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साहित्य जगत

हत्‍यारे डाकू का दिल पसीजा, तो बदल गयी दुनिया

: शाहन के शाह : महाराष्‍ट्र से पंजाब तक बज गया नामदेव के नाम का डंका : वह दिल ही क्‍या, पसीज न जाए। भले ही वह दिल किसी संत, गृहस्‍थ का हो या किसी डाकू का। नामदेव के साथ भी यही हुआ। बच्‍चे को पीटती उसकी मां का रूदन और करुणा भरे शब्‍द कुछ यूं दिल पर उतर गये कि नामदेव का जीवन ही बदल गया और शुरू हो गया आत्‍मोत्‍थान का वह भाव जिसने जल्‍दी ही उन्‍हें शीर्ष तक पहुंचा दिया। ऊंचाइयां इतनी हासिल हो गयीं कि उनके 61 भाव आज तक सिख धर्मग्रंथ गुरुग्रंथ साहब में दर्ज हैं। इतना ही नहीं, नामदेव का नाम आज मराठी धर्मक्षेत्र में पांच महा-संतों की संत-पंचायतन में शामिल हैं।

: शाहन के शाह : महाराष्‍ट्र से पंजाब तक बज गया नामदेव के नाम का डंका : वह दिल ही क्‍या, पसीज न जाए। भले ही वह दिल किसी संत, गृहस्‍थ का हो या किसी डाकू का। नामदेव के साथ भी यही हुआ। बच्‍चे को पीटती उसकी मां का रूदन और करुणा भरे शब्‍द कुछ यूं दिल पर उतर गये कि नामदेव का जीवन ही बदल गया और शुरू हो गया आत्‍मोत्‍थान का वह भाव जिसने जल्‍दी ही उन्‍हें शीर्ष तक पहुंचा दिया। ऊंचाइयां इतनी हासिल हो गयीं कि उनके 61 भाव आज तक सिख धर्मग्रंथ गुरुग्रंथ साहब में दर्ज हैं। इतना ही नहीं, नामदेव का नाम आज मराठी धर्मक्षेत्र में पांच महा-संतों की संत-पंचायतन में शामिल हैं।

यह तेरहवीं सदी की बात है। एक दर्जी परिवार में नामदेव सन 1269 में पैदा हुए। आज के महाराष्ट्र के सतारा जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसा था गांव नरसी बामणी। पिता दामाशेटी शिंपी और गोणाई देवी भगवान विट्ठल के भक्त थे। लेकिन संगत का असर कुछ ऐसा हुआ कि बड़े होकर नामदेव डाकुओं के सरदार बन गये। लूट-पाट और हत्‍याएं उनकी दिनचर्या में शामिल हो गयीं। हालांकि इसी बीच उनका विवाह राधाबाई के साथ हुआ था और नारायण नाम का एक पुत्र भी जन्‍मा। लेकिन पेशा नृशंस अपराध ही रहा।

अचानक ही एक दिन की घटना ने उनका जीवन ही बदल डाला। वे आवढ्या स्थित अपने अराध्‍य नागनाथ के दर्शन को गये थे। मंदिर की सीढियां चढते समय उन्‍होंने देखा कि एक महिला अपने बच्चे को बेतरह पीट रही है। साथ ही वह वह खुद भी फूट-फूट कर रो भी रही थी। रूदन देख कर दिल पसीज उठा तो महिला से कारण पूछ बैठे। बिलखती महिला ने हिचकियों के बीच जवाब दिया :- नामदेव नाम के डाकू ने इसके बाप और उसके 82 अन्‍य व्‍यापारी साथियों की हत्‍या कर दी है। यह कई दिनों से भूखा है लेकिन मैं अबला आखिर इसकी भूख कैसे शांत करूं।

आंसुओं से सना यह जवाब तो किसी को भी विह्वल कर देता। लेकन इसका असर नामदेव पर गहरा पड़ा। विह्वल हो उठे। आत्‍मग्‍लानि हावी हो गयी। सीधे पंढरपुर पहुंचे और बिट्ठल विठोबा को अपना अराध्‍य मान उपासना में जुटे। लेकिन शायद भक्ति में अभी ज्ञान की दरकार थी। एक दिन देखा बिसोबा खेचर नाम का एक साधु शिवलिंग पर पैर रखे दोपहर तक सो रहा है। टोका तो उस वृद्ध साधु ने अपनी अशक्‍तता बताते हुए उनसे अपना पैर उस ओर रखने को कहा जहां शिव न हों। हृदय फिर कांपा। देखा हर ओर शिव ही शिव। कहीं भी अशिव नहीं दिखा। लगा कि ईश्‍वर तो हर जगह है, उसे स्‍थान या नाम से बांधना अनर्थ होगा। बस नाथपंथी विसोबा खेचर के पैर पखार दीक्षा ले ली। यह परमानंद की अवस्‍था थी, जो प्रायश्चित से उपजी जरूर, लेकिन ध्‍यान और वैचारिक विकास से हासिल ज्ञान की सीढियां चढ़ते हुए परमात्‍मा की प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ी। वारकरी पंथ यहीं से प्रारम्‍भ हो गया। वार यानी भ्रमण और करी यानी करने वाला।

अब तक ज्ञानेश्‍वर का साथ मिल ही चुका था। दोनों ही उत्‍तर भारत के भ्रमण पर निकल पड़े। हालांकि रास्‍ते में ही ज्ञानेश्‍वर ने परलोक प्रस्‍थान कर लिया, लेकिन नामदेव बढ़ते ही रहे और पंजाब तक पहुंच गये। गुरुदासपुर के घोभान इलाके में इनके नाम पर बना एक मंदिर इनके प्रति तब के जनमानस में व्‍याप्‍त सम्‍मान का ही तो प्रतीक है। हालांकि तब की संत परम्‍परा की महान शख्सियतों के नाम से जुड़ीं किंवदंतियों ने नामदेव को भी नहीं छोड़ा। उनके जीवन में कई चमत्‍कारिक घटनाएं जुड़ गयीं। मसलन, किसी राजा के अनुरोध पर मरी हुई गाय को जिन्‍दा कर देना, मंदिर के कपाट का नामदेव की दिशा में ही घूम जाना आदि-उत्‍यादि।

दीक्षा के उपरांत इनकी विट्ठलभक्ति सर्वव्यापक हो गई। वे ईश्‍वर को मूर्ति में नहीं, हर रूप में खोजने लगे। धरा पर भी और वायु व आकाश में भी। महाराष्ट्रीय संत परंपरा के तर्क पर इनकी भक्ति निर्गुण होने के बावजूद सगुण-निर्गुण से दूर। मराठी में सैकड़ों के अलावा हिन्‍दी में इनके करीब एक सैकड़ा अभंग पद मिलते हैं। इनमें हठयोग की कुंडलिनी-योग-साधना के अलावा प्रेमाभक्ति वाली तालाबेली (विह्वलभावना) भी हैं। निर्गुणी नामदेव में व्रत, तीर्थ जैसे बाह्याडंबर के प्रति उपेक्षा लेकिन गुरू व भगवान के प्रति अगाध सम्‍मानभाव है। नामदेव ने तो जैसे भक्‍तों की आंखों का जाला उतार दिया। बोले : ईश्‍वर की कृति को प्रकृति में देखकर मुग्‍ध हो, लेकिन इसके रचनाकार को देखने की कोशिश तो करो, जो गोविंद है और गोविंद ही सर्वत्र है। बस आखें खोला, वह दिख जाएगा। कबीर के पदों में जहां तहां नामदेव का असर दिखता है। और तो और, संत रैदास ने इन्‍हें नीच-कुल में जन्‍म लेने के बावजूद गोविंद की प्रेम-कृपा से सर्वोच्‍च संतों में शामिल होने वाला बताया है। संत धन्‍ना तो यहां तक कह गये कि गोविंद-गोविंद जपते हुए नामदेव छीपों में भी ऊंचे हो गये।

जाहिर है कि नामदेव अपने बाद के सैकड़ों बरसों तक न केवल वैचारिक रूप से जिन्‍दा रहे, बल्कि बाद के महान संतों भी पूजे गये। नामदेव ने कभी भी ग्रहस्‍थ जीवन का त्‍याग नहीं किया, लेकिन इस बात का भी ध्‍यान रखा कि ईश-स्‍तुति से खुद को संवारा जाए। शिष्‍यों को भी यही शिक्षा दी कि जीविकोपार्जन के बाद तो छीपी का लबादा उतार दें। यही कारण है कि धोमन में रामगढिया सिख समाज के लोगों ने इनके सम्‍पर्क में आकर छीपी का ही पेशा अपना लिया और ईश-स्‍तुति से नाम-वंश विकसित किया। भटवल के पास एक विशाल तालाब में आज भी हर साल दो महीने का नामदे मेला माघ संक्रांति के बाद लगता है।

अपने दौर से लेकर अगले कई सौ सालों तक महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक नामदेव के नाम का डंका बजता रहा। खास यह कि इनके दौर में नाथ ओर महानुभाव सम्‍प्रदाय का बोलबाला था। एक ओर जहां नाथ संप्रदाय अलख निरंजन के निनाद से अपीन योगपरक साधना का उपासक था, वहीं महानुभाव सम्‍प्रदाय वैदिक कर्मकांड तथा बहुदेवोपासना का विरोधी होते हुए भी मूर्तिपूजा की परम्‍परा को भी सम्‍मान देता था। महाराष्ट्र के पंढरपुर की विठोबा-उपासना भी खूब प्रचलित थी। लोगबाग भारी तादात में आषाढ़ और कार्तिक एकादशी को विठोवा देव के दर्शन और उपासना के लिए पंढरपुर पहुंचने की वह परम्‍परा महाराष्‍ट्र में आज भी जारी रही है। ठीक वैसे ही जैसे अयोध्‍या और वृंदावन की चौदह कोसी और अयोध्‍या की पंचकोसी यात्रा परम्‍परा। लेकिन नामदेव ने इस परम्‍परा को विठोवा उपासना की ओर भी मोड़ दिया। जहां जाति-पांति, आडम्‍बरवादी परम्‍परा, मुखबानी नामक पुस्तक में इनकी रचनाएँ संग्रहित हैं। आज भी इनके रचित गीत पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं।

हालांकि नामदेव ने अपनी कुछ रचनाओं में माना है कि वे ईश-भक्ति और सत्‍संग के बल पर अपना जीवन सुधार पाये और प्रभु का दर्शन भी कर लिया। विचार के तौर पर यह महान संत लोगों के दिलोदिमाग में समाया रहा। यही वह कारण रहा कि कोई भी नामदेव को खुद से दूर करने को तैयार नहीं हुआ। महाप्रयाण को लेकर भी ऐसा ही हुआ। शक संवत 1272 में इनकी समाधि किसी ने घोमान मानी तो कोई पंढरपुर। यानी ज्ञान का सेतु लम्‍बी दूरी तक के सफर को आसान बना ही गया।

लेखक कुमार सौवीर सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. वे कई अखबारों तथा चैनलों में वरिष्‍ठ पदों पर काम कर चुके हैं. इन दिनों एस टीवी के यूपी ब्‍यूरो प्रमुख के रूप में कार्यरत हैं. उनका यह लेख लखनऊ से प्रकाशित जनसंदेश टाइम्स अखबार में छप चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है.

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