आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री चले गये। छायावाद के इस पुरोधा ने सौ से अधिक रचनायें लिखीं, पांच हजार से अधिक गीत। कोई एक गीत दूसरे की प्रतिलिपि नहीं। साहित्य में ही नहीं, निजी जीवन में भी प्रसाद और निराला के अनुयायी, उन्हीं की तरह स्वाभिमानी। कुछ समय पूर्व सरकार ने पद्म पुरस्कार देने का निर्णय किया किन्तु उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। जीवन के अंतिम वर्षों में किसी ने उनके लिये कहा कि निराला को आदर्श मानने वाले को ‘उनके जैसे अन्त के लिये भी’ तैयार रहना चाहिये। उन्होंने इसे स्वीकार भी किया।
आचार्य जी का जाना मीडिया के लिये खबर नहीं है। संभवतः किसी भी राष्ट्रीय चैनल पर उनके निधन की खबर नहीं चली। चैनल पर छाया है अन्ना हजारे का अनशन, जिसमें हर पल समर्थन देने के लिये कोई न कोई सेलेब्रिटी पधार रहा है। उसका गाड़ी से उतरना, उसका एपीअरेंस, उसकी डायलॉग डिलीवरी, मंच की ओर उसका सधे कदमों से बढ़ना, सभी कुछ तो दिखाया जाना जरूरी है। इस हाईवोल्टेज ड्रामे के सामने शास्त्री जी के जाने की क्या मीडिया वैल्यू है।
अन्ना हजारे के नेतृत्व में देश भर के तमाम सामाजिक कार्यकर्ता दिल्ली के जंतर-मंतर पर आ जुटे। दिल्ली का जंतर-मंतर इस तरह के धरने-प्रदर्शनों का लम्बे समय से साक्षी रहा है। आम तौर पर ऐसे धरने कुछ दिन तक चलते रहते हैं और धैर्य चुक जाने पर आंदोलनकारी ही किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश शुरू कर देते हैं जो उन्हें कैसा भी आश्वासन देकर धरने से उठाये। कई बार तो ऐसा कोई भी व्यक्ति न मिलने पर रात के अंधेरे में अपना बैनर लेकर भागना पड़ता है।
प्रदर्शन की उम्र तो और भी कम होती है। जंतर-मंतर से चल कर संसद मार्ग थाने तक का सफर यह जलूस करता है जहां औपचारिक गिरफ्तारी के बाद लोग अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं। आम तौर पर ऐसे सभी आयोजनों का उद्देश्य अपने अथवा अपने संगठन का नाम समाचार पत्रों में छप जाने तक सीमित होता है। अधिक जुझारू संगठनों के कार्यकर्ता अखबार में अपने नाम के साथ ही फोटो छपवाने में भी कामयाब होते हैं, जो बाद में बरसों तक उनकी फाइल की शोभा बढ़ाते हैं।
ऐसा नहीं है कि सभी आयोजन इतने छोटे उद्देश्यों के लिये ही किये जाते हों। लोकहित और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये भी अनेक बार लोग दिल्ली में जुटते हैं। सम्बंधित अधिकारी तक एक ज्ञापन और अधिकारी द्वारा दिया गया (यदि वह कृपापूर्वक देने को तैयार हो) निरर्थक आश्वासन ही इन का हासिल होता है। हिन्दी में परीक्षा की मांग को लेकर बरसों तक चले धरने का परिणाम भी वही हुआ जो एक घंटे के प्रदर्शन का होता है। बरसों धरना देने के बाद श्यामरुद्र पाठक, पुष्पेन्द्र चौहान और डॉ. मुनीश्वर गुप्ता का संघर्ष रंग नहीं ला सका। जबकि राष्ट्रभाषा का प्रश्न भी गांधी की नीतियों को ही लागू करने का अभियान था और उनका तरीका भी गांधीवादी ही था।
अनशनकारी (और साथ में अपने-अपने एजेण्डे के साथ आ डटे ‘एनजीओ वाले’) सड़क घेर लेते हैं। पुलिस उन्हें आम दिनों की तरह दौड़ाती नहीं है। वह स्वयं सड़क बंद कर वाहनों का मार्ग बदल देती है। हुजूम आते और जाते हैं। माहौल मेले का है। लगता नहीं कि यहां कोई गांधीवादी अनशन कर रहा है। इक्का-दुक्का गांधी टोपियां तो हैं, पर न चरखा है और न राम धुन। मंच पर एक कलाकार गा रहे हैं- बॉस पटा लो, माल बना लो, तो नीचे जेएनयू के कॉमरेड क्रांतिगीत गुनगुना रहे हैं। रेल का विरोध करने वाले गांधी के नाम पर आन्दोलनकारी इंटरनेट पर भिड़े हुए हैं। मोबाइल पर डटे हुए हैं। चर्चा यहां तक की जा रही है कि यदि आज गांधी होते तो फेसबुक और ट्विटर पर होते।
गांधी जिस व्यवस्था के खिलाफ रहे उसी व्यवस्था में जिंदगी भर ताबेदारी करने के बाद अब लोग उस पर लगाम लगाने की जरूरत बता रहे हैं। छत्तीसगढ़, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश में जो नक्सलवादियों के समर्थन में नजर आते हैं वही दिल्ली में अन्ना के मंच पर गांधीवाद अलाप रहे हैं। व्यक्तिगत बातचीत में ही नहीं, पोस्टरों में भी वह भाषा इस्तेमाल की जा रही है कि यदि गांधी होते तो अपना आन्दोलन समाप्त कर देते। फेसबुक और ट्विटर पर चल रही भाषा की तो चर्चा ही बेकार है।
अन्ना हजारे का अनशन सबसे अलग है। यहां सितारों का जमघट है। सरकार का इसे पीछे से समर्थन है। कांग्रेस सुप्रीमो स्वयं अन्ना के आन्दोलन को नैतिक समर्थन दे चुकी हैं। राहुल बाबा भी सरकार पर दवाब बना रहे हैं (और यह सब अखबार में छप भी रहा है)! सरकार शुरुआती अकड़ दिखाने के बाद अन्ना की सभी बातें मान लेती है। सब को नजर आ रहा है कि वह अकड़ भी दिखावटी थी और यह समर्पण भी नकली है। आखिरकार, लाखों-करोड़ों लोग(!) अन्ना के समर्थन में उठ खड़े हुए हैं, यह मीडिया बताता है। हालांकि अनशन पर सिर्फ तीन-चार सौ लोग बैठे हैं। कुछ उत्साही आंदोलनकारी बताते हैं कि अनशनस्थल मिश्र के तहरीर चौक में बदल गया है (!) और सरकार भयभीत हो गयी है!
सिर्फ तीन दिन के आमरण अनशन के बाद केन्द्र की सरकार घुटने टेकने पर विवश हो जाती है! अर्थात, सरकार लोकपाल विधेयक पर चर्चा के लिये एक ऐसी मसौदा समिति गठित करने की अधिसूचना जारी करती है (यह जनलोकपाल विधेयक की स्वीकृति नहीं है!) जिसमें सिविल सोसायटी के भी पांच प्रतिनिधि होंगे। अन्ना हजारे के अतिरिक्त मंच पर पहले से विराजमान शांति भूषण, उनके सुपुत्र प्रशांत भूषण, निवर्तमान न्यायाधीश संतोष हेगड़े तथा आरटीआई कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल इस समिति के सदस्य चुन लिये जाते हैं। मंच के सामने एकत्र जनता हमेशा की तरह तालियां बजाती है, खुद रेहड़ी वाले से खरीद कर मशीन का ठंडा पानी पीते हुए अनशनकारियों को जूस पीते देखती है, लोकतंत्र जिन्दाबाद के नारे लगाती है और अपने-अपने घर चली जाती है। कोई नहीं पूछता कि वहां जमा हजारों लोगों में से सिविल सोसायटी से प्रतिनिधि के रूप में यह पांच महापुरुष किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने गये हैं।
अब जश्न की बारी है। आखिर लोकतंत्र की जीत जो हुई है। चैनल इस जश्न का लाइव कवरेज दे रहे हैं। हार गयी है सरकार! सरकार की चूलें हिल गयी हैं! अगले दिन के अखबार रंगे हैं इन शीर्षकों से। लेकिन अन्ना कहां हैं! वे इस जश्न में कहीं नहीं हैं। उनका रक्तचाप बढ़ गया है। वे अपने गांव चले जायेंगे। रालेगण सिद्दी, जहां एक मंदिर से लगे कमरे में उनका बसेरा है। जहां के चप्पे-चप्पे पर उनके कर्मयोग की छाया है। अब शायद दिल्ली और सिविल सोसायटी को उनकी तभी जरूरत होगी जब ऐसे ही किसी मुद्दे पर आमरण अनशन करना होगा। अन्ना यह करते रहे हैं, शरीर ने साथ दिया तो फिर करेंगे। क्योंकि अन्ना सच्चे गांधीवादी हैं। उन्होंने गांधी को अपने जीवन में उतारा है।
अन्ना को पद, पैसा, प्रतिष्ठा की चाह नहीं है। अन्ना को दिल्ली की कृपा भी नहीं चाहिये। दिल्ली जीत के जश्न मनायेगी! वैसे ही जैसे स्वतंत्रता के समय नेहरू भारत के जागने का संदेश लालकिले से दे रहे थे! अन्ना इस शोर से दूर रालेगण सिद्दी की अपनी कुटिया में वैसे ही बैठेंगे जैसे गांधी सैकड़ों मील दूर जा बैठे थे! जैसे आजाद भारत में गांधी का नाम लेकर त्रासदियों की फसल बोई गयी लेकिन गांधी का जीवन जीने में किसी की कोई रुचि नहीं रही, वैसे ही अन्ना को आगे कर जीत हासिल करने वाले अन्ना का सा जीवन जीने को तैयार नहीं है। बात शुरू हुई थी आचार्य जी को निराला जैसे अन्त के लिये तैयार रहने के संदेश से, समाप्त होती है इस प्रश्न से कि क्या अन्ना को भी उस पीड़ा से गुजरना होगा जिससे अपने अंतिम समय में गांधी गुजरे? सॉरी गांधी! सॉरी अन्ना! मैं यह जख्म कुरेदना नहीं चाहता। लेकिन संभवतः आजाद भारत में गांधी और उनके वारिसों की यही नियति है।
लेखक आशुतोष भटनागर वरिष्ठ पत्रकार हैं.