अयोध्या मसले पर उच्च न्यायालय के फैसले ने साबित कर दिया कि राष्ट्रीय सौहार्द हमारी साझा विरासत है। लगे हाथ यह भी साबित हो गया कि आम भारतीयों की राय बदलने लगी है। वह अमन और जीवन में बेहतरी को पसंद करने लगा हैं। ऐसे में वह वक्त आ गया है कि अब तक धर्म, संप्रदाय और जाति की आड़ लेकर सियासी खेल खेल रहे लोगों को सजग हो जाना चाहिए, क्योंकि तीस सितंबर को आवाम ने जिस धैर्य और आपसी सद्भभाव का श्रेष्ठतम परिचय दिया है, उससे यह साफ हो जाता है कि देश की जनता जागरूक हो चुकी है। वह धर्म-जाति की राजनीति से ऊब चुकी है। उस दिन सजगता और सौहार्द का आलम तो यहां तक दिखा कि फैसले को लेकर यदि किसी ने अति उत्साह में तीखी टिप्पणी करने की कोशिश की तो उसी के साथियों ने उसी मजबूती के साथ उसे खामोश रहने के लिए विवश भी किया।
प्रशासन की चाक-चौबंद व्यवस्था के चलते सड़कों पर सन्नाटा जरूर था लेकिन गलियों-चौराहों पर भाईचारगी सिर चढ़ कर बोलती रही। न्यायिक फैसले पर आवाम के इस मौन समर्थन से पूरी दुनिया के सामने भारत का सिर एक बार फिर फक्र से ऊंचा हो गया। खुशी इस बात की भी है कि अयोध्या प्रकरण के हौव्वे से दहशतजदा आवाम को बड़े नसीब से यह सुकून मयस्सर हुआ है। ऐसे मौके पर पुराने गिले-शिकवे भूल कर अदालत के इस ऐतिहासिक फैसले को धर्म-संप्रदाय से ऊपर उठकर न केवल स्वीकार करने की, बल्कि आपसी भाईचारे के बल पर संगठित होकर नया इतिहास रचने की जरूरत है। अदालत के फैसले को यदि सुलह-समझौते के नजरिए से देखा जाए तो आपसी बातचीत से समाधान के तमाम रास्ते खुलते नजर आएंगे। उच्च न्यायालय के आलोक में अब कोशिश ऐसी हो कि फिजां में एक बार फिर ‘कबीर, रहीम, नानक, राम, इनसे ही है मेरे नाम’ की सदाएं गूंज उठे।
हमें इस बात पर भी गर्व होना चाहिए कि उच्च न्यायालय के फैसले ने यह भी प्रमाणित किया है कि देश का धर्मनिरपेक्ष चेहरा अब भी बरकरार है। भारत शांति और न्याय का पुजारी था, है और आगे भी रहेगा, लेकिन दुःख इस बात का है कि देश की जनता जिस फैसले को आपसी सद्भभाव के रूप में आगे बढ़ाना चाहती है हमारे सियासतदां इसमें अपना लाभ-हानि ढूंढ अमन की राह में कांटे बिखेरने की कोशिश कर रहे हैं। कतिपय राजनीतिक दल इस फैसले को अपने-अपने चश्मे से देखने लगे हैं। लाभ-हानि की कसौटी पर कसने की कवायद शुरू हो गई है। इस फैसले में किसी को एक पक्ष को ठगा सा महसूस होता दिखाई देखने लगा है, तो कोई इसमें माहौल को गर्माने का रास्ता तो कोई 2012 के विधानसभा चुनाव का मुद्दा तलाश रहा है। बयानों के जरिए अमन की राह में कांटा बिछाने और देश को एक बार फिर सांप्रदायिक आग में झोंकने का ताना-बाना बुना जाने लगा है।
यहां यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि ये वे ही लोग हैं जिसकी दुकानदारी सांप्रदायिकता पर टिकी थी। ताज्जुब इस बात का है कि फैसला आने से ठीक एक दिन पहले तक जो हमें देश की एकता-अखंडता और संयम का पाठ पढ़ा रहे थे, सियासी उम्मीदों के खिलाफ फैसला देख बौखला उठे। दुकानदारी खटाई में पड़ती देख जब नहीं रहा गया तो वे अपने असली रूप में आ गए। अब वे वर्ग विशेष के पाले में खड़े होकर लुत्ती लगाने में जुट गए। वह भी ऐसे समय में जब यह पक्का हो चुका है कि असंतोष की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय का रास्ता खुला हुआ है। फिर असंतोष का माहौल तैयार करना किस राजनीति को दर्शाता है।
साफ है, समाजिक बिखराव और एक दूसरे के बीच संघर्ष का माहौल ऐसी संकीर्ण मानसिकता वाली राजनीति का ही नतीजा है। यही वजह है कि तमाम कोशिशों के बाद भी देश विकास की जगह विनाश का रास्ता अख्तियार करता जा रहा है। राजनीति तो विश्व पटल पर देश के आर्थिक और सामाजिक विकास की पहचान कराती है। इसका फलक वर्ग विशेष तक सीमित न हो कर संपूर्ण समाज व देश तक होता है। न्यायालय के फैसले पर अपना लीलार फोड़ने का स्वांग रचने वाले विश्व पटल पर देश की कौन सी छवि प्रस्तुत कर रहे हैं, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। ऐसे में मुस्लिन धर्मगुरुओं का यह बयान कि संवेदनशील मुद्दों पर कम से कम संयम बरतने की जरूरत होती है। हमें ऐसी राजनीतिक बयानबाजी से बचना चाहिए जो असंतोष का कारण बने, न केवल स्वागत योग्य है बल्कि संकीर्ण मानसिकता वाले राजनीतिकों के मुंह पर करारा तमाचा भी है। कुल मिला कर देखा जाए तो कतिपय नेताओं का यह कदम नागरिक समाज के लिए अच्छा भी है, क्योंकि ऐसे नापाक मंसूबों वाले लोगों का चेहरा बेनकाब होना भी जरूरी हो गया था, ताकि अवसर आने पर एक एक को मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके।
लेखिका रीता जायसवाल समाजसेविका हैं तथा वाराणसी में रहकर स्वतंत्र लेखन करती हैं.