सिर्फ वही प्रजातियां बचती हैं जो सहयोग से रहती हैं और वक्त के साथ खुद को बदलती हैं। मुसलमानों को अब सोचना चाहिए कि अब पूरा विश्व यह जानना चाहता है कि इस्लाम की शिक्षाओं का दूसरे धर्मों के साथ क्या सम्बन्ध है। दुनिया के दूसरे मुसलमानों से भारत के मुसलमान अलग हैं। अब अयोध्या विवाद का हल निकाल कर उन्हें अपनी भूमिका की शुरूआत करनी चाहिए। यह बात अगर किसी नेता ने कही होती तो अब तक हंगामा खड़ा हो चुका होता। वैसे यह साफगोई अब किसी नेता के बस की बात रही भी नहीं। इतनी सीधी-सच्ची बात तो एक फक्कड़ ही कह सकता है और इस मामले में यह फक्कड़ एक न्यायाधीश है। जी हां ! और वह जज कोई साधारण नहीं, बल्कि अयोध्या की विवादित जमीन पर फैसला करने वाली तीन जजों की इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ बेंच का सदस्य है। नाम है जस्टिस सिबगतुल्लाह खान। न्यायमूर्ति खान इस बेंच के अध्यक्ष हैं।
तीस सितम्बर को लखनऊ, यूपी और पूरा देश ही नहीं, बल्कि दुनिया के ज्यादातर देश इस फैसले की प्रतीक्षा में पल-पल करवट बदल रहे थे। दोनों ही समुदायों के दिल की धड़कनें बेइंतिहा तेज होती जा रही थीं और प्रशासन के हाथ-पांव फूल चुके थे। सड़कों और गलियों में पसरा मौत का सा सन्नाटा अर्ध्दसैनिक बलों के चरमराते जूतों से रह-रह कर टूट रहा था। राजनीतिक दल अपनी गोटियां चलने के लिए फैसले की बेताबी से प्रतीक्षा कर रहे थे। बावजूद इसके कि माहौल को शांत और संयत रखने के अपने संकल्प को मीडिया तोडना नहीं चाहता था, मगर इस मसले पर अपने दर्शकों-पाठकों तक खबर पहुंचाने की आपाधापी तो जबर्दस्त थी ही। लेकिन अगर कोई इस पूरे मामले में पूरी तरह संयत, शांत और निस्पृह रह कर अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहा था, तो वह थी इन तीन जजों की पीठ और खासतौर पर इस पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति सिबगतुल्लाह खान। वे एक ऐसा फैसला लिख रहे थे जो इतिहास ही नहीं, बल्कि भविष्य के पन्नों पर भी स्वर्ण-अक्षरों से अंकित होने जा रहा था। इतना ही नहीं, इस फैसले से यह भी साबित होना था कि भारत में लोकतंत्र और आजादी का मतलब क्या है।
और ठीक साढे तीन बजे इस जज ने अपने उस सहज-सामान्य दायित्व का पालन कर ही दिया जिसे आम भारतीय महानतम की श्रेणी में रखेगा। यह वही दायित्व है, जो हमारे संविधान के पहले पन्ने की पहली लाइन पर दर्ज है कि हम भारत के लोग— तो आइये, जस्टिस खान ने इस मामले पर जो फैसला दिया, उस पर एक निगाह डाल ली जाए-
“केवल वही प्रजातियां ही बच पाती हैं जो सहयोग और समन्वय के साथ जीना सीख लेती हैं और वक्त के साथ अपने आप को बदल लेती हैं। मुसलमानों को सोचना चाहिए कि अब पूरी दुनिया यह जानना चाहती है कि इस्लाम की शिक्षाओं का दूसरे धर्मों के साथ क्या सम्बन्ध है। इस बारे में भारतीय मुसलमान दुनिया के दूसरे मुल्कों के मुसलमानों से अलग हैं। भारत के मुसलमानों ने इस मुल्क पर शासन किया है, प्रजा के तौर पर शासित भी रहे हैं और अब वे सरकार में भागीदार भी हैं। हां, अभी यह हिस्सेदारी छोटी है। यह ठीक है कि भारत के मुसलमान बहुसंख्यक नहीं हैं, मगर नगण्य भी नहीं हैं। अन्य देशों में मुसलमान बहुत बडी संख्या में हैं जो उन्हें दूसरों की समस्याओं के प्रति उदासीन बनाता है। मगर जहां वे अल्प संख्या में हैं, वहां वे कोई खास महत्व ही नहीं रखते। भारतीय मुसलमानों को तो विरासत में ज्ञान मिला है और धार्मिक शिक्षाएं भी मिली हैं। इस लिए अब यहां के मुसलमान पूरी दुनिया को हालात का सही भान यानी अहसास कराने के लिए ज्यादा उपयुक्त हालत में हैं। ऐसे में उन्हें इस विवाद का हल निकाल कर अपनी भूमिका की शुरूआत कर देनी चाहिए।”
लेखक कुमार सौवीर महुआ न्यूज उत्तर प्रदेश के ब्यूरो चीफ हैं.