मोदी के दलित या दलितों के मोदी

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बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में जाति-राजनीति की भूलभलैया को कैसे पछाड़ा

सत्याकी राय तथा पंकज सिंह

(अनुवादकीय नोट: इस लेख में बहुत अच्छी तरह से बताया गया है कि इस चुनाव में भाजपा ने किस तरह से जाति की राजनीति का इस्तेमाल अपने पक्ष में किया है. दरअसल जाति की राजनीति ने हिंदुत्व की ताकतों को ही मज़बूत किया है. इसका मुकाबला केवल जाति की राजनीति को छोड़ कर वर्गहित आधारित जनवादी राजनीति से ही किया जा सकता है.)

उत्तर और पच्छिम भारत में अपने वर्चस्व को मज़बूत करने के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उसके रणनीतिकार दलित जनसख्या के बड़े हिस्से को जीतना चाहते हैं. अब तक यह प्रक्रिया बहुत आसान नहीं रही है. उत्तर प्रदेश की दलित आबादी का एक बड़ा हिस्सा बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती का नियमित वोटर रहा है जिस कारण पिछले कुछ चुनावों में उसके वोट बैंक में बहुत गिरावट नहीं आई है.

इस बीच गुजरात और महाराष्ट्र में उच्च जातियों और निचली जातियों की राजनीति का अतिवादीकरण (रैडीकलायिज़ेशन) हुआ है. इसमें जिग्नेश मवानी और हार्दिक पटेल जैसे नेताओं का उभार तथा खामोश मराठा प्रदर्शनों द्वारा आरक्षण विरोध यह दर्शाता है कि जाति पुनरुत्थान और राजनीतिक अस्थिरता कितनी क्षणभंगुर है. इस परिदृश्य में मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह साथ बनाने के लिए बहुत कुछ करने के लिए तैयार हैं और हम लोग देखेंगे कि भारत में लोकतंत्र असंभव गठजोड़ों की तरफ जाने वाला है.

परन्तु दलितों को अपने वोट आधार में शामिल करने की उनकी इच्छा नयी नहीं है. छत्तीसगढ़ में 2013 के चुनाव से पहले बीजेपी ने दलित वोटों को जोड़ने के प्रयास में बौद्ध भिक्षुओं को घुमाया था. चुनाव में उन्होंने 10 में से 9 आरक्षित सीटें जीत ली थीं. यह उत्तर प्रदेश में अप्रैल से अक्तूबर 2016 की 6 माह की धम्म चेतना यात्रा का पूर्वगामी था. इसके दौरान बौद्ध भिक्षुयों ने प्रदेश में लगभग 1000 बुद्ध तथा आंबेडकर मूर्तियों को माल्यार्पण किया. बीजेपी का दावा है इस दौरान वे 40 से 50 लाख लोगों से मिले. 

मई, 2016 में सिंहस्थ कुम्भ मेला में अमित शाह ने शिप्रा नदी में दलित साधुयों के साथ स्नान किया.  2015 और 2016 के दौरान लन्दन में आंबेडकर के बंगले का अधिग्रहण किया गया तथा उसे “शिक्षा भूमि” बनाने की नींव रखी गयी. धम्म देशना यात्रा के दौरान यह पर्चे बांटे गए कि इस शिक्षा भूमि में दलित विद्यार्थियों को मुफ्त सुविधाएँ दी जाएँगी. 2016 में डॉ. आंबेडकर की 125वीं जयंती के अवसर पर आरएसएस की साप्ताहिक पत्रिका पञ्चजन्य और इसके अंग्रेज़ी संस्करण अर्गेनाईज़र के विशेष अंक निकाले गए.

मोदी ने आंबेडकर के जन्मस्थान मऊ में रैली की और उसे एक मुख्य पर्यटन केंद्र बनाने की घोषणा की.  मोदी आंबेडकर के अंतिम संस्कार वाले स्थल “चैत्य भूमि” पर भी गए. बीजेपी ने बुद्ध से जुड़े पांच तीर्थों पर भी आयोजन किये. इन महीनों में सबसे बड़ा अवरोध गुजरात में गौरक्ष्कों द्वारा ऊना में दलितों की पिटाई थी. रातों रत दलित इकठ्ठा हो गए और मायावती गुजरात गयी और उसने दलितों से अपील की. ऊना के बाद कहा गया कि इससे बीजेपी का चुनाव में नुकसान होगा.

परन्तु बीजेपी के गुणाभाग ने इन घटनाओं का मुकाबला किया. यह क्षेत्रिय एकजुटता के अभाव के कारण संभव हुआ. या यह हो सकता है कि गोहत्या या इस पर प्रतिबंध का चुनाव पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा. इससे यह स्पष्ट हो गया है कि बहुत सारे मतदाता गौहत्या पर प्रतिबंध या वैरभाव वाले धार्मिक मूल्यों को मुख्य चुनाव समस्या नहीं मानते. उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा इलाहाबाद और अन्य स्थानों पर बुच्चड़खानों  की तालाबंदी इस श्रेणी में आते हैं. इसका उत्तर भारत में दलित मतदाताओं पर उतना ही असर पड़ेगा जितना चमड़े के धंधे पर परन्तु यह चुनाव पर बहुत प्रभाव डालने वाला नहीं है.

2017 के चुनाव में बीजेपी दलित वोटों को जाटवों और गैर-जाटवों में बाँटने में सफल रही. बीजेपी ने मायावती की उपजाति वाले जाटवों को जोकि राज्य की कुल दलित आबादी का 57% हैं को केवल 23 टिकट दिए. इसके मुकाबले में उसने यूपी की दूसरी बड़ी दलित उपजाति पासी को 21 टिकट दिए. उन्होंने बसपा से कम जुड़ाव रखने वाली दलित उपजातियों जैसे धोबी, खटीक, कोरी और बल्मिकियों को 36 टिकट दिए.

इस बार 85 आरक्षित सीटों में से बीजेपी ने 69 सीटें जीत ली हैं जबकि 2012 में उसे केवल 3 ही मिली थीं. उसने 403 सीटों में कुल 80 दलित खड़े किये थे जबकि मायावती ने 87 खड़े किये थे.
इस बीच अमित शाह अलग अलग निचली जातियों के समारोहों में शामिल हुए थे. उन्होंने  छोटी अतिपिछड़ी जातियों जैसे गोड, लोहार, कुम्हार और मल्लाह अदि के साथ सौदेबाज़ी की. इसके नतीजे देखने लायक हैं. मायावती का वोटबैंक थोडा कम हुआ है जबकि बीजेपी का वोट बैंक बहुत बढ़ा है. दूसरे तो डूब ही गए हैं.

अकादिमीशियन और मुख्यधरा का मीडिया बीजेपी को सवर्णों की पार्टी कहते हैं, जो शीर्ष पर है भी, बीजेपी ने जाति की राजनीति की भुलभलैया को सफलतापूर्वक समझा है और उसे खेला है. इसके कारण अब स्पष्ट हैं. जाति दावेदारी बीजेपी की रणनीति नहीं है जैसी कि कभी थी. सच्चाई यह है कि जहाँ वे एक तरफ जाति समूहों से मोलतोल करते रहे हैं वहीँ वे एक अकेले मजबूत नेता की छवि भी पेश करते रहे हैं. अपने नेता की छवि को आरएसएस के इतिहास से अलग करके वे रणनीतिक चालबाजी खेलने में सफल रहे हैं.

अगर मायावती बेचैन नवयुवकों की अपेक्षाओं का अवतार बनने में असफल रही तो वहीँ मोदी ने इस भूमिका को बखूबी निभाया. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी और शाह इस समय और युग में सूचना और प्रभाव कैसे काम करते हैं, को अच्छी तरह समझते हैं. उसने हाल में कहा है कि लोग खबर को टीवी चैनल और अखबार की अपेक्षा मोबाइल फोन से अधिक ग्रहण करते हैं. मोदी इस मुख्य तथ्य को समझाते हैं कि आज कल चुनाव को व्हाट्सअप ग्रुप और यूट्यूब विडिओ से प्रभावित किया जा सकता है. विश्वस्तर पर बुद्धिजीविओं ने भी माना है ट्विटर-प्रेरित “अरब स्प्रिंग” आन्दोलन तकनीकी विकास और उदार मूल्यों के फैलने से ही संभव हुआ था. 

मोदी और शाह की रणनीतियों को दो तरीकों से देखा जा सकता है: एक यह हो सकता है कि बीजेपी अब वास्तव में दलितों और देश में अन्य निचली जातियों के लिए नीतियाँ और प्रोग्राम बनाएगी. मोदी के अनुयायी इस वक्त यही विश्वास दिलाना चाहेंगे जिसमे कोई आपत्ति नहीं है. इसके इलावा बीजेपी सचमुच में एक उच्च- जातीय पार्टी होते हुए भी निचली जातियों के सशक्तिकरण के लिए काम करने वाली अलग पार्टी भी बन जाएगी. यह एतहासिक होगा. पार्टी में उच्च जातियां और संघ परिवार इसकी हिमायत करें या न करें. यदि ऐसा होता है तो इसमें संदेह है कि उनके सामने बहुत विकल्प होंगे.
दूसरा यह हो सकता है कि मोदी और शाह केवल सद्भावना प्रदर्शन और प्रेरक नेतृत्व के वादों द्वारा दलित समुदाय के कुछ हिस्सों को मना लें और उनको कुछ सीटें देने के इलावा  वास्तव में कोई सत्ता नहीं देना चाहते हैं. परन्तु अगर हम फ़्रांसिसी विद्वान् क्रित्स्टोफ जैफर्लोट द्वारा प्रदर्शित कांग्रेस की शुरू की चुनाव रणनीतियों को देखें तो बिलकुल यही किया गया था.

कांग्रेस ने निचली जातियों को कभी भी सत्ता में सही हिस्सेदारी नहीं दी बल्कि उनके नेताओं और मुद्दों को अपने एजंडे का हिस्सा बना लिया. अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि मोदी और बीजेपी का उभार उच्च जातियों की पार्टियों द्वारा पूर्व में निचली जातियों के वोट को इकठ्ठा करने हेतु अपनाये गए हत्थ्कंडों का ही परिणाम मात्र है. इसमें कुछ भी नया नहीं है. इसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है कि बेहतर नेताओं ने बेहतर खेल खेला है.
(फर्स्ट पोस्ट से साभार)

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