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समाज-सरोकार

अयोध्‍या 13 : सद्भावना से उनको हो रहा है दर्द!

 

पंकज झाक्या आपने वालीवुड की दबंग दुनिया से बाहर कभी ‘बदनाम’ होने के बाद भी नाचते किसी मुन्नी को देखा है? अगर नहीं तो नेट पर हिन्दी साइटों को खंगालना शुरू कर दीजिए. आपको पता चल जाएगा कि केवल मलाइका अरोड़ा ही किसी डार्लिंग के लिए बदनाम होने पर नहीं नाचती है. समाज में भी, बदनाम होने के बावजूद भी नाचने वाले लौंडों की ज़मात काफी है. आपको मालूम होगा कि हिन्दी पट्टी में वर्षों से मशहूर ‘लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए’ गाने के तर्ज़ पर ही ‘डार्लिंग’ के लिए बदनाम होती मुन्नी का जन्म हुआ है. तो अयोध्या मामले पर फैसला आ जाने के बाद जहां पूरे देश में शांति और सौमनस्यता का माहौल है, वहां कुछ बदनाम हुए लौंडों को आप आग लगाने के फिराक में नाचते देख सकते हैं. हालांकि ये लौंड़े किसी ‘नसीबन’ के लिए बदनाम नहीं हुए हैं.

पंकज झा

 

पंकज झाक्या आपने वालीवुड की दबंग दुनिया से बाहर कभी ‘बदनाम’ होने के बाद भी नाचते किसी मुन्नी को देखा है? अगर नहीं तो नेट पर हिन्दी साइटों को खंगालना शुरू कर दीजिए. आपको पता चल जाएगा कि केवल मलाइका अरोड़ा ही किसी डार्लिंग के लिए बदनाम होने पर नहीं नाचती है. समाज में भी, बदनाम होने के बावजूद भी नाचने वाले लौंडों की ज़मात काफी है. आपको मालूम होगा कि हिन्दी पट्टी में वर्षों से मशहूर ‘लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए’ गाने के तर्ज़ पर ही ‘डार्लिंग’ के लिए बदनाम होती मुन्नी का जन्म हुआ है. तो अयोध्या मामले पर फैसला आ जाने के बाद जहां पूरे देश में शांति और सौमनस्यता का माहौल है, वहां कुछ बदनाम हुए लौंडों को आप आग लगाने के फिराक में नाचते देख सकते हैं. हालांकि ये लौंड़े किसी ‘नसीबन’ के लिए बदनाम नहीं हुए हैं.

यह बदनाम हुए हैं हिटलर के देश के अपने डार्लिंग मार्क्स और थ्येन-आनमन चौराहे पर भटकते माओ के लिए. तो गुस्सा के बदले आनंद उठाने का आग्रह, क्यूंकि अब यह तय हो गया है कि ये तत्व इस देश का कुछ बिगाड़ सकने की हालत में नहीं हैं. इन वृहन्न्लाओं को आप मनोरंजन शुल्क के रूप में चंद टुकड़े तो थमा सकते हैं लेकिन यह आपको डरा दें इनमें अब ऐसी पुरुषार्थ नहीं.

इन नमूनों में कुछ के नमूने देखिये. एक ‘शेष’ नाग हैं. इन्होंने लिखा कि ऐसे फैसले उनके गांव में नहीं हुआ करते हैं. तो पता नहीं दुनिया से अलग कौन सा गांव इन्होंने बसा रखा है, जहां केवल दुर्भावना पूर्ण फैसले ही लिए जाते हैं. हो सकता है उनके गांव में कोई ‘खाप’ जैसी पंचायत हो जो इनके अनुकूल ही फैसले सुनाती हो सदा. अन्यथा सद्भावना कायम रखने के इस फैसले से उनको दर्द क्यों हो रहा है, इसका वाजिब कारण पता लगाना इतना मुश्किल भी नहीं है. ऐसे ही एक और विघ्नसंतोषी का कहना था कि पहले वहां मस्जिद का निर्माण हो जाने देना था फिर अगर कोर्ट को लगता कि वहां हिंदू पक्ष मज़बूत है तो किसी अन्य फैसले के बारे में बाद में सोचा जाता. अब इसका क्या जबाब दें यह पाठक पर ही छोड़ना उचित होगा. लेकिन अपने इस बात को साबित करने में इन्होंने तमाम न्यायिक मर्यादाओं को ताक पर रख बेचारे न्यायालय की अवमानना तक पहुंच गए. ऐसे ही एक मित्र हैं बेचारे चौपाये, जिनका उपनाम जिस भारतीय संस्कृति में वर्णित चारों वेदों का प्रतिनिधित्व करता है वही अपने ही पुरुखों को मिली मान्यता पर कुठाराघात करके पन्ने पे पन्ने रंगे जा रहे हैं.

अब इनपर और इन जैसे तमाम भड़ास पर शब्दशः प्रतिक्रया देना या तत्वतः जबाब देना तो एक आलेख में संभव नहीं है फिर भी एक मौलिक सवाल यह उठता है कि आखिर इस फैसले से इन सभी के पेट में दर्द क्यूं है? जी बिल्कुल सही. पेट में दर्द इसलिए क्योंकि लात इनके पेट पर ही पड़ी है. अभी तक देश को बदनाम कर-करके, अपने ही बाप-पुरुखों की संस्कृति को गरिया करके, देश का सम्मान और स्वाभिमान बेच कर तो पेट भरते रहे हैं ये अभागे. कहावत है कि “किसी को अगर किसी बात का घमंड हो जाय तो ‘ज्ञान’ उस घमंड को दूर कर देता है. लेकिन उसका क्या करें जब किसी को ज्ञान का ही घमंड हो?’’ तो अपने ज्ञान के मद में चूर इन रावणों की नज़र में लोकतांत्रिक प्रणाली गलत. देश का प्रेस और मीडिया गरियाने लायक. मानवाधिकार समेत सभी तरह के आयोग तभी तक सही जब तक इनकी बात मानें और अब न्यायपालिका भी काम का नहीं. गोया दुनिया भर के सभी सरोकारों का ठेका इन्ही के पास है. हर वो चीज गलत जो इनके मुताबिक़ ना हो. आखिर ये होते कौन हैं और इनकी हैसीयत क्या है कि चुनी हुई व्यवस्था से लेकर छन कर आये न्यायिक फैसले तक, सब पर सवाल खड़ा करें?

खैर..इस फैसले के बाद फिजा में घुला नव निर्माण का संकल्प ज़रूर इनकी रोजी-रोटी पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है. लेकिन सवाल यह है कि केवल इनका पेट पालने के देश की एकता को दांव पर लगा दिया जाय? असली बात यह है कि न्यायालय ने अपने फैसले में ना केवल भगवान राम के अस्तित्व को स्वीकार किया बल्कि संबंधित जगह पर ही उनका जन्म होना भी निश्चित कर दिया. सामान्य तौर पर भले ही यह कोई बड़ी बात ना लगे, जन-जन के हृदय में बसे राम मुहताज भी नहीं किसी फैसले के. लेकिन आस्था पर लगी ‘तर्क’ के इस सबसे बड़े मुहर से तो इनके झूठ का साम्राज्य ही बिखरता नज़र आ रहा है. यानी राम अगर सच, तो सारी हिंदू मान्यताएं सच. अंग्रेजों के तलवे चाटने के लिए गढी गयी कहानी कि आर्य बाहर से आये थे वह झूठ. राम सेतु से लेकर सारी हिंदू मान्यताएं सच. फिर तो अगर सब कुछ सच तो कालिख ही पुत गयी ना इन किराए के गुंडों के चेहरे पर? दूकान ही बंद हो गयी न इन रुदालियों की? दूसरी बात यह कि अगर बड़ी संख्या में लोग मरें ही नहीं तो फिर इन गिद्धों का पेट कैसे भरे? तो असली चोट यहां इनके इस मर्म पर पहुची है. लेकिन यह चोट ऐसे तत्वों को सबक भी देता है कि मार्क्स सम्प्रदाय की अपनी साम्प्रदायिक राजनीति छोड़ सीधे सच्चे तौर पर अपनी विद्वता – अगर है तो – का देश हित में इस्तेमाल करें, अन्यथा आंसुओं के इन सौदागरों को अपनी समाप्ति पर दो बूंद आसू भी नहीं नसीब होंगे.

इस फैसले के बाद देश और मुख्यधारा के सभी माध्यमों में जिस तरह सद्भाव-सौमनस्यता की बयार बह रही है. जिस तरह देश के करोड़ों मुस्लिम बंधु भी राहत की सांस ले रहे हैं. हिंदू घरों में भी जिस तरह से आगत दीवाली की तैयारी हो रही है, वह भारतीय तहजीब का सुन्दरतम् स्वरुप प्रस्तुत कर रहा है. लेकिन मुद्दा यह है कि देश के दर्द की तिजारत करने वाले इन ‘झंडू बामों’ की तो दुकान ही बंद हो जायेगी इस तरह. तो इन्हें चाहिए कि अपनी कोई अलग अच्छी दूकान खोल लें. पूर्णतः स्वस्थ हुआ यह देश ऐसी ताकतों, ऐसे बदतमीज़ और बदजुबान तत्वों को आख़िरी चेतावनी देता लग रहा है कि अब भी चेत जाओ अन्यथा धोबी के कुत्ते की तरह ना घर के रहोगे ना घाट के.

अभी-अभी मुलायम सिंह को उसके आग लगाने वाले बयानों पर मुस्लिम बंधुओं द्वारा लताड़ और दुत्कार मिली है. तो अब यह तय है कि ‘नसीबन’ के लिए बदनाम होकर नाचता कोई लौंडा मोहल्ले के मंच पर ही शोभा देता है. बदनाम होने के बाद भी ठुमकती, अदा दिखाती मुन्नियां फिल्मों में ही अच्छी दिखती है. जन सरोकारों के किसी राष्ट्रीय मंच पर नहीं.

लेखक पंकज कुमार झा रायपुर से प्रकाशित ‘दीप कमल’ के संपादक हैं.

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