माओवाद का समाधान है–आर्थिक समानता और कृषि व ग्रामीण विकास

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छत्तीसगढ़ के सुकमा क्षेत्र में केन्द्रीय सुरक्षा बलों (सीआरपीएफ) पर योजनाबद्ध तरीके से किये गये हालिया हमले में जिस तरह लगभग तीन सौ माओवादियों ने तकरीबन दो सौ ग्रामीणों को आगे कर अकस्मात् हमला किया वह उनकी हर बार बदलती पैंतरेबाजी का एक नया नमूना है। जिस प्रकार माओवादी प्रहार और विस्तार में निरंतर वृद्धि कर अपने शक्तिशाली होते जाने का संदेश दे रहे हैं, वह और भी चिंता पैदा करता है। सुरक्षा मामलों के जानकार मानते हैं कि नक्सलियों के गढ़ में सेना की छावनी स्थापित करने से आतंकवाद पर अंकुश लगाया जा सकेगा और प्रभावित क्षेत्र में विकास कार्यों को गति मिलेगी। दूसरी तरफ योजनाकारों के लिए विचारणीय तथ्य यह होना चाहिए कि जब तक देश में आर्थिक समानता और कृषि व ग्रामीण विकास के द्वार नहीं खुलेंगे तब तक आंतरिक शांति और सीमाओं पर खतरा मंडराता रहेगा।

माओवादियों ने सुकमा क्षेत्र के इस हमले में एके-47, एके-56, एलएमजी. जैसे हथियारों का इस्तेमाल करते हुए ग्रामीणों की आड़ लेकर किये गये हमले में जिस रणनीतिक कौशल का परिचय दिया है, उससे पता चलता है कि क्षेत्र में उनकी जड़ें कितना गहरी हैं। उनकी सांगठनिक रचना और क्षेत्रीय जनता पर पकड़ से यह पता नहीं चलता कि कौन उनका हमदर्द व सहयोगी है और कौन विरोधी। वे घात लगा कर अचानक हमला करके गायब हो जाते हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के अलावा उनके समर्थक देश भर के महानगरों, विश्वविद्यालयों, समाचार माध्यमों, प्रशासन-तंत्र तथा अन्य महत्वपूर्ण जगहों पर मौजूद हैं जिनके बल पर ये देश के लगभग 620 जिलों के आधे से भी अधिक यानी कुल 230 में सक्रिय हैं। इससे सरकार के लिए चिंताजनक स्थिति उत्पन्न हो गई है।

सुरक्षा मामलों के जानकारों की मानें तो पुलिस और केसुब. को इलाके में नक्सलियों का डटकर मुकाबला करने और उनके विरुद्ध ऑपरेशन्स में अच्छी सफलता मिली है। इसीसे छटपटाये नक्सली अब बड़े हमले कर रहे हैं। देश के पूर्व गृह सचिव एलसी. गोयल के अनुसार नक्सलियों के गढ़ छत्तीसगढ़ में बस्तर जिले के अबूझमाड़ में सेना की छावनी स्थापित करना जरूरी हो गया है। उनका मानना है कि सेना का नक्सलियों के गढ़ में कोई सीधा रोल नहीं होगा, सिर्फ उसकी मौजूदगी ही नक्सलियों पर दबाव बनाने के लिए इस्तेमाल की जाएगी। इससे क्षेत्र के विकास का रास्ता खुलेगा साथ ही सड़क व संचार की स्थिति भी सुधरेगी।

यह सोच गाड़ी को घोड़े के आगे लगाने वाली है, क्योंकि जब तक रोग के ठीक-ठीक कारण जानने की सही व ईमानदार कोशिश तथा उसके निवारण का प्रयास पूरी दृढ़ता से नहीं किया जायेगा, तब तक अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेंगे। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के 16 राज्यों में पिछले अनेक दशकों से माओवादी सक्रिय हैं। इन राज्यों में इनकी सक्रियता के कमोवेश एक जैसे ही कारण हैं। देशभर में सत्ता प्रतिष्ठान पर कब्जा जमाये राजनीतिबाज नेताओं, नौकरशाहों, नवधनाढ्यों और उनके पालतू किस्म के मुट्ठी भर लोगों ने एक ओर यहाँ के जल, जंगल, जमीन तथा अन्य प्राकृतिक सम्पदा का स्वयं को मालिक समझ कर भारी लूट मचा रखी है और दूसरी तरफ देश का बहुसंख्यक ग्रामीण, गिरिवासी तथा आदिवासी समाज घोर दरिद्रता झेलते हुए न मर सकने की मजबूरी में किसी तरह जी रहा है। एक ताजा घटनाक्रम के अनुसार झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन तथा अन्य प्रभावशाली लोगों द्वारा धनबाद व छोटा नागपुर में जनजातीय आदिवासियों की जमीन गैर-कानूनी तरीके से हथियाने के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए चिंता व्यक्त की है कि ऐसे चलन के कारण ही उन इलाकों में नक्सलवादी पनप रहे हैं।

इस प्रकार एक ओर सत्ता के दलालों से सांठ-गांठ कर गरीबों का खून चूसने और देश के प्राकृतिक व मानव संसाधनों को वैध-अवैध तरीकों द्वारा लूटी गई दौलत के अंबारों का नग्न प्रदर्शन है तो दूसरी ओर एक जून की भरपेट रोटी और तन ढकने को मामूली कपड़े तक नसीब नहीं। उस पर भी असरदार लोगों के शोषण, अन्याय तथा उत्पीड़न की कहीं कोई सुनवाई नहीं। ऊपर से क्षेत्र में सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, विद्युत, संचार, सिंचाई आदि सुविधाओं का अकाल कोढ़ में खाज बन कर बेहद पीड़ाजनक हो जाता है। व्यवस्था जनित इस अभाव के विरुद्ध निराशा व आक्रोश का मुखर होना स्वाभाविक है जिसकी अभिव्यक्ति लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ प्रैस तथा समय-समय पर मतदान के माध्यम से की जा सकती है लेकिन इधर एक-दो दशकों से देश के मीडिया पर कॉरपोरेट घरानों ने कब्जा कर घोर व्यावसायिक दृष्टिकोण अपनाते हुए इसे अपनी तिजौरियां भरने का साधन बना लिया है, उससे रही-सही आशा पर तुषारापात हुआ है। देश में आजादी के बाद से ही एक ओर निरंतर अमीर को और भी धनवान तथा गरीब को अत्यधिक निर्धन बनाने का जो सिलसिला शुरू हुआ था उसमें और देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट, बेरोजगारी, महंगाई, आर्थिक घोटालों, अपराधों, राजनीतिक अस्थिरता, सुविधाओं का शहरों में केन्द्रीकरण व गाँवों में अभाव, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा, अंधाधुंध औद्योगीकरण व शहरीकरण से जीवन में आपाधापी आदि नकारात्मक क्रिया-कलापों में विगत दो-तीन दशकों में बहुत तीव्रता आई। जबकि दूसरी ओर राष्ट्रीयता की जिस भावना ने देश को आजादी दिलाई वह निरंतर कमजोर हुई। परंपराओं, सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों की उपेक्षा और पश्चिम के अंधानुकरण ने भी भारत व भारतीयता को बेहद कमजोर किया। कुल मिलाकर आज यह देश ‘इंडिया’ और ‘भारत’ दो परस्पर बहुत दूर स्थित ध्रुवों पर खड़ा है। इनके बीच दिन-प्रतिदिन गहराता फासला ही उपेक्षित-पीड़ित समाज को ‘सत्ता बन्दूक की नली से आती है’ वाली माओवादी-नक्सलवादी सोच की ओर मोड़ने वाला मुख्य आधार है।

समस्या का एक बड़ा कारण पड़ौसी मुल्क चीन की विस्तारवादी नीति भी है, जिसने भारत की पूरे 360 डिग्री में स्ट्रैटेजिक घेरेबंदी कर रखी है। तिब्बत पर कब्जा करना उसकी इसी नीति का हिस्सा था। उस ऐतिहासिक घटना के इन 56 वर्षों के भीतर वह लगातार कूटनीतिक, आर्थिक, सामरिक हर दृष्टिकोण से भारत को कमजोर करने में न केवल लगातार जुटा रहा, बल्कि एक तरह से वह इस पर दिन-प्रतिदिन अपना शिकंजा मजबूत करता रहा। चीनी नेता माओ त्से तुंग और रूसी तानाशाह स्टालिन की विचारधारा से प्रभावित कुछ व्यक्तियों द्वारा पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के एक छोटे से गांव नक्सलवाड़ी से मार्च, 1967 में शुरू किए गये सत्ता के विरुद्ध इस सशस्त्र विद्रोह को आज पचास साल पूरा हो गए हैं। इस अवधि में यह देश के 16 राज्यों में अपनी जड़ें मजबूती से जमाने में कामयाब हो गया है और धीरे-धीरे फैलता जा रहा है। समझा जाता है कि देश को अस्थिर करने के लिए इन राज्यों को परस्पर ‘लाल गलियारे’ के रूप में जोड़ने वाले इस संगठन को किसी हद तक चीन का समर्थन हासिल है। यही वे मुख्य कारण हैं जिन्होंने देश में माओवाद-नक्सलवाद के पनपने की पृष्ठभूमि तैयार करने में मदद की है।

एक ओर लोकतंत्र को लूट-तंत्र में बदल कर अनुचित तरीकों से पैदा की गई बेशुमार दौलत के अंबारों की निर्लज्ज व दंभपूर्ण नुमाइश और दूसरी तरफ इस व्यवस्था के लुटेरे अलंबरदारों द्वारा बहुसंख्यक समाज पर धूर्ततापूर्वक थोपी गई गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, लाचारी, बीमारी, अशिक्षा आदि अनगिनत कमजोरियों से भरे विरोधाभास ही लोगों में व्यवस्था और प्रभुसत्ता सम्पन्न वर्ग के प्रति आक्रोश तथा घृणा उपजने का एक मुख्य और स्वाभाविक कारक हैं। माओवादियों और उनके समर्थकों का मानना है कि इसी प्रभुता सम्पन्न वर्ग ने देश के बहुसंख्यक समाज के विरुद्ध छल और षड्यंत्रपूर्वक प्रपंच रच कर गरीबी और साधनहीनता थोप दी है और देश के बहुसंख्यक समाज को यह सब भोगने को विवश कर दिया है।

दरअसल, यह एक बहुत कड़वी सच्चाई है कि देश के सत्ता प्रतिष्ठान पर काबिज कुछ लोगों तथा उनके शागिर्दों ने देश के तमाम संसाधनों पर अनैतिक रूप से न केवल कब्जा जमा लिया है, बल्कि वे ही इनके मालिक बन बैठे हैं। इससे देश में एक खास वर्ग के पास अकूत दौलत के ढेर लग गये हैं तो दूसरी ओर लोग भूख से बिलबिलाते हुए अकाल मौत के शिकार हो रहे हैं। सामाजिक विषमताओं के इस विद्रूप ने ही माओवादी विचारधारा को जन्म दिया और शोषित-वंचित वर्ग इसे अपनी बची-खुची ऊर्जा का खाद-पानी देकर पुष्ट कर रहा है। हालांकि माओवादी विचारधारा एक सशस्त्र राजनीतिक आन्दोलन के रूप में देश भर में लगातार फैल रही है और अन्याय तथा शोषण के प्रतिकार का उसका अपना तरीका है।

यदि इसी तरह व्यवस्था से पीड़ित और असंतुष्ट नवयुवकों का रुझान माओवाद की तरफ बढ़ता है तो देश की आंतरिक शांति और व्यवस्था को जर्बदस्त खतरा पैदा होने का अंदेशा है; लेकिन इस खतरे से निबटने के लिए वर्ग-संघर्ष को कम करने की अपेक्षा पुलिसिया हथकण्डे अपनाना या क्षेत्र में सैनिक छावनी स्थापित कर देना किसी भी तरह उचित नहीं होगा। देश में माओवाद का प्रसार पुलिस के दमन से नहीं, बल्कि लोगों की सहभागिता से उनकी समस्याओं का समयोचित समाधान तथा आर्थिक समानता और देश के बहुसंख्यक ग्रामीण व कृषि आधारित समाज की बेहतरी से रोका जा सकता है। इसके अलावा पूँजीपतियों द्वारा सत्ताधारियों तथा नौकरशाही से सांठ-गांठ कर देश में लूट-खसोट का जो आर्थिक आतंक मचाया हुआ है, उसे नियंत्रित कर बहुत तेजी से बढ़ती अमीर व गरीब के बीच की खाई को कम करना जरूरी है। यदि सरकार इस समस्या को कानून और व्यवस्था का मामला समझने की भूल करती है तो निश्चित तौर पर यह कम होने की अपेक्षा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जायेगी। जबकि इसकी जड़ें व्यवस्था से उपजी निराशा व आक्रोश में हैं और इसका समाधान भी राजनैतिक-सामाजिक तौर-तरीकों से ही सम्भव हो सकता है।

लेखक श्यामसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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