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समाज-सरोकार

121 करोड़ के देश में सिर्फ एक अन्ना हजारे

121 करोड़ भारतीयों के देश में 72 साल के समाजसेवी अन्ना हजारे ने जो बिगुल बजाया है इसे भारतीय लोकंतत्र के लिए एक अच्छी पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। देश के 66 फीसदी लोग मानते हैं कि देश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। हजारे ने राजनीतिज्ञों की चूलें हिला दी और केंद्र सरकार भी सकते में है। बड़े भ्रष्टचार के आरोपों में कई दिग्गज राजनीतिज्ञ और अफसरशाह शिकंजे में हैं लिहाजा ऐसे में अन्ना हजारे के आंदोललन व्‍यवस्था को हिलाने का मादा रखता है। ऐसी स्थिति में यदि आजादी के बाद यह आंदोलन जन आंदोलन बन कर आजादी की दूसरी लड़ाई बनता है तो इसके नतीजे राजनीतिज्ञों को भले ही रास न आए लेकिन देश बिगड़ती व्‍यवस्था को पटरी पर लाने में यी मददगार साबित हो सकता है।

<p style="text-align: justify;">121 करोड़ भारतीयों के देश में 72 साल के समाजसेवी अन्ना हजारे ने जो बिगुल बजाया है इसे भारतीय लोकंतत्र के लिए एक अच्छी पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। देश के 66 फीसदी लोग मानते हैं कि देश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। हजारे ने राजनीतिज्ञों की चूलें हिला दी और केंद्र सरकार भी सकते में है। बड़े भ्रष्टचार के आरोपों में कई दिग्गज राजनीतिज्ञ और अफसरशाह शिकंजे में हैं लिहाजा ऐसे में अन्ना हजारे के आंदोललन व्‍यवस्था को हिलाने का मादा रखता है। ऐसी स्थिति में यदि आजादी के बाद यह आंदोलन जन आंदोलन बन कर आजादी की दूसरी लड़ाई बनता है तो इसके नतीजे राजनीतिज्ञों को भले ही रास न आए लेकिन देश बिगड़ती व्‍यवस्था को पटरी पर लाने में यी मददगार साबित हो सकता है।</p> <p style="text-align: justify;" />

121 करोड़ भारतीयों के देश में 72 साल के समाजसेवी अन्ना हजारे ने जो बिगुल बजाया है इसे भारतीय लोकंतत्र के लिए एक अच्छी पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। देश के 66 फीसदी लोग मानते हैं कि देश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। हजारे ने राजनीतिज्ञों की चूलें हिला दी और केंद्र सरकार भी सकते में है। बड़े भ्रष्टचार के आरोपों में कई दिग्गज राजनीतिज्ञ और अफसरशाह शिकंजे में हैं लिहाजा ऐसे में अन्ना हजारे के आंदोललन व्‍यवस्था को हिलाने का मादा रखता है। ऐसी स्थिति में यदि आजादी के बाद यह आंदोलन जन आंदोलन बन कर आजादी की दूसरी लड़ाई बनता है तो इसके नतीजे राजनीतिज्ञों को भले ही रास न आए लेकिन देश बिगड़ती व्‍यवस्था को पटरी पर लाने में यी मददगार साबित हो सकता है।

अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिए और उनके चंगुल से रिहाई के लिए आजादी के दीवानों ने एक लंबी लड़ाई लड़ी। 90 साल के संघर्षों और बलिदानों की बुनियाद पर देश गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ। आजादी का सपना सच होने पर देश की बागडोर एवं सत्ता संभालने वालों ने आजादी की खुली हवा में  भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक संपन्नता और खुशहाली का सपना साकार करने के लिए देश में लोकतांत्रिक व्‍यवस्था स्थापित करने का खाका तैयार किया। एक ऐसी व्‍यवस्था की परिकल्पना की गई जिससे कभी सोने की चिडि़या कहलाए जाने वाला भारत, अपनी खोई प्रतिष्ठा, अतीत और गौरव पुनः हासिल कर सके। आजादी के एक-डेढ दशक बाद ही लोकतंत्र की गाड़ी को जनता के नुमाइदों और हुकमरानों ने पटरी भटका दिया और आजादी के दीवानों का आजादी की खुली हवा में खुशहाली का सपना महज सपना बन कर ही रह गया।

आजादी के चैसठ सालों की दहलीज तक पंहुचते-पंहुचते भारत में भ्रष्टाचार उच्चतम शिखर की ओर अग्रसर है। अन्य घोटालों को यदि छोड़ दिया जाए तो हाल ही में उजागर हुए कॉमनवेल्थ खेल आयोजन, 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन, एस बैंड स्पेक्ट्रम आवंटन, आदर्श हाउसिंग और खाद्यान्न घोटालों में ही करीब पांच लाख करोड़ रुपये की चपत लगी है। जो देश के सालाना खर्च से थोड़ी ही कम थी। देश के सकल घरेलू उत्पाद का 10 फीसदी केवल उन चंद लोगों की जेब में पहुंच गया, जिन्होंने इन पांच 5 बड़े घोटाले को अंजाम दिया। इसके अलावा समूची व्‍यवस्‍था में घोटाले का जिन्न छिपा हुआ है। देश में हो रहे इन घोटालों में सबसे बड़ा रोल इस देश के राजनीतिज्ञों का है और नौकरशाह इनमें अहम भूमिका अदा करते हैं।

एक ओर देश की लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में जनता की, जनता के द्वारा, जनता के लिए सरकार चुनने का प्रावधान है। गनीमत देखिए इस देश में विभिन्न स्तरों पर चुनावों के लिए चुनाव खर्च तय कर यही संदेश दिया जाता है कि धन के बिना चुनाव लड़ा नहीं जा सकता। यदि जनता का नुमाइंदा जनता का हितैषी होगा तो उसे चुनाव में भारी भरकम धन खर्च करने की क्योंकर जरूरत पड़ेगी। चुनावों में यदि धन खर्चे बिना जनता की नुमाइंदा चुन कर आएगा तो निश्चित रूप से भ्रष्टाचार को पनाह देने की अपेक्षा जन सरोकारों को तवज्जो देगा। भारत की वर्तमान राजनीतिक व्‍यवस्‍था में धन-कुबेर साम-दाम, दंड भेद की नीति अपनाते हुए पानी की तरह पैसा बहा कर सता हासिल करने की नीति अपनाए हुए हैं। जाहिर है सत्ता में आते ही खर्चे की भरपाई और अगले चुनाव का जमा जोड़ ही ऐसे राजनीतिज्ञों का लक्ष्य होगा। चुनाव में सत्ता हासिल करने के लिए धन बल के उपयोग के ताजा प्रमाण हाल ही में हो रहे तमिलनाडु, असम, केरल और पश्चिम बंगाल आदि में जब्त किए गए करोड़ों रूपए हैं।

2009 में हुए लोकसभा चुनावों में देश में 10 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए। इसमें 1300 करोड़ चुनाव आयोग ने खर्च किए जबकि 700 करोड़ केंद्र व राज्य सरकारों ने खर्च किए। बाकी बचे 8000 करोड़ रुपये राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों ने खर्च किए हैं। यदि  विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों को शामिल कर लिया जाए तो यह रकम 25 हजार करोड़ को भी पार कर जाती है। चुनावों में होने वाला यही भारी भरकम निवेश भ्रष्टाचार के रूप में तीव्रता से विकसित हो रहा है। संसद, विधानसभा या मीडिया में कोई भी दल भले ही खुद को पाक दामन और दूसरों को दोषी साबित करने में कोई कसर न छोड़े लेकिन यह सच है कि भाजपा, कांग्रेस सहित अधिकांश राजनीतिक दल इसी मर्ज के शिकार हैं और चुनावों में खूब धन खर्च करते हैं।

80 के दशक के बाद एक के बाद एक उजागर होते घपलों और घोटालों, जांच आयोगों के गठन, दशकों तक चलने वाली जांच और नतीजा सिफर की नीति ने भारत में भ्रष्टाचारियों के हौसलों को बुलंद कर दिया। देश भ्रष्टाचार की गिरफ्त में है। हैरानी तो इस बात की है कि बड़े-बड़े भ्रष्टाचार में कई आला राजनीतिज्ञ और हुकमरान आरोपों के घेरे में हैं। 1968 से भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए बनाया जा रहा लोकपाल विधेयक कागजों में ही उलझ कर रह गया है। भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए सरकार की नाकामी से खिन्न हो कर आखिर अन्ना हजारे ने ताल ठोंक दी और उनके साथ आवाम भी खड़ा हो रहा है। हालांकि राजनीतिज्ञों ने दिखावा करने तथा सुर्खियां बटोरने के लिए इस मंच का लाभ उठाने की कोशिश की लेकिन इन नेताओं को नजदीक तक फटकने न देना भ्रष्टाचार के खिलाफ इस मुहिम की पहली जीत है। 121 करोड़ भारतीयों के देश में अब एक अन्ना हजारे ने इस बिषाक्त जीवाणु के नाश के लिए मुहिम छेड़ दी है। लेकिन हैरानी की बात है कि क्रिकेट में जीत के जश्न के जनून में करोड़ों लोगों की भीड़ शुमार होती है, लेकिन भ्रष्टाचार से मुक्ति की दिशा में लोगों में अभी भी वैसा उत्साह कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है। वजह हाई प्रोफाइल भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ अवाज बुलंद करने वालों का जो हश्र इस देश में हो रहा है, यह खौफ भी इसकी एक वजह हो सकता है। तेल माफिया द्वारा मजिस्‍ट्रेट को जिंदा जला देने जैसे इसके कई प्रमाण भी हमारे सामने हैं।

यह भी एक सच्चाई है कि घोटालेबाजों, टैक्स चोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई किए बिना, ऐसी मुट्ठी भर ताकतों पर नकेल कसे बिना तथा भ्रष्टाचार को खदेड़े बिना हम संपन्नता, सुख-समृद्धि और खुशहाली की परिकल्पना भी नहीं कर सकते। आंकड़ों और कागजी घोड़ों पर सवार इंडिया भले ही दुनिया का सरताज बनने के सपने बुन रहा हो, लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि हमारे सामने एक एक देश की दो अलग-अलग छवियां उभर कर सामने आती हैं। एक संपन्न इंडिया जो शहरों में रहता है और दूसरा वही समस्याओं की जंजीरों में जकड़ा असली भारत। बहरहाल आजादी के बाद देश में भ्रष्टाचार संपन्नता और आम आदमी की खुशहाली के मार्ग का सबसे बड़ा बाधक बना हुआ है। इतने बड़े राष्ट में देश के विकास पर खर्च किए जाने वाले धन पर गिद्ध दृष्टि रखने वालों और इस धन में सेंधमारी करने वालों की तादाद मुट्ठी भर है, लेकिन इनमें राजनीतिज्ञों और हुकमरानों और सरकारी तंत्र के संचालकों की तादाद कम नहीं कही जा सकती। धन बल के बूते ही मुटठी भर लोग भारतीय लोकतंत्र की शासन व्‍यवस्था को अपने व अपनों के हित साधने के उदेश्य के अनुरूप ही चला रहे हैं।

आजादी के बाद देश में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया है। बिना लिए दिए कुछ करने की कार्यशैली कहीं विलुप्त सी हो गई है। सरकारी धन की तिजोरी जैसे लाभ कमाने का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। इस बात के कई प्रमाण अब सामने आने लगे हैं। विकास से जुड़े कार्यों का आबंटन भी मंत्रियों और नेताओं की अनुशंसा से चहेतों को करने की पंरपरा तेजी से विकसित हो रही है और हुकमरानों की हिस्सेदारी की परंपरा, राजनीतिज्ञों के प्रश्रय से ही भ्रष्टाचार का बेलगाम घोड़ा भारतीय लोकतंत्र में विचरण कर रहा है। भारत के हालात पर दुनिया भर के कई देशों के गैर सरकारी संगठन, अनुसंधानकर्ता और अध्ययनकर्ता ऐजेंसियां भी अपनी रिपोर्ट समय- समय पर जारी करती रहती हैं। ये ऐजेंसियां इस देश में भूख, गरीबी, भ्रष्टाचार आदि को उजागर कर भारतीय लोकंतत्र की कुल जमा तस्वीर दुनिया के सामने रख रही हैं और इस देश के नेताओं को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। बड़े लोग, बड़े घोटाले और गुनाह करने के बाबजूद भी कानून के शिकंजे और सजा से बचे रहते हैं।

दुनिया के विभिन्न देशों से दुनिया के सबसे बड़े लोकंतत्र के बारे में आने वाली रिपोर्टे भी शर्मसार करती हैं। भारत में आधे से ज्यादा लोग भ्रष्ट हैं या फिर रिश्वत के लेन-देन में भागीदार हैं। एक गैर सरकारी संगठन ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ की गत वर्ष जारी 7वीं रिपोर्ट के देश की आधे से ज्यादा यानी 54 फीसदी आबादी भ्रष्ट है। इस रिपोर्ट के मुताविक गत वर्ष भारत में हर दूसरे शख्स ने अपना काम कराने के लिए अधिकारियों और कर्मचारियों को रिश्वत दी। देश की पुलिस को रिश्वत लेने के मामले में नंबर वन बताया गया है। इस सर्वे में भारत को इराक और अफगानिस्तान सहित सबसे भ्रष्ट देशों में गिना गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की इस 7वीं रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल भारत में अपना कोई न कोई जरुरी काम करवाने के लिए 54 फीसदी लोगों ने रिश्वत दी।

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वाशिंगटन के एक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ समूह ग्लोबल फाइनेंशियस इंटिग्रिटी ने अपने एक अध्ययन के हवाले से खुलासा किया है कि स्वंत़त्रता के बाद भारत ने साल 2008 तक 20,556 अरब रुपए या करीब 20 लाख करोड़ भ्रष्टाचार, अपराध और टैक्स चोरी के कारण गंवाए है। इस संस्था द्वारा हाल ही में जारी ‘द ड्राइवर्स एंड डायनामिक्स आफ इलिसिट फाइनेंशियल फ्लो फ्राम इंडिया 1948-2008 शीर्षक से जारी रिपोर्ट के मुताबिक 1991 में भारत की सुधरती अर्थव्यवस्था के बावजूद देश से बाहर अवैध रूप से भेजे जा रहे धन की मात्रा काफी बढ़ी है।

इस आंकलन के अनुसार भारत को कुल 462 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है और इसमें से बड़ी रकम विदेशी बैंकों में जमा है। भारतीय मुद्रा में यह रकम कुल 20,556,548,000,000 या करीब 20 लाख करोड़ रुपए होती है। यह राशि भारत के कुल कर्ज से दोगुने से भी अधिक है। संस्था के संचालक रेमंड्स बेकर का कहना है कि इतनी बड़ी रकम देश से बाहर जाने का ही नतीजा है कि भारत में गरीब और गरीब हो गया है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में हर साल करीब 1 खरब डॉलर से भी ज्यादा राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है और भारत जैसे विकासशील देशों में हर साल 20 से 40 अरब डॉलर का रिश्वत के रूप में आदान प्रदान होता है।

रिपोर्टों के मुताबिक भारत के करीब 74 फीसदी लोग मानते हैं कि पिछले तीन सालों में भ्रष्टाचार के मामलों में और भी इजाफा हुआ है। भारत में टूजी स्पेक्ट्रम से देश को 1 लाख 76 हजार करोड़ का चूना लगाने का मामला, मुंबई में आदर्श घोटाला, कॉमनवेल्थ में सैकड़ों करोड़ का घोटाला और हसन अली जैसे करोड़ों रूपए के कर चोरी आरोपियों जैसे कई खुलासे इस रिपोर्ट को पुष्ट भी करते हैं। देश के हालात बिगड़ते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक अन्ना हजारे नहीं बल्कि भारत के हर शख्स को हजारे की तरह ही भूमिका अदा करनी होगी। देश को एक ऐसे जन आंदोलन की दरकार है, जिससे वर्तमान में अपना और अपनो का हित साधने में जुटी राजनीतिक और प्रशासनिक व्‍यवस्था को सबक सिखाया जा सके। यदि राष्ट्र की राजनीति और प्रशासनिक अमला भ्रष्टाचार से दूर होगा तभी  भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र की परिकल्पना साकार हो सकती है। यदि भारत के लोग एकजुट होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोलकर जीत दर्ज करते हैं तो ऐसी स्थिति में न तो किसी लोकपाल विधेयक की जरूरत पड़ेगी और न ही किसी भ्रष्टाचार रोधी कानून की।

121 करोड़ भारतीयों के देश में एक अन्ना हजारे काफी नहीं है अपितु हर भारतीय को उनकी सोच के साथ खड़ा होने की भी जरूरत है। इतिहास की परतों के अनुसार एकजुटता के अभाव में ही कई लड़ाइयां हम हार चुके हैं। बाबरनामा में उल्लेख है कि मुट्ठी भर बाहरी हमलावर भारत की सड़कों से गुजरते थे तो सड़क के दोनों ओर लाखों की संख्या में खड़े लोग मूकदर्शक बन कर तमाशा देखते थे। इस पर बाहरी आक्रमणकारियों ने कहा है कि यदि यह मूकदर्शक बनी भीड़ हमलावरों पर टूट पड़ती तो भारत के हालात कुछ और होते। इसी तरह पलासी की लड़ाई में एक तरफ 50,000 भारतीयों की फौज और दूसरी ओर अंगरेजों के 3000 सिपाही थे फिर भी जीत अंग्रेजों की हुई। जब बख्तियार खिलजी ने नालंदा पर ग्यारहवीं शताब्दी में आक्रमण किया, खिलजी के सौ से भी कम सिपाहियों की फौज ने नालंदा के दस हजार से ज्यादा भिक्षुओं को भागने पर मजबूर कर दिया था।

यदि यह कहा जाए कि भारत में भ्रष्टाचार भी अंग्रेजों की देन है तो इसमें भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इतिहास साक्षी है कि भारत की आजादी के पूर्व अंग्रंजों ने सुविधाएं प्राप्त करने के लिए भारत के सम्पन्न लोगों को सुविधास्वरूप धन देना प्रारंभ किया। राजे रजवाड़े और साहूकारों को धन देकर न केवल उनसे वे सब कुछ प्राप्त कर लेते थे बल्कि धन देकर अपने ही देश के साथ गद्दारी करने के लिए भी प्रेरित करते थे। आजादी के बाद ऐसे कई लोग भारतीय सियासत में आए और इस देश को चलाने वाले हुकमरानों ने भी अंग्रेजों के इसी नुस्खे को बरकरार रखा। अब यह विषवेल बन कर लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर रहा है।

हर घपले और घोटाले के बाद आयोग और समितियां गठित की जाती है लेकिन नतीजा फिर भी सिफर रहता है। देश के राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरोपों की बौछार करते हैं लेकिन सही मायने में कोई भी भ्रष्टाचार पर नुकेल कसने के लिए सही मायने में कोई भी गंभीर नहीं हैं। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का यह कहना बिल्कुल सही है कि भ्रष्टाचार भारत के लिए कोई नई बात नहीं है। यदि पिछली सरकारों की भी जांच हो तो वहां भी भ्रष्टाचारी मिल जाएंगे। उनकी यह बात भी तर्कपूर्ण एवं विचारणीय है कि इसे केवल मौजूदा सरकार से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। उनकी इस बात पर अमल किया जाना चाहिए कि यदि आप स्वीकार करते हैं कि समाज की प्रगति और राजनीति, सामाजिक एवं आर्थिक नैतिकता की प्रगति में व्यवस्थागत खामियां छा गई हैं, तब आरोपों की अपेक्षा उसका हल ढूंढना चाहिए।

बहरहाल अन्ना हजारे का अनशन रंग ला रहा है। उनका लोकपाल विधेयक का मसौदा और जारी आंदोलन क्या रंग लाता है, यह तो समय ही बताएगा। क्या लोकपाल विधेयक इस देश में भ्रष्टाचर पर नकेल कसने, वर्तमान राजनीतिक व्‍यवस्था और नौकरशाही को पटरी पर लाने के लिए कारगर साबित होगा? इस बात की भी आंशका है लेकिन इतना जरूर है कि हजारे ने जिस ओदालन का आगाज किया है यह भटकाव की राह पर भारतीय व्‍यवस्था के लिए एक अच्छी शुरुआत है। भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई इस जंग से एक दिन ऐसा माहौल भी बन सकता है कि भ्रष्टाचारियों को कानून के हवाले करने की अपेक्षा सरेआम दौड़ा-दौड़ा कर पीटेंगे और भ्रष्टाचारी ताकतें हर गुनाह से पहले नतीजे की परिकल्पना करेंगे।

लेखक दौलत भारती हिमाचल प्रदेश के वित्‍त विभाग में सेवा करने के पश्‍चात वीआरएस ले लिया है. पिछले ढाई दशकों से से स्‍वतंत्र लेखन में रमे हुए हैं. इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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