बराक ओबामा कहां के राष्ट्रपति हैं, यह पूछा जाए तो थोड़ा अजीब जरुर लगेगा। लेकिन पिछले कुछ दिनों से संशय की स्थिति बनी हुई थी। पहले तो पता था कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए हैं, लेकिन 20 जनवरी को जब वह राष्ट्रपति पद की शपथ ले रहे थे, तो भारत में मीडिया के व्यवहार को देख यह संशय की स्थिति वाजिब ही थी। लगा कि ओबामा भारत के राष्ट्रपति पद की शपथ ले रहे हैं या शायद भारत कुछ समय के लिए अमेरिका बन गया है।
उस दिन सुबह अखबार खोला तो पता चल गया कि आज राष्ट्रपति ओबामा शपथ लेंगे। यही नहीं, वह कहां किस रास्ते से शपथ लेने जाएंगे, कितने सुरक्षाकर्मी उनकी रक्षा के लिए तैनात रहेंगे, सब पता चल गया। किसी ने पूरा पेज तो किसी ने आधे से ज्यादा जगह देकर बकायदे फोटो व ग्राफिक्स के माध्यम से सभी कुछ साफ-साफ स्पष्ट कर दिया। ताकि लोग रास्ता न भूल जाएं।
मीडिया जानती है भारत के लोग कितने भुलक्कड़ हैं। कहते हैं अहिंसा के रास्ते पर चलेंगे, चले कहीं और जाते हैं। बहरहाल, उस दिन रात को साढ़े दस बजे अमेरिका में जब राष्ट्रपति शपथ ले रहे थे तो भारत के सभी निशाचर खबरिया चैनल उसके सजीव प्रसारण में लगे थे। भारतीय प्रधानमंत्री शपथ ले तो भी उसे इतना कवरेज नहीं मिलता। ओबामा करिश्माई व्यक्तित्व, ओबामा ने इतिहास रचा। चैनल दर्शकों पर ऐसे रौब झाड़ रहे कि देखो, हम तुम्हें इतिहास बनते दिखा रहे हैं। कुछ चैनल साथ-साथ ओबामा के भाषण का हिंदी अनुवाद भी दिखा रहे थे। दर्शकों को जबर्दस्ती आशा बंधाई जा रही थी कि अब सब कुछ बदल जाएगा। मीडिया उनके अश्वेत होने से कुछ ज्यादा ही खुश दिख रही थी, इसे ही इतिहास बताया जा रहा था।
एक तरह से यह इतिहास है भी। लेकिन इस इतिहास से सचमुच कुछ बदल सकेगा, यह सोचने का विषय है। लेकिन इन सब से ज्यादा विचारणीय भारतीय मीडिया का यह चरित्र था जो अचानक रंगभेद, जातिवाद व नस्ल के खिलाफ खड़ा दिख रहा था। एक बारगी समझ में नहीं आ रहा था कि भारत की मीडिया आखिर रंगभेद व जातिवाद के खिलाफ कैसे तन कर खड़ी हो गई है। ऐसा भेदभाव तो भारत में भी होता रहा है। भारत में आज भी कई दलित जातियां, आदिवासी समाज मनुवादी विचारों व संगठनों द्वारा सताई जा रही हैं। और खुद मीडिया के अभी तक के रिकार्ड को देखते हुए यह और भी विश्वसनीय नहीं है कि वह दलितों के साथ भेदभाव की खिलाफत करती हो। सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत में मीडिया खुद श्वेतों की मुठ्ठी में रही है। इसमें दलितों की हिस्सेदारी 8-10 प्रतिशत की भी नहीं है। कई मौकों पर खुद मीडिया भारत के सवर्ण लोगों के साथ खुल कर खड़ी नजर आती है। खासकर पिछड़ों, दलितों को आरक्षण देने का तो यह तहेदिल से विरोध करती रही है। लेकिन वहीं जब अमेरिका में लोग आरक्षण के रास्ते आगे बढ़ रहे हैं तो वह उसके लिए यह इतिहास की तरह है।
मीडिया आखिर भारत में ऐसा इतिहास बनते क्यों नहीं देखना चाहती। भारत में कोई मायावती जीतती हैं तो यह उसके लिए खुशी का उतना विषय नहीं होता जितना की वह विस्मृत होती है। बात इतिहास की करें तो क्या सत्ता में किसी अश्वेत या दलित के बैठ जाने से वाकई में जमीनी स्तर पर कोई क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है। ओबामा उसी रिपब्लिकन-डेमोक्रेटिक पार्टियों का हिस्सा हैं जो कई दशकों से अमेरिका पर शासन कर रहे हैं। इन्हीं दोनों पार्टियों के नेताओं की अगुवाई में दुनिया के कई देश नेस्तनाबूत हो गए। कितने लोग मारे गए। अकेले ओबामा क्या अमेरिका की ऐसी सारी नीतियों को बदल सकेंगे। यह आने वाला समय बेहतर बताएगा। लेकिन शपथ ग्रहण के दिन उनके भाषण से ऐसे किसी बदलाव की उम्मीद बेकार ही है। भारत में भी खुद ऐसे बदलाव कई बार देखे जा चुके हैं।
मायावती जीतकर आईं, कहीं कुछ बदल गया! उत्तर प्रदेश में आज पहले से ज्यादा दलित उत्पीड़न की घटनाएं हो रही हैं। दरअसल ऐसे चुनावी बदलावों से किसी बदलाव की उम्मीद करना भी बेवकूफी से ज्यादा कुछ नहीं होगा। सत्ता का रंग बदल जाने से जमीनी स्तर पर कोई बदलाव संभव नहीं होता। यह बदलाव तो तभी होगा जब निचले स्तर पर रंगभेद व जातिवाद के खिलाफ कोई क्रांतिकारी आंदोलन चले। ऐसे में यह भी तय है कि अश्वेत की जीत से बेइंतहा खुश यह भारतीय मीडिया ऐसे किसी आंदोलन के विरोध में सबसे पहले खड़ी नजर आएगी।
लेखक विजय प्रताप पेशे से पत्रकार हैं लेकिन पत्रकारिता से ज्यादा इनकी सक्रियता राजनीति में रहती है। विजय का कहना है कि वे एक पत्रकार के बतौर मीडिया की राजनीति और राजनीति में मीडिया को जानने समझने की कोशिश कर रहा हूं। विजय से संपर्क 09982664458 या फिर vijai.media@gmail.com के जरिए किया जा सकता है।