: दयानंद पांडेय का उपन्यास : फिर सुनीता के पति ने सुनीता को ख़ूब मारा पीटा। और अंततः अपने माता पिता से अलग रहने लगा। सुनीता के साथ शहर में अलग किराए पर घर ले कर। अब सुनीता के उपवास के दिन आ गए। ससुर के घर लाख ताने, लाख मुश्किल थी पर दो जून की रोटी और बेटियों को पाव भर दूध तो मिल ही जाता था। यहां यह भी तय नहीं था। तिस पर मार पीट आए दिन की बात हो गई थी। अंततः हार कर सुनीता के पिता ने बाल पुष्टाहार में एक लिंक खोजा और दस हज़ार रुपए की रिश्वत दे कर बेटी को उस के गांव में आंगनवाड़ी की कार्यकर्त्री बनवा दिया।
रोटी दाल चलने लगी। बस दिक्क़त यही हुई कि सुनीता को शहर छोड़ कर गांव में आ कर रहना पड़ा। पर भूख और लाचारी की क़ीमत पर शहर में रहने का कोई मतलब नहीं था। लेकिन सुनीता के पति ने यहां आंगनवाड़ी में भी उसे चैन से रहने नहीं दिया। आंगनवाड़ी की दलिया बिस्कुट बेच कर शराब पीना शुरू कर दिया। सुनीता ने विरोध किया तो उस ने आंगनवाड़ी कार्यालय में उस की लिखित शिकायत कर दी। कि वह निर्बल आय वर्ग की नहीं है। मैं बी ग्रेड का ठेकेदार हूं। घर में खेती बारी है आदि-आदि। सो सुनीता को आंगनवाड़ी से बर्खास्त कर दिया जाए। सुनीता को नोटिस मिल गई कि क्यों न उस की सेवाएं समाप्त कर दी जाएं! वह भागी-भागी पिता के पास पहुंची। पिता ने जिस आदमी को दस हज़ार रुपए दे कर सुनीता को आंगनवाड़ी में भर्ती करवाया था उसी आदमी को पकड़ा। उस ने दो हज़ार रुपए और ले कर मामला रफ़ा-दफ़ा करवाया।
अब सुनीता का पति कहने लगा कि, ‘तुम्हारे आंगनवाड़ी में काम करने से हमारी बेइज़्ज़ती हो रही है। या तो आंगनबाड़ी छोड़ दो या मुझे छोड़ दो।’
सुनीता घबरा गई। किसी ने उसे मुनमुन से मिलने की सलाह दी। सुनीता बांसगांव आ कर मुनमुन से मिली। सारा वाक़या बताया। और पूछा कि, ‘क्या करूं? इधर खंदक, उधर खाई? पति छोडूं कि आंगनवाड़ी?’
‘खाना कौन दे रहा है?’ मुनमुन ने पूछा, ‘पति कि आंगनवाडी?’
‘आंगनवाड़ी!’
‘तो पति को छोड़ दो।’ मुनमुन बोली, ‘जो पति अपनी पत्नी को प्यार और परिवार का भरण पोषण करने के बजाय उस पर बोझ बन जाए, उलटे मारपीट और उत्पीड़न करे, ऐसे पति का यही इलाज है। ऐसे पति को कह दो कि बातों-बातों में बोए बावन बीघा पुदीना और खाए उस की चटनी। हमें नहीं खानी यह चटनी!’ मुनमुन ने सुनीता को रघुवीर सहाय की एक कविता भी सुनाई, ‘पढ़िए गीता/बनिए सीता/फिर इन सब में लगा पलीता/किसी मूर्ख की हो परिणीता/निज घर-बार बसाइए।’ कविता सुना कर बोली, ‘हमें ऐसा घर बार नहीं बसाना, नहीं बनना ऐसी सीता, ऐसी गीता पढ़ कर। समझी मेरी बहन सुनीता।’
‘हूं।’ कह कर सुनीता जैसे संतुष्ट और निश्चिंत हो गई। फिर मुनमुन ने सुनीता को अपनी कथा सुनाई और कहा, ‘तुम्हारे पास तो दो बेटियां हैं, इन के सहारे जी लोगी। मेरे पास तो मेरे वृद्ध माता पिता हैं, जो मेरे सहारे जीते हैं। सोचो भला कि मैं किस के सहारे जियूंगी?’ कह कर मुनमुन उदास हो गई।
‘हम हैं मुनमुन दीदी आप के साथ!’ कह कर सुनीता रो पड़ी। और मुनमुन से लिपट गई। पर मुनमुन नहीं रोई। यह सुनीता ने भी ग़ौर किया। मुनमुन समझ गई। सुनीता से बोली, ‘तुम सोच रही होगी कि अपनी विपदा कथा बता कर मैं रोई क्यों नहीं? है न?’ सुनीता ने जब स्वीकृति में सिर हिलाया तो मुनमुन बोली, ‘पहले मैं भी बात-बेबात रोती थी। बहुत रोती थी। पर समय ने पत्थर बना दिया। अब मैं नहीं रोती। रोने से औरत कमज़ोर हो जाती है। और यह समाज कमज़ोरों को लात मारता है। सो मैं नहीं रोती। तुम भी मत रोया करो। कमज़ोर औरत को लात मारने वाले समाज को उलटे लतियाया करो। सब ठीक हो जाएगा!’
लेकिन सुनीता फिर रो पड़ी। बोली, ‘कैसे सब ठीक हो जाएगा भला?’
‘हो जाएगा, हो जाएगा। मत रोओ।’ मुनमुन बोली, ‘भरोसा रखो अपने आप पर। और यह सोचो कि तुम अब अबला नहीं हो। क्यों कि ख़ुद कमाती हो, ख़ुद खाती हो। अपने बारे में ऐसे सोच कर देखो तो सब ठीक हो जाएगा।’
‘जी दीदी!’ कह कर सुनीता मुसकुराई और मुनमुन से विदा मांग कर चली गई बांसगांव से अपने गांव। और फिर सुनीता ही क्यों? रमावती, उर्मिला, शीला और विद्यावती जैसी जाने कितनी महिलाएं मुनमुन से जुड़ती जा रही थीं। और मुनमुन सब को सबला बनने का पाठ पढ़ा रही थी। वह बता रही थी कि, ‘अबला बनी रहोगी तो पिटोगी और अपमानित होगी। ख़ुद कमाओ, ख़ुद खाओ। तो सबला बनोगी, पिटोगी नहीं, अपमानित नहीं होओगी। स्वाभिमान से रहोगी।’
मुनमुन शिलांग जैसी जगहों का हवाला देती। बताती कि वहां मातृ सत्तात्मक समाज है, मातृ प्रधान समाज है। प्रापर्टी औरतों के नाम रहती है, पुरुषों के नाम नहीं। जितना पुरुषों से यहां औरतें कांपती हैं, उस से ज़्यादा वहां शिलांग में औरतों से पुरुष कांपते हैं। जानती हो क्यों?’ वह साथी औरतों से पूछती। और जब वह न जानने के लिए सिर हिला कर नहीं बतातीं तो मुनमुन उन्हें बताती, ‘क्यों कि वहां सारी शक्ति, जायदाद औरतों के हाथ है। इतना कि शादी के बाद वहां औरत पुरुष के घर नहीं, पुरुष औरत के घर जा कर रहता है। बड़े-बड़े आई.ए.एस. अफ़सरों तक को बीवी के घर जा कर रहना पड़ता है और दब के रहना पड़ता है। क्यों कि वहां औरत सबला है।’ वह बताती कि, ‘हैं तो वहां ज़्यादातर क्रिश्चियन लेकिन वह सब मूल रूप से दरअसल आदिवासी लोग हैं। तो जब दबी कुचली आदिवासी औरतें सबला बन सकती हैं तो यहां हम लोग क्यों नहीं बन सकतीं?’ मुनमुन बताती कि, ‘ऐसा ही थाईलैंड में भी है। वहां भी औरतें मर्दों को कुत्ता बना कर रखती हैं। वहां भी मातृ सत्तात्मक परिवार और समाज है। औरतें वहां भी सबला हैं।’
‘क्या आप शिलांग और थाईलैंड गई थीं मुनमुन दीदी?’
‘नहीं तो!’
‘तो फिर कैसे जानती हैं?’
‘तुम लोग दिल्ली के बारे में जानती हो?’
‘हां, थोड़ा-बहुत!’
‘तो क्या दिल्ली गई हो?’ मुनमुन बोली, ‘नहीं न? अरे कहीं के बारे में जानने के लिए वहां जाना ज़रूरी है क्या? पढ़ कर, सुन कर भी जाना जा सकता है। मैं ने इन दोनों जगहों के बारे में पढ़ कर ही जाना है।’ वह बोली, ‘मैं तो चंद्रमा पर भी नहीं गई और अमरीका भी नहीं गई। तो क्या वहां के बारे में जानती भी नहीं क्या?’ उस ने पूछा और ख़ुद ही जवाब भी दिया, ‘पर जानती हूं। पढ़ कर, टी.वी. देख कर।’
मुनमुन की छवि अब धीरे-धीरे मर्द विरोधी होती जा रही थी। तो क्या वह अपने पति, ससुर और भाइयों से एक साथ प्रतिशोध ले रही थी? यह एक बड़ा सवाल था। बांसगांव की हवा में। बांसगांव की सड़कों और समाज में। हालां कि वह साथी औरतों से कहती, ‘जैसे पुरुष औरत को ग़ुलाम बना कर, अत्याचार और सता कर रखे तो यह ठीक नहीं है, ठीक वैसे ही औरत भी पुरुष को या पति को कुत्ता बना कर रखे यह भी ठीक नहीं है।’ वह जैसे जोड़ती, ‘हमारे संविधान ने स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया है, हमें वही बराबरी चाहिए। वही सम्मान और वही स्वाभिमान चाहिए जो किसी भी सभ्य समाज में होना चाहिए।’
तो क्या मुनमुन राय अब राजनीति का रुख़ कर रही थी? बांसगांव की सड़कें एक दूसरे से यह पूछ रही थीं। मुनमुन राय की लोकप्रियता का ग्राफ़ मजबूर कर रहा था लोगों को यह सोचने के लिए। लेकिन एक औरत एक रोज़ मुनमुन से कह रही थी, ‘क्या बताएं मुनमुन बहिनी ये बांसगांव की विधानसभा और संसद की दोनों ही सीटें अगर सुरक्षित सीट नहीं होतीं तो तुम को यहां से निर्दलीय चुनाव लड़वा देते। और तुम जीत भी जाती।’
‘अरे क्या कह रही हो चाची एक घर तो चला नहीं पा रही राजनीति क्या ख़ाक करूंगी?’ मुनमुन बोली, ‘इस बांसगांव में तो रह नहीं पा रही। तो राजनीति तो वैसे भी काजल की कोठरी है। मर्द लोग उसे वेश्या भी जब तब कहते ही रहते हैं।’
‘मर्द तो हमेशा के हरामी हाते हैं।’ औरत बोली, ‘उन की बात पर क्या ग़ौर करना?’
‘ऐसा?’ मुनमुन बोली, ‘क्या तुम भी मर्दों की सताई हुई हो चाची? दिखती तो बड़ी सुखी और संतुष्ट हो?’
‘विधाता ने औरतों को शायद सुखी और संतुष्ट रहने के लिए इस समाज में भेजा ही नहीं।’ वह औरत बोली, ‘सब बाहरी दिखावा है। नहीं कौन औरत सुखी और संतुष्ट है यहां?’
‘ये तो है चाची!’ मुनमुन बोली, ‘उपेक्षा और अपमान जब घर में ही लोग देने लगें तो बाहर वालों की क्या कहें? मेरी कहानी तो तुम से क्या किसी से छुपी नहीं है। पर वीना शाही का क्या करें?’
‘क्या हुआ वीना को? उस का भाई तो पुलिस में बड़ा अफ़सर है।’
‘हां, है तो! आजकल कहीं एस.पी. है। पर बहन को नहीं पूछता। इकलौती बहन है। पति ने मार पीट कर दो बच्चों सहित छोड़ दिया है। तलाक़ का मुक़दमा लड़ रही है। बच्चे तक बाप से डरे हुए हैं वीना के। बाप की चर्चा चलते ही बच्चे रोने लगते हैं- पापा के पास नहीं जाना। बहुत मारते हैं। बेटी बच्चों को ले कर मेरी तरह मां बाप की छाती पर बैठी हुई है। इंगलिश मीडियम की पढ़ी बेचारी वीना कहीं की नहीं रही।’ मुनमुन हताश होती हुई बोली, ‘लगता है बांसगांव अब धीरे-धीरे दबंगों की नहीं पियक्कड़ों और परित्यकताओं की तहसील बनती जा रही है।’
जो हो मुनमुन राय अब न सिर्फ़ बांसगांव बल्कि बांसगांव के आस-पास की परित्यक्ताओं, सताई और ज़ुल्म की मारी औरतों का सहारा बनती जा रही थी। एक तरह से धुरी। इस में अधेड़ वृद्ध, जवान हर तरह की औरतें थीं। कोई पति की सताई, तो कोई पिता की। तो कोई बेटों की सताई हुई। ज़्यादातर मध्य वर्ग या निम्न मध्य वर्ग की। मुनमुन कहती भी कि हमारे समाज में शोहदों, पियक्कड़ों, अवैध संबंधों और परित्यक्ताओं का जो बढ़ता अनुपात है और वह लगातार घना हो रहा है। इस पर जाने क्यों किसी समाजशास्त्री की नज़र नहीं जा रही। नज़र जानी चाहिए और इस के कारणों का पता लगा कर इस का कोई निदान भी ज़रूर ढूंढा जाना चाहिए।
एक दिन सुबह-सुबह सुनीता का पति मुनमुन के घर आया। आते ही तू-तड़ाक से बात शुरू की। कहने लगा, ‘तुम मेरी बीवी को भड़काना बंद कर दो। नहीं एक दिन चेहरे पर तेज़ाब फेंक दूंगा। भूल जाओगी नेतागिरी करना।’
शुरू में तो मुनमुन चुपचाप सुनती रही। पर जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा तो बोली, ‘ज़्यादा हेकड़ी दिखाओगे तो अभी पुलिस बुला कर जेल की हवा खिला दूंगी। सारी हेकड़ी निकल जाएगी।’
सुनीता का पति फिर भी बड़बड़ाता रहा। तो मुनमुन बोली, ‘तुम शायद मुझे ठीक से जानते नहीं। मेरे भाई सब जज हैं, बड़े अफ़सर हैं।’ उस ने मोबाइल उठाते हुए कहा, ‘अभी एक फ़ोन पर पुलिस यहां आ जाएगी। फिर तुम्हारा क्या हाल होगा, सोच लो। और फिर मैं ने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं बाक़ी औरतों की तरह!’ मुनमुन यह सब बोली और इतने सर्द ढंग से बोली कि सुनीता के पति की अक्की-बक्की बंद हो गई। वह जाने लगा तो मुनमुन ने उसे फिर डपटा, ‘और जो घर जा कर सुनीता को कुछ कहा या हाथ लगाया तो पुलिस तुम्हारे घर भी पहुंच सकती है, इतना जान लो।’
सुनीता का पति उसे घूरता, तरेरता चला गया। मुनक्का राय तब घर पर ही थे। सुनीता के पति के चले जाने के बाद वह मुनमुन से बोले, ‘बेटी क्या अपनी विपत्ति कम थी जो दूसरों की विपत्ति भी अपने सिर उठा रही हो?’
‘क्या बाबू जी आप भी!’
‘नहीं बेटी तुम समझ नहीं पा रही हो कि तुम क्या कर रही हो?’ मुनक्का राय बोले, ‘तुम बांसगांव को बदनामी की किस हद तक ले गई हो तुम्हें अभी इस की ख़बर नहीं है।’
‘क्या कह रहे हैं बाबू जी आप?’ मुनमुन चकित होती हुई बोली, ‘क्या बांसगांव के बाबू साहब लोग मर गए हैं क्या जो मैं बांसगांव को बदनाम करने लग गई?’
‘अरे नहीं बेटी बाबू साहब लोगों की दबंगई से वह नुक़सान नहीं हुआ जो तुम्हारी वजह से हो रहा है।’
‘क्या?’ मुनमुन अवाक रह गई।
‘हां, लोग अकसर हमें कचहरी में बताते रहते हैं कि तुम्हारी वजह से बांसगांव की लड़कियों की शादी कहीं नहीं तय हो पा रही। लोग बांसगांव का नाम सुनते ही बिदक जाते हैं। कहते हैं लोग अरे वहां की लड़कियां तो मुनमुन जैसी गुंडी होती हैं। अपने मर्द को पीटती हैं। उन से कौन शादी करेगा? लोग कहते हैं कि बांसगांव की लड़कियों के नाम से चनाजोर गरम बिकता है। ऐसी लड़कियों से शादी नहीं हो सकती।’
‘क्या कह रहे हैं बाबू जी आप?’
‘बेटी जो सुन रहा हूं वही बता रहा हूं।’ मुनक्का राय बोले, ‘बंद कर दो अब यह सब। तुम कंपटीशन की तैयारी करने वाली थी, वही करो। कुछ नहीं धरा-वरा इन बेवक़ूफ़ी की चीज़ों में। फिर तुम्हारे सामने तुम्हारी लंबी ज़िंदगी पड़ी है।’
‘कंपटीशन की तैयारी तो बाबू जी मैं कर ही रही हूं।’ मुनमुन बोली, ‘पर जो मैं कर रही हूं वह बेवक़ूफ़ी है, यह आप कह रहे हैं बाबू जी!’
‘हां, मैं कह रहा हूं।’ मुनक्का राय बोले, ‘यह बग़ावत, यह आदर्श सब किताबी और फ़िल्मी बातें हैं, वहीं अच्छी लगती हैं। असल जिंदगी में नहीं।’
‘क्या बाबू जी!’
‘ठीक ही तो कह रहा हूं।’ मुनक्का राय उखड़ कर बोले, ‘तुम्हारी बग़ावत के चलते तुम्हारे सारे भाई घर से बिदक गए। इस बुढ़ापे में बिना बेटों का कर दिया हमें तुम ने और तुम्हारी बग़ावत ने। हक़ीक़त तो यह है।’ वह ज़रा रुके और बोले, ‘हक़ीक़त तो यह है कि तुम्हारे चलते इस बुढ़ापे में भी संघर्ष करना पड़ रहा है। साबुन, तेल, दवाई तक के लिए तड़पना पड़ रहा है। लायक़ बेटों का बाप हो कर भी अभावों और असुविधा में जीना पड़ रहा है। तो सिर्फ़ तुम्हारी बग़ावत के चलते। तुम्हारी बग़ावत को समर्थन देने के चक्कर में।’
‘तो बाबू जी आप क्या चाहते हैं। कसाइयों के आगे घुटने टेक दूं? बढ़ा दूं अपनी गरदन उन के आगे कि लो मेरी बलि चढ़ा लो?’ मुनमुन बोली, ‘बोलिए बाबू जी, आप अगर यही चाहते हैं तो?’
मुनक्का राय कुछ बोले नहीं। चारपाई पर चद्दर ओढ़ कर लेट गए। मुनमुन बाबू जी के पैताने जा कर खड़ी हो गई। बोली, ‘ज़ाहिर है आप ऐसा नहीं चाहते। और मैं ऐसा करूंगी भी नहीं। आप चाहेंगे तो भी नहीं। मैं भले मर जाऊं इस तरह। पर हथियार डाल कर नहीं, लड़ते हुए मरना चाहूंगी। सारे कसाइयों को मार कर मरूंगी।’ अचानक वह रुकी फिर बोली, ‘और मरूंगी भी क्यों? मरें मेरे दुश्मन। मैं तो शान से जिऊंगी। जिस को जो कहना सुनना हो कहे सुने।’
फिर तैयार हो कर बाबू जी को सोता छोड़ वह स्कूल जाने के लिए बस स्टैंड पर आ गई। उधर सुनीता का पति घर जा कर सुनीता से तो कुछ नहीं बोला। पर शहर जा कर बेसिक शिक्षा अधिकारी के यहां मुनमुन की लिखित शिकायत कर आया। शिकायत में लिखा कि मुनमुन शिक्षामित्र की नौकरी करने के बजाय नेतागिरी कर रही है। और इस नेतागिरी की आड़ में तमाम औरतों को भड़का-भड़का कर उन के परिवार में विद्रोह करवा कर परिवार तोड़ रही है। नज़ीर के तौर पर उस ने अपना ही हवाला दिया था और लिखा था कि मुनमुन राय के हस्तक्षेप के चलते उस की बीवी भी नेता बनने की कोशिश कर रही है और मेरा घर टूट रहा है। उस ने यह भी लिखा था कि जिस औरत के नाम से चनाजोर गरम बिकेगा वह अपने स्कूल में भी क्या पढ़ाएगी? नेतागिरी ही करेगी। इस से बच्चों का भविष्य ख़राब होगा।
उस ने अपने लंबे से शिकायती पत्र के अंत में यह भी ख़ुलासा किया था कि इसी नेतागिरी के चक्कर में मुनमुन ने अपना परिवार भी तोड़ दिया है और कि अपने पति का घर छोड़ कर अपने बाप के घर रह रही है। यहां तक कि अपने गांव में रहने के बजाय बांसगांव में रहती है। स्कूल जाने की बजाय क्षेत्र की औरतों को भड़का कर नेतागिरी कर रही है। सो इस पूरे प्रकरण की उच्च स्तरीय जांच करवा कर मुनमुन राय को शिक्षामित्र की नौकरी से तत्काल बर्खास्त करने की अपील भी की थी सुनीता के पति ने। उस ने शिकायती पत्र में यह बात भी जोड़ी थी कि मुनमुन राय अपने भाइयों के ऊंचे ओहदों पर बैठे होने की भी सब को धौंस देती रहती है कि मेरे भाई जज और कलक्टर हैं। वग़ैरह-वग़ैरह। और यह भी कि वह एक नंबर की चरित्रहीन भी है। बाप वकील है। इस लिए उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाता। लेकिन अगर शिक्षा विभाग ने उस की हरकतों पर अंकुश नहीं लगाया तो बांसगांव इलाक़े के समाज में किसी दिन ऐसा भूकंप आएगा कि संभाले नहीं संभलेगा।
सुनीता के पति के इस शिकायती पत्र ने रंग दिखाया और बेसिक शिक्षा अधिकारी ने ख़ुद ही इस प्रकरण की जांच करने की सोची। चूंकि मुनमुन राय शिक्षामित्र थी, नियमित शिक्षिका नहीं थी सो कोई नोटिस देने के बजाय उस ने पी.ए. से फ़ोन करवा कर मुनमुन राय को मिलने के लिए बुलवाया। मुनमुन गई तो बेसिक शिक्षा अधिकारी ने उसे एक घंटा बाहर ही बैठाए रखा। फिर बुलवाया। तब तक मुनमुन इंतज़ार में बैठे-बैठे पक चुकी थी। दूसरे घर से खाना खा कर नहीं गई थी। सो भूख भी ज़ोर मार रही थी। वह अंदर जा कर खड़ी हो गई। और बोली, ‘सर!’
‘तो तुम्हीं मुनमुन राय हो?’
‘हूं तो!’
‘गांव में रहने के बजाय बांसगांव में रहती हो?’
‘जी सर, गांव वाला घर गिर गया है। बांसगांव में माता-पिता जी के साथ रहती हूं।’
‘शादी हो गई है?
‘जी सर!’ वह ज़रा रुकी और धीरे से बोली, ‘पर टूट चुकी है।’
‘क्यों?’
‘सर! यह हमारा व्यक्तिगत मामला है। आप इस बारे में कुछ न ही पूछें तो उचित होगा।’
‘अच्छा?’ बेसिक शिक्षा अधिकारी ने उसे तरेरते हुए पूछा, ‘तुम्हारा व्यक्तिगत व्यक्तिगत है, और किसी दूसरे का व्यक्तिगत व्यक्तिगत नहीं हो सकता है?’
‘सर मैं समझी नहीं।’ मुनमुन बोली, ‘ज़रा इस बात को स्पष्ट कर के बता दें!’
‘तुम्हारे खि़लाफ शिकायत आई है कि तुम स्कूल में पढ़ाने के बजाय नेतागिरी करती हो। क्षेत्र की औरतों को भड़का कर उन का परिवार तोड़ती हो! अपनी नेतागिरी चमकाती हो!’
‘जिस भी किसी ने यह शिकायत की है सर, ग़लत की है। स्कूल मैं नियमित जाती हूं। हस्ताक्षर पंजिका मंगवा कर आप देख सकते हैं। विद्यार्थियों से, गांव वालों से और स्टाफ़ से दरिया़त कर सकते हैं। मैं नियमित और समय से स्कूल जाती हूं। और कि कहीं कोई नेतागिरी नहीं करती हूं। किसी का परिवार नहीं तोड़ा है। अगर कोई ऐसा कहता है तो उसे पेश किया जाए।’ मुनमुन राय पूरी सख़्ती से बोली।
‘सुना है तुम्हारे नाम से चनाजोर गरम बिकता है।’
‘मैं यह व्यवसाय नहीं करती सर!’
‘जो बात पूछी जाए उस का सीधा जवाब दो!’
‘किस बात का सीधा जवाब दूं?’
‘यही कि तुम्हारे नाम से चनाजोर गरम बिकता है?’
‘मैं ने आप को पहले ही बताया कि यह या ऐसा कोई व्यवसाय मैं नहीं करती!’ मुनमुन ज़रा रुकी और बेसिक शिक्षा अधिकारी को तरेर कर देखती हुई बोली, ‘अगर आप इजाज़त दें तो मैं बैठ जाऊं? बैठ कर आप के सवालों का जवाब दूं?
‘हां, हां बैठ जाओ!’
‘थैंक यू सर!’ कह कर मुनमुन बैठ गई। उस के बैठते ही बेसिक शिक्षा अधिकारी के फ़ोन पर किसी का फ़ोन आ गया। वह फ़ोन पर बतियाने लगा। इधर मुनमुन पशोपेश में थी कि आखि़र किस ने उस की शिकायत की होगी? कहीं भइया लोगों में से ही तो किसी ने शिकायत नहीं कर दी उस की? यही सोच कर वह शुरू से ही मारे संकोच के भइया लोगों का नाम भी नहीं ले रही थी। फ़ोन पर बेसिक शिक्षा अधिकारी की बातचीत संक्षिप्त ही थी। बात ख़त्म करते ही उस ने मुनमुन की ओर बिलकुल पुलिसिया अंदाज़ में देखा जैसे कि मुनमुन कितनी बड़ी चोर हो और कि उस की पकड़ में आ गई हो। देखते हुए ही वह बोला, ‘तो?’
‘जी?’ मुनमुन बोली, ‘क्या?’
‘तो तुम्हें इस शिकायत का क्या दंड दिया जाए?’
‘किस शिकायत का?’
‘जो मेरे पास आई है!’
‘मुझे मालूम तो पड़े कि मेरे खि़लाफ शिकायत क्या है? शिकायतकर्ता कौन है?’ वह बोली, ‘फिर जो आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो जो भी विधि सम्मत कार्रवाई हो आप करने के लिए स्वतंत्र हैं।’
‘क़ानून मत छांटो!’ बेसिक शिक्षा अधिकारी गुरेरते हुए बोला, ‘जानता हूं कि वकील की बेटी हो।’
‘वकील की बेटी ही नहीं, न्यायाधीश की बहन भी हूं। मेरे एक भाई प्रशासन में भी हैं।’ मुनमुन अब पूरे फ़ार्म पर आ गई, ‘आप अंधेरे में तीर चला कर कार्रवाई करना चाहते हैं तो बेशक करिए।’ वह ज़रा रुकी और बेसिक शिक्षा अधिकारी को उसी की तरह तरेरती हुई अपना हाथ दिखाती हुई बोली, ‘यह देखिए कि मैं ने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं।’
‘अरे तुम तो सिर पर चढ़ती जा रही हो?’
‘सिर पर नहीं चढ़ रही, साफ़ बात कर रही हूं।’ वह बोली, ‘मेरे खि़लाफ जो भी शिकायत हो मुझे लिखित रूप में दे दीजिए। मैं लिखित जवाब दे दूंगी। फिर आप को जो कार्रवाई करनी हो कर लीजिएगा।’
‘तो अपने भाइयों का धौंस दे रही हो?’
‘जी नहीं सर!’ वह बोली, ‘मैं ने अपने भाइयों का ज़िक्र किया। वह भी तब जब आप ने मुझे वकील की बेटी कहा। तो मैं ने प्रतिवाद में यह कहा।’
‘अच्छा-अच्छा!’ बेसिक शिक्षा अधिकारी नरम पड़ता हुआ बोला, ‘जब तुम्हारे भाई लोग उच्च पदों पर आसीन हैं तो तुम शिक्षामित्र की नौकरी क्यों कर रही हो?’
‘इस लिए कि मैं स्वाभिमानी हूं।’ वह ज़रा रुकी और बोली, ‘आप तो शिक्षामित्र की नौकरी को ऐसे उद्धृत कर रहे हैं जैसे शिक्षामित्र न हो चोर हो।’
‘नहीं-नहीं ऐसी बात तो नहीं कही मैं ने।’ वह अब बचाव में आ गया।
‘सर, आप को बताऊं कि मेरे एक भइया बैंक में मैनेजर हैं और एक एन.आर.आई भी हैं तो भी मैं शिक्षामित्र की नौकरी कर रही हूं। और यह कोई आखि़री नौकरी नहीं है।’ वह ज़रा रुकी और बोली, ‘मैं कंपटीशंसन की तैयारी कर रही हूं। जल्दी ही किसी अच्छी जगह भी आप को दिख सकती हूं।’
‘यह तो बहुत अच्छी बात है।’ अधिकारी बोला, ‘तो फिर बेवजह के कामों में क्यों लगी पड़ी हो?’ अधिकारी का सुर अब पूरी तरह बदल गया था। सुनीता के पति का शिकायती पत्र दिखाता हुआ वह बोला, ‘कि ऐसी शिकायतों की नौबत आए!’
‘यह शिकायती पत्र मैं भी देख सकती हूं सर!’
‘हां-हां क्यों नहीं?’ कह कर उस ने वह शिकायती पत्र मुनमुन की तरफ़ बढ़ा दिया।
मुनमुन ने बड़े ध्यान से वह पत्र देखा फिर पढ़ने लगी। पढ़ कर बोली, ‘आप भी सर, इस पियक्कड़ की बातों में आ गए?’
‘नहीं आरोप तो है!’
‘ख़ाक आरोप है।’ वह बोली, ‘एक आदमी आपनी बीवी की कमाई से शराब पी कर उस की पिटाई करता है। बीवी उस पर लगाम लगाती है तो वह ऊल जलूल शिकायत करता है। और हैरत यह कि आप जैसे अफ़सर उस की शिकायत सुन भी लेते हैं!’
‘अब कोई शिकायत आएगी तो सुननी तो पड़ेगी।’
‘तो सर सुनिए!’ वह बोली, ‘एक तो यह शिकायत मेरे शिक्षण कार्य के बाबत नहीं है। शिक्षाणेतर कार्यों के लिए है। और आप को बताऊं कि मैं शिक्षामित्र हूं। और किसी शिक्षक का काम सिर्फ़ उस के स्कूल तक ही सीमित नहीं होता। समाज के प्रति भी उस का कुछ दायित्व होता है। और मैं इस दायित्व को भी निभा रही हूं। अपनी सताई हुई बहनों को स्वाभिमान और सुरक्षा का स्वर दे रही हूं कि वह अन्याय बर्दाश्त करने के बजाय उस का प्रतिकार करें, डट कर मुक़ाबला करें और पूरी ताक़त से उस का विरोध करें। और इस के लिए एक नहीं हज़ार शिकायतें आएं मैं रुकने वाली नहीं हूं।’
बेसिक शिक्षा अधिकारी हकबक हो कर मुनमुन को देखने लगा।
‘और सर, आप जो यह चाहते हैं कि मैं स्कूल में बच्चों को मिड डे मील के पकाने और बंटवाने में ज़िंदगी ज़ाया करूं तो क्षमा कीजिए यह नहीं करने वाली।’ वह बोलती रही, ‘अब तो अख़बारों में भी स्कूलों में बंटने वाले मिड डे मील के बारे में ही ख़बरें छपती हैं। कि मिड डे मील घटिया था। कि मिड डे मील किसी दलित महिला के बनाने से सवर्ण बच्चों ने नहीं खाया वग़ैरह-वग़ैरह। यह ख़बर नहीं छपती कि अब इन स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं। कि इन स्कूलों में अब पढ़ाई नहीं होती। कि इन स्कूलों में छात्र ही नहीं हैं। कि इन स्कूलों में पंद्रह-बीस बच्चों को मिड डे मील खिला कर सौ-दो सौ बच्चों को मिड डे मील खिलाना काग़ज़ों में दर्ज हो जाता है। कि शिक्षा विभाग और प्रशासन के अधिकारी स्कलों में यह जांच करने आते हैं कि मिड डे मील का वितरण ठीक से हो रहा है कि नहीं। और इस में उन का हिस्सा उन को ठीक से पहुंच रहा है कि नहीं? अधिकारी भूल कर भी यह नहीं जांचने आते कि इन स्कूलों में पठन-पाठन का स्तर क्या है और कि इस की बेहतरी में उन का क्या योगदान हो सकता है?’
‘अरे तुम तो पूरा भाषण ही देने लग गई। वह भी मेरे ही खि़लाफ़। मेरे ही चैंबर में।’ बेसिक शिक्षा अधिकारी खिन्न हो कर बोला।
‘भाषण नहीं दे रही सर, आप को वास्तविकता बता रही हूं। कि प्राथमिक स्कूलों में अब दो ही काम रह गया है कि मिड डे मील पकवाओ और स्कूल की बिल्डिंग बनवाओ! मतलब येन केन प्रकारेण धन कमाओ! बताइए भला शिक्षक का काम है स्कूल बिल्डिंग बनवाना या इंजीनियर का? यह तो शासन प्रशासन को सोचना समझना चाहिए?’ वह बोली, ‘ट्रांसफ़र पोस्टिंग का धंधा तो आप भी जानते होंगे? सर आप ही बताइए हम अपने नौनिहालों को कौन सी शिक्षा दे रहे हैं?’
‘तुम तो बोले ही जा रही हो!’
‘हां सर, बोल तो रही हूं।’ वह बोली, ‘आप ने वह पुराना गाना तो सुना ही होगा कि इंसाफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के, यह देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के!’
‘ओह अब तुम जाओ!’
‘जा रही हूं सर, पर सोचिएगा कभी और पूछिएगा अपने आप से अकेले में कभी कि इस गाने का हम ने आप ने, हमारे समाज और सिस्टम ने क्या कर डाला? सोचिएगा ज़रूर सर!’ कह कर मुनमुन राय बेसिक शिक्षा अधिकारी के कमरे से बाहर निकल गई।
‘आप ने भी सर, किस को बुला लिया था? पूरा का पूरा बर्रइया का छत्ता है यह। चनाजोर गरम इस के नाम से ऐसे ही थोड़े बिकता है।’ बड़े बाबू कुछ फ़ाइलें लिए बेसिक शिक्षा अधिकारी के कमरे में घुसते हुए बोले।
‘हां, पर बात कुछ बहुत ग़लत कह भी नहीं रही थी।’ बेसिक शिक्षा अधिकारी बोले, ‘बड़े बाबू ध्यान रखिएगा यह लड़की कभी बहुत आगे निकल जाएगी!’
‘सो तो है साहब!’
‘हां, यह शिक्षामित्र ज़्यादा दिनों तक नहीं रहने वाली।’ अधिकारी बोले, ‘इतनी निडर लड़की मैं ने पहले नहीं देखी। सोचिए बड़े बाबू कि उस को जांच के लिए बुलाया था, उस की नौकरी जा सकती थी पर वह तो हमीं को लेक्चर पिला गई।’
‘अरे तो अनुशासनहीनता के आरोप में ससुरी की छुट्टी कर दीजिए। भूल जाएगी सारी नेतागिरी!’
‘अरे नहीं, भाई सब इस के उच्च पदों पर हैं। कहीं लेने के देने न पड़ जाएं। चनाजोर गरम वैसे ही बिकवा रही है, हम सब को भी बिकवा देगी।’
‘हां, साहब सब इस को बांसगांव की मरदानी-रानी भी कहते हैं।’
‘तो?’ बेसिक शिक्षा अधिकारी बोला, ‘जाने दो। जो वह कर रही है उसे करने दो।’
‘जी साहब!’
मुनमुन भी बेसिक शिक्षा अधिकारी के कार्यालय से निकल कर बस स्टैंड आई। बस पकड़ कर बांसगांव आ गई। घर पहुंची तो पास के गांव के एक बाप बेटी आए हुए थे। बेटी को उस के पति ने शादी के ह़फ्ते भर में ही उस से किनारा कर लिया और मार पीट, हाय तौबा कर के छह महीने में ही घर से बाहर कर दिया था। उस का क़सूर सिर्फ़ इतना ही था कि उस के बाएं हाथ की दो अंगुलियां कटी हुईं थीं। बचपन में ही चलती चारा मशीन में खेल-खेल में हाथ डालने से अंगुलियां कट गई थीं।
‘तो शादी के पहले ही यह बात लड़के वालों को बता देनी थी।’ मुनमुन लड़की का हाथ अपने हाथ में ले कर उस की अंगुलियां देखती हुई बोली, ‘यह कोई छुपाने वाली बात तो थी नहीं।’
‘छुपाए भी नहीं थे।’ लड़की का पिता बोला, ‘शादी के पहले ही बता दिया था।’
‘तब क्यों छोड़ दिया?’
‘अब यही तो समझ में नहीं आ रहा।’ लड़की का पिता बोला, ‘अब वो लोग कह रहे हैं कि शादी के पहले अंधेरे में रखा।’
‘तो अब क्या इरादा है?’
‘यही तो बहिनी आप से पूछने आए हैं कि क्या करें?’
‘जो लोग शादी में मध्यस्थता किए थे, उन को बीच में डालिए। कुछ रिश्तेदारों को बीच में डालिए। समझाएं लोग उन सब को। शायद मान जाएं।’
‘यह सब कर के हार गए हैं।’ लड़की का पिता बोला, ‘हम यह भी कहे कि हम लोग ब्राह्मण हैं, लड़की की दूसरी शादी भी नहीं कर सकते। लड़के और लड़के के बाप के पैरों पर अपना सिर रख कर प्रार्थना की। पर सब बेकार गया।’ कह कर वह बिलखने लगा।
‘तो अब?’
‘हमारी तो कुछ अक़ल काम नहीं कर रही बहिनी! तो अब आप की शरण में आ गए हैं।’
‘फिर तो थाना पुलिस, कचहरी वकील करना पड़ेगा। बोलिए तैयार हैं?’
‘ई सब के बिना काम नहीं चलेगा?’ वह जैसे घिघियाया।
‘देखिए जिस की आंख का पानी मर जाए, समाज की शर्म को जो पी जाए, घर परिवार और रिश्तों की मर्यादा जो भूल जाए, ऐसी फूल सी लड़की के साथ जो कांटों सा अमानवीय व्यवहार करे उस के साथ क़ानून का डंडा चलाने में गुरेज़ करना, अपने साथ छल करना है, आत्मघात करना है।’
‘फिर भी वह लोग इसे न रखें तब?’
‘वहां रखने की इसे अब कोई ज़रूरत भी नहीं है।’ मुनमुन बोली, ‘उन सब को सबक़ सिखाइए और इस की दूसरी शादी की तैयारी करिए।’
‘दूसरी शादी?’ पिता की घिघ्घी बंध गई। उस ने फिर दुहराया, ‘हम लोग ब्राह्मण हैं।’ वह ज़रा रुका और फिर बुदबुदाया, ‘कौन करेगा शादी? और फिर लोग-बाग क्या कहेंगे?’
जारी…
अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एमए करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। 33 साल हो गए हैं पत्राकारिता करते हुए। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नहीं पर प्रेमचंद सम्मान तथा कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), प्रतिनिधि कहानियां, फेसबुक में फंसे चेहरे, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से प्रकाशित। दयानंद से संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है. इस उपन्यास के पहले के भागों को पढ़ने के लिए नीचे आ रहे हेडिंगों पर क्लिक करें. दयानंद पांडेय के अन्य लेखों को पढ़ने के लिए सर्च बाक्स में उनका नाम डालकर खोजें.