: पहली बार राजनीतिक एवं धार्मिक संगठनों ने भी अपेक्षित संयम बरता : भारतीय खबरिया चैनलों के लिए 30 सितम्बर, 2010 एक परीक्षा की घड़ी थी. असफलता एक महाकलंक, जो शायद गंगा का सारा पानी भी न धो पाता, का सबब बनती. सफलता से इस 16 साल पुराने जनहित में लगे उद्यम को अपनी विश्वसनीयता बनाने का जबर्दस्त मौका मिलता. और मीडिया सफल रही. पूरे दिन का कवरेज- फैसले के पहले के और फैसले के बाद- इस बात की तस्दीक करता है. कहना न होगा कि यह सफलता आसानी से नहीं मिली. एक पखवारे से चल रही जद्दोजहद, बैठकें, ई-मेल के जरिए सलाह-मशविरा और उद्योग के अन्य संगठनों से बातचीत, सरकारी तंत्र से विचार-विमर्श आदि की इस सफलता के पीछे भूमिका रही है. शायद मीडिया के इतिहास में इतनी बड़ी घटना पर इतना संशय पहले कभी देखने को नहीं मिला.
यहां कहने का मतलब यह नहीं कि समाज के अन्य अवयव ने गैर-जिम्मेदारी दिखाई. बल्कि यह भी पहली बार हुआ कि न केवल राजनीति वर्ग अपितु गैर-राजनीतिक धर्माधारित संगठनों ने भी अपेक्षित सयंम का परिचय दिया. समाज के दोनों वर्गों ने भी नियंत्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की. ऐसा नहीं है कि उपद्रव के कारक मौजूद नहीं थे. माहौल में उग्रता मौजूद नहीं थी. सब कुछ था. चैनलों के पास बड़ी तादात में ऐसे विजुअल्स आए जिनमें उग्र भाषण, ढोल, मजीरे, मिठाइयां दिखाई दे रही थीं. लेकिन हमने यह सामूहिक फैसला किया कि तल्खियत या विजेता भाव जो दरार को फैला सकते हों, की किसी भी चिन्ह को जनता के बीच नहीं जाने देंगे.
जब इलेक्ट्रॉनिक न्यूज मीडिया के संपादकों की संख्या ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) आज से करीब 11 महीने पहले अस्तित्व में आई तो उसके पीछे एक जज्बा था, अपने प्रति आक्रोश था, अपने को बेहतर करने का मानवोचित भाव अपनी चरम पर था. कई बार ऐसे क्षण भी आए जब लगा कि आगे बढ़ना दूभर होगा. लेकिन संपादकों में एक ‘सेंस ऑफ राइटियसनेस’ ( सही होने का गर्व ) रहा है. यहां तक कि इसी सेंस की वजह से कई बार मार्केट की चुनौतियों से भी दो-दो हाथ करना पड़ा.
फैसला आने के दिन दोपहर तक बीईए ने लगातार चर्चा जारी रखी और कई फैसले लिए- कुछ सैद्धांतिक और कुछ व्यवहारिक धरातल पर. उन्हें बदला और कुछ और बेहतर फैसले लिए. यहां तक फैसले के दिन दोपहर तक अचानक एक नया प्रश्न खड़ा हुआ इस पर सहमति बनाई गई. सभी संपादकों के मन एक भाव प्रमुख रहा- इलेक्ट्रानिक न्यूज चैनलों को एक मौका है जब परिपक्वता प्रदर्शित कर सकते हैं. समाज के प्रति अपनी सकारात्मक उपादेयता प्रतिष्ठित कर सकता है. पढ़ने में आसान लग सकता है लेकिन सोचिए खबरिया चैनलों के बीच इतने बड़े अवसर पर टीआरपी लेने की होड़ को पूरी तरह तिलांजलि देना और वह भी एक स्वैच्छिक सामूहिक निर्णय के बाद और फिर उस पर टिके रहना कोई आसान काम नहीं था.
शुरू में संपादकों की संस्था बीईए ने तीन प्रमुख फैसले लिए थे- फैसला आने के पहले कोई भी परिचर्चा (स्टूडिययो डिसकशन) नहीं, फैसला आने के बाद परिचर्चा इसलिए ताकि जनता को फैसले की पूरी तस्वीर दी जा सके और शरारती तत्वों को अफवाह फैलाने का कोई मौका न मिल सके और कोई भी वर्ग अगर फैसले को लेकर उत्सवात्मक प्रदर्शन करता है या भड़काऊ नारे लगाता है तो उसका प्रसारण न करना.
साथ ही यह भी फैसला हुआ कि खबर देने के पीछे पूरी कोशिश यह हो कि दो समुदायों के बीच शांति का माहौल तैयार हो सके. यानी कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में वर्णित प्रतिबंध- शांति व्यवस्था को जनहित के अन्य सभी तत्वों के ऊपर रखा गया. यह भी तय किया गया कि अगर इसके बावजूद छिटपुट हिंसा, जिसकी आशंका सरकारी तैयारी के साथ झलकती थी, होती है तो उसे नजरअंदाज किया जायेगा. साथ ही मुस्तैदी पूरी रखी जायेगी ताकि अगर शरारती तत्व अधिक उग्र हों तो उनको एक्सपोज किया जा सके. इसके अतिरिक्त यह भी तय किया गया कि उपद्रव की स्थिति में ऐसी कोई तस्वीर, जिससे इन तत्वों के सम्प्रदायक आभास मिलता हो, बिल्कुल नहीं दिखाया जायेगा. उपद्रवियों, मृतकों या घायलों के नाम नहीं बताए जायेंगे.
इसी तरह की सहमति बनाने और इसका अनुपालन करने के प्रति प्रतिबद्ध रहने की क्षमता के पीछे विगत 11 माह के सतत प्रयास का योगदान है, जो संपादकों ने किया है. पहले भी ऐसे अवसर आए जब सामूहिक निर्णय लेने पड़े. राज ठाकरे प्रकरण, भड़काऊ सीडी प्रकरण, एमएमएस प्रकरण पर महज 15 मिनटों में सामूहिक फैसले हुए और उनका अक्षरश: अनुपालन हुआ. पर उन फैसलों में और 30 सितम्बर के कवरेज को लेकर हुए फैसलों में एक गुणात्मक अंतर था. हमें दरअसल यह नहीं मालूम था कि फैसले का स्वरूप क्या होगा और ऐसे में हमें उनका विश्लेषण किस तरह और कितना करना होगा. साथ ही हमें यह भी नहीं मालूम था कि समाज का कौन सा वर्ग फैसले को किस रूप में लेगा और क्या प्रतिक्रिया देगा. उसका स्वरूप क्या होगा. व्यापकता कितनी होगी ?
उदाहरण के लिए, न्यूज ब्राडकास्टर्स स्टैण्डर्ड अथॉरिटी (एनबीएसए) के चेयरमैन और भारत के सम्मानित भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस वर्मा के दिशा-निर्देशों के आशय से हुई बैठक में, जिसमें बीईए ने भी शिरकत की, एक सलाह थी कि किसी भी किस्म की परिचर्चा न तो फैसले से पहले कराई जायेगी न ही बाद में. लेकिन तब यह विचार आया कि अगर चैनल्स फैसले को सही परिप्रेक्ष्य में रखने की जिम्मेदारी नहीं निभाते तो अफवाहों को पंख लग जायेंगे और शरारती तत्व जनता को गुमराह कर हिंसा के रास्ते पर ले जाने में कामयाब हो जायेंगे. लिहाजा यह सहमति बना कि फैसले के पहले किसी स्टूडियो परिचर्चा की जरूरत नहीं है पर फैसले के बाद एक सम्यक व तथ्यपरक परिचर्चा समाज में शांति बनाये रखने में सार्थक भूमिका निभायेगी. ऐसा नहीं है कि टीवी संपादकों की संस्था बीईए ने ही एक जिम्मेदार भूमिका निभाई हो. न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने भी गाइड लाइंस जारी की. इसकी स्व-नियामक संस्था एनबीएसए पूरी तरह दिशा-निर्देश देती रही. सरकार में हर स्तर पर संवाद होता रहा.
चूंकि मीडिया इस मुद्दे को हवा देने की जगह सहज रूप से एक शांति का वातावरण तैयार करता रहा, शरारती तत्वों को कोई मौका नहीं मिल पाया. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक दलों ने या गैर राजनीतिक व सामाजिक-धार्मिक संगठनों ने भी अपनी मर्यादा नहीं तोड़ी और फैसले को सहज भाव से लिया. शायद भारतीय समाज और प्रजातंत्र परिपक्व हो रहा है.
लेखक एन के सिंह ब्राडकास्ट एडिटर एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी तथा साधना न्यूज चैनल में उच्च पदस्थ अधिकारी हैं.