हैं, क्यों कि उसमें दीपवाली की मिठाई की तरह मिलावट का खतरा नहीं रहता. इन नेताओं का खून पीकर वो अपनी नस्ल गंदा नहीं करना चाहते भैया. मुझे तो नेता, जेल और अस्पताल वाला खेल काफी रहस्यमय दिखाई देता है. नेताओं का जुर्म, जगह और रंग भले ही अलग-अलग को, मगर ससुरी बीमारी एक ही किस्म की. और डाक्टरों की भी दलील और नुस्खे भी एक ही तरह के… ऐसा कैसे हो सकता है?”
खदेरन ने चुटकी ली. बोले, “असल में जेल के अन्दर पहुँचते ही इन नेताओं को पीछे छोड़ आये माल और कारोबार में चूना लगने का खतरा ही उनको बीमार बना देता है. डर ये बना रहता है कि अगर कहीं जेल में ही मर गए तो हश्र वही होगा कि दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम. मगर जब लक्ष्मी का उल्लू सर पर चढ़ कर बोलता है तो अक्ल वैसे भी घास चरने चली जाती है. वो कहावत है न कि माले मुफ्त-दिले बेरहम. वैसे भी लक्ष्मी का उल्लू टहनी पर बैठने से पहले ये थोड़े ही देखता है कि डाल बबूल की है या फिर बरगद की.”
हाँ. सो तो है. मगर हर कोई एक सा नहीं है भाई. अब अमर सिंह को देखो. उनकी समस्या जायज़ थी. हाल में ही किडनी का आपरेशन हुआ था और जेल में संक्रमण का खतरा भी था. जेल के माहौल में वैसे भी स्वच्छता और सफाई का अभाव सा रहता है. फिर इतने कैदी जहां-तहां पसरे हैं. मगर यदुरप्पा तो काफी ठीक ठाक था. उसको क्या हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं कि:
रंग ला कर ही रही मर्दों की सोहबत का असर,
शायराते-कौम भी दादे-ज़बान देने लगी,
मुर्गे की तो खैर फितरत है गुलबांगे-सहर,
इन मुर्गियों को क्या हुआ, ये क्यों अजान देने लगीं??
सहनी ने बीच में बात काटी, “अरे नहीं भाई. ऐसा नहीं है. ये तो दिमाग वकीलों का है. जैसा सुझाव और सलाह दिया, नेता लोग मान गए. मकसद तो जेल से बाहर निकलना है. चाहे जैसे भी. बीमारी का बहाना ही सही. मगर सब ऐसा नहीं है. यहाँ भी अपवाद है. मिसाल के तौर पर लालू प्रसाद को लेख लो. चारा घोटाला में फंसकर बेउर जेल चला गया भाई. लोग जेल की रोटी और दाल तक नहीं पचा पाते. लालू जी चारा तक पचा गए मगर डाक्टर को नहीं बुलाया. जेल में भी शान से दंड पेलते रहे मगर बीमारी का बहाना नहीं बनाया.”
बस क्या था. गोनू झा चिढ गए, “सब नौटंकी है. इतने साल तक यदुरप्पा ने जो गुल खिलाये, क्या गडकरी और अडवाणी को यह सब पता नहीं था? सब जानते थे कि कैसे उसने, रेड्डी बंधुओं के साथ मिल कर बेल्लारी जिले का बेरहमी से बलात्कार किया, रियासत के खनिज की लूटपाट की. अपनी मनमानी और दादागिरी की. प्रशासन को कुशसना बना डाला. मगर भाजपा के दिल्ली में बैठे नेताओं की कान पर जून तक नहीं रेंगी. सब उसी के हाथ का खाते थे और सब आज अपना पल्ला झाड रहे़ हैं. कितनी कोशिशों के बाद वो अपनी गद्दी से हटा. वेंकैयानायडू, राजनाथ सिंह और अरुण जेटली तक को कुछ नहीं समझा उसने. और जब वो हटा भी तो अपनी मर्ज़ी से, अपनी तारीख, वक़्त और अपनी शर्तों पर. क्या उखाड़ लिया इन नेताओं ने उसका? संघ वाले क्यों चुप बैठे थे. उस पर से तुर्रा ये कि आडवाणी जी उसके गुनाहों को छोटी-छोटी कमजोरियां बता रहे है.”
अब खदेरन भी फट पड़े, “अरे आडवाणी को छोडिये, वो सठिया गए हैं. वैसे भी 84 साल के हो गए. मगर सिंहासन का लोभ अब तक नहीं गया दिल से. इस उम्र में तो उनको इन्द्रप्रस्थ का लोभ त्याग कर वानप्रस्थ की तैयारी करनी चाहिए थी. रथ का मोह नहीं छूटा. 60 सीटों वाली बस को रथ बना दीजियेगा तो कबाड़ा ही न होगा.”
छवि जी से रही रहा गया. वो बोले, “कमाल है भाई. भाजपा में इतने सारे संत और महंत बैठे है. शंकराचार्य बैठे हैं. तब भी भद्रा में ही यात्रा शुरू कर दी. यही गलती 2004 में भी की थी और उसके बाद उनकी सरकार का क्या हश्र हुआ था ये सब लोग जानते हैं. इस रथ यात्रा में भी पहले दिन बस की छत टूट गयी. दूसरे दिन बनारस में अपने पार्टी के लोगों ने काला झंडा दिखा दिया. तीसरे दिन सतना में पत्रकारों को दिए गए 500 के नोट पर बवाल मचा. चौथे दिन उनकी रैली में चोरी की बिजली पर हाय-तौबा मची. उसके बाद एक पत्रकार सम्मलेन में उन्होंने ने अपने जन चेतना यात्रा को जन यातना यात्रा बता दिया. और अब यदुरप्पा के गुनाहों को को छोटी सी कमजोरी बता रहे हैं. तब तो पार्टी का भगवान ही मालिक है.”
खदेरन फिर बीच में टपक पड़े, ”पहले कोई ये तो बताये कि उस रियासत का नाम कर्नाटक किसने रखा?”
गोनू झा से रहा नहीं गया, वो बोले, “कम से कम ये काम तो मैंने नहीं किया. मगर इस नाम का संधि-विच्छेद करने के बड़ा कौतूहल होता है. मतलब ये कि ‘कर+नाटक=कर्नाटक’. और वहां पर राजनीतिक नाटक तो लम्बे अरसे से चला आ रहा है. उसमें नया क्या है? वहां का एक मुख्यमंत्री था बंगारप्पा, जो अपने आपको फ़िल्मी हीरो से कम नहीं समझता था और जब मन करे, ढोल उठाकर बजाने लगता था. उसके पहले था गुंडू राव. वो खालिस गुंडा गिरी के अंदाज़ में अपना काम करता था. जो भी पसंद आया, उठा लिया. उसके बाद हुए देवगौड़ा, जो हर बात पर ताल ठोंक कर कहते थे कि पूरे कर्नाटक में वे ही एक माटी का लाल है. तभी तो जेएच पटेल चिढ़ कर भरी सभा में बोल गया था कि अगर एक तुम ही माटी के लाल हो तो हम लोग क्या आसमान में पैदा होकर इस धरती पर गिरे हैं?”
इसी बीच एक लड़का हांफता हुआ आ कर बोला कि टीवी पर खबर चल रही है कि लखनऊ में अरविन्द केजरीवाल पर किसी ने जूता फेंक दिया. बस क्या था. सब अबाक रह गए. मियां अकरुद्दीन बोले, ”या अल्लाह. हमारे मुल्क में ये क्या हो रहा है? ये कमबख्त जूता बीच में कहाँ से चला आया? बहरहाल एक शेर अर्ज़ है कि :
क्या अजीब शय है ये जूता भी यारों
लगा तो हुआ काम, नहीं तो नाहक बदनाम…”
गोनू झा बोले, “अब बस भी करो मियां” और चौपाल बर्खास्त हो गयी.
लेखक अजय झा वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये हिंदुस्तान टाइम्स, आजतक, डीडी न्यूज, बीबीसी, एनडीटीवी एवं लोकसभा टीवी के साथ वरिष्ठ पदों पर काम किया है. अजय से संपर्क ajayjha30@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.