देश के गॉंव इन दिनों कई तरह से बाजार के फोकस पर हैं। घरेलू उपयोग की वस्तुएं बनाने वाली बड़ी-बड़ी कम्पनियों को अगर वहॉं अपनी बाजारु संभावनाएं दिख रही हैं, तो बिल्कुल शहरी व्यवसाय माने जाने वाले बी.पी.ओ. क्षेत्र ने भी अब गॉवों की तरफ रुख कर लिया है। सरकार अगर देश के प्रत्येक गॉंव में बैंक शाखाएं खोलने की अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुकी है तो निजी क्षेत्र की दिग्गज कम्पनी हीरो समूह अब गॉवों में साप्ताहिक किश्त के कर्ज पर बाइसकिल बेचने का ऐलान कर रही है, और उधर, आई.टी. सेक्टर ने भी घोषणा की है कि गॉंवों के इलेक्ट्रानिकीकरण बगैर देश का त्वरित विकास संभव नहीं है।
पूंजीवादी व्यवस्था के बारे में कहा जाता है कि यह पत्थर से भी पानी निचोड़ने की कला जानती है और किसी क्षेत्र को अगर इसने उपेक्षित कर रखा है तो यह मान लेना चाहिए कि वहॉं किसी भी तरह की आर्थिक-दोहन की संभावनाएं बची ही नहीं है। इस व्यवस्था की नजर-ए-इनायत अगर गॉवों पर हुई है तो इसका अर्थ है कि अब यह बालू से तेल निकालने का खेल शुरू करेगी। पिछले कुछ महीनों में हुई सरकारी घोषणाओं से ही यह शक़ होने लगा था कि सरकार को गॉवों की एकायक हुई चिन्ता अनायास नहीं हो सकती। जैसे जब केन्द्रीय कृषि मंत्री कहते हैं कि फलां चीज की पैदावार कम हुई है या फलां जिन्स के दाम बढ़ सकते हैं, तो वह अनायास नहीं होता। उसका अर्थ ही होता है कि वह मुनाफाखोरों को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया इशारा है। इसी प्रकार देश के प्रत्येक गॉंव में एक अदद डाकखाना होने के बावजूद अगर सरकार को वहॉ बैंकों की जरूरत बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगी है तो इसका अर्थ यही है कि वहॉ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चरण पड़ने ही वाले हैं, जिनका काम कोर बैंकिंग सर्विस यानी सी.बी.एस. सुविधा के बगैर हो नहीं सकता। और यह जरूरत सरकार को इस तथ्य के बावजूद हो रही है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रही सरकारी बैंकों की शाखाओं में आधे से भी अधिक खाते निष्क्रिय ही पड़े रहते है।
इस सच्चाई के बावजूद कि गॉवों में विकट बेकारी और गरीबी है, बड़ी-बड़ी कम्पनियों का मानना है कि जीवन यापन तो वहॉं भी हो ही रहा है। यही वह दर्शन है जो इन कम्पनियों को उन गॉंवों की तरफ ले जा रहा है जहॉ भारत की तीन-चौथाई आबादी अभी भी बसती है। दैनिक उपभोग की वस्तुएं बनाने वाली एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के बड़े अधिकारी बताते हैं कि सिर्फ उ.प्र. के गॉवों से होने वाला व्यवसाय लगभग दो लाख करोड़ रुपया प्रतिवर्ष का है। वे यह भी बताते हैं कि जब से वस्तुओं का पाउच और शैसे संस्करण आने लगा, बिक्री में जबर्दस्त उछाल आ गया और उन वस्तुओं की बिक्री भी होने लगी है जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था कि ये भी गॉवों में बिक सकती हैं। शैम्पू, मैगी, हेयर डाई, मेंहदी, ब्यूटी क्रीम, कॉफी, चाय पत्ती, नमकीन, नूडल्स, पान मसाला, वॉशिंग पावडर, पिसा मसाला, गरज ये कि घरेलू उपभोग से लेकर सौन्दर्य प्रसाधन तक की तमाम सामाग्रियॉं आज एक रुपये से लेकर चार-पॉंच रुपये के अत्यन्त आकर्षक पैकेटों में गली-गली की दुकानों पर उपलब्ध हैं और इनकी अच्छी खासी बिक्री हो रही है। कभी सोचा गया था कि टूथ पेस्ट भी पाउच में मिल सकता है?
जरुरत के सामानों की बिक्री हो रही है तो इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है लेकिन असल मायाजाल तो इसके पीछे छिपा हुआ है, जब गैर जरुरत की वस्तुएं भी बच्चों से लेकर बड़ों तक को ललचाकर उन्हें अपना स्थायी ग्राहक बना लेती हैं। दो-चार रुपये में उपलब्ध होने के कारण लोग अपनी अन्य जरुरतों में कटौती करके इनकी खरीददारी करते हैं, जिससे उनका अत्यन्त सीमित दैनिक बजट उल्टा-पुल्टा हो जाता है। इसका सबसे बुरा असर तो बच्चों पर पड़ रहा है जो प्रायः ही पटरी-पेन्सिल या कापी खरीदने के लिए मिले पैसे में से कटौती करके तमाम तरह के चूरन-चटनी, च्यूइंगगम आदि खरीद लेते हैं। यह वैसे ही है जैसे स्व-रोजगार करने के लिए किसी गरीब व्यक्ति को मिले सरकारी सहायता के धन को अन्य कार्यों पर खर्च कर देना। वास्तव में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गॉव की तरफ रुख करने का मन्तव्य भी यही है। हम देख ही रहे हैं कि गॉवों में खुले शराब के ठेके पर किस तरह लोग दवा के पैसे तक खर्च कर देते हैं और इसका प्रतिरोध करने वाली घर की औरत को कितने प्रकार के जुल्मों को सहना पड़ता है। गॉव की दुकानों पर लटके सामान के पाउचों को एक निगाह देखकर ही जाना जा सकता है कि सिर्फ 70 रुपये दैनिक पारिवारिक आय (यह ऑकलन भी सरकार का ही है) वालों के लिए इसकी खरीददारी करना परिवार को किस संकट पर खड़ा कर देता होगा।
लेकिन यह बिक्री जोर-शोर से होती रहे इसके लिए गॉव वालों के पास क्रय शक्ति भी होनी चाहिए। अब बी.पी.ओ. यानी बिजनेस प्रॉसेस आउटसोर्स जैसे निहायत शहरी धंधे को गॉव का रुख कराया जा रहा है। देश के अग्रणी उद्यमी संगठन ‘नास्कॉम’ ने हाल में एक रिपोर्ट जारी की है। ‘स्ट्रैटेजिक रिव्यू 2011’ नामक इस रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरों में बी.पी.ओ. का काम कराना बहुत खर्चीला होता जा रहा है, जबकि इसके विपरीत अगर गॉव के पढ़े-लिखे युवाओं से यही काम कराया जाय तो लागत काफी कम हो जाएगी। कई बी.पी.ओ. कम्पनियों ने देश के दक्षिणी राज्यों में ऐसे कार्यों को शुरु किया है जिसमें फाइनेंस, एकाउन्टिंग, कॉल सेन्टर, इंजीनियरिंग, डाटा मैनेजमेंट तथा मेडिकल सर्विस आदि कार्य शामिल हैं। कर्नाटक में इस तरह के प्रयोग सार्थक असर दिखा रहे हैं। नास्कॉम का कहना है कि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन, यूटीलिटी, हेल्थकेयर व रिटेल सेक्टर आदि कार्यो में गॉवों में काफी संभावनाएं हैं और इनके मार्फत ग्रामीण युवाओं को रोजगार मुहैया कराये जा सकते हैं। निश्चित ही यह कार्य प्रशंसनीय है और यह अगर सलीके और संतुलित ढ़ंग से किया गया तो गॉवों की तस्वीर बदल सकता है लेकिन यहॉ सवाल सरकार की नीयत का आता है कि वह पहले गॉव का विकास चाहती है या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का भला?
देश के गॉवों में सस्ता और पर्याप्त श्रम आज भी मौजूद है। इसमें पढ़े लिखे युवा भी हैं। पूंजी के धंधेबाज यह जानते हैं कि उन्हें फायदा कहॉ से हो सकता है। इस प्रकार अगर यह बाजारी व्यवस्था की मॉग है कि अब गॉंव चला जाय तो वह वहॉ पहुंचेगी ही। अब यहॉ जिम्मेदारी सरकार की आ जाती है कि गॉव में वही रोजगार पहुंचें जो वहॉ असंतुलन न पैदा करें। मसलन रिटेल चेन और मॉल कल्चर गॉवों के लिए खतरनाक है क्योंकि इससे वे करोड़ों लोग भुखमरी के कगार पर आ जायेंगे जो छोटी-मोटी दुकान, ठेला-रेहड़ी या फुटपाथ पर बैठकर दो वक्त की रोटी का इंतजाम करते हैं। नास्कॉम ने गॉवों में अपनी संभावनाओं में रिटेल सेक्टर को भी रखा है, इसे भूलना नहीं चाहिए। हो सकता है कि यह उपर गिनाए गये रोजगार की तमाम संभावनाओं के पीछे छिपता हुआ आये। आखिर सरकार पर भी तो लम्बे अरसे से रिटेल सेक्टर को मंजूरी देने का अंतरराष्ट्रीय दबाव है।
लेखक सुनील अमर पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं.