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अयोध्‍या 16 : मंदिर-मस्जिद खुद-ब-खुद बन जाएंगे!

रीता जायसवाल अयोध्या विवाद पर हाईकोर्ट के फैसले को सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देने की मुनादी कर दी है। कानून के नजरिए से उनके इस कदम को जायज ठहराया जा सकता है, लेकिन यह भी तय है कि सुप्रीमकोर्ट जाने से पहले आपसी समझौते के बल पर अयोध्या मसले को निबटाने के प्रयास नहीं किए गए तो समूचे राष्ट्र को इसके दूरगामी नतीजे भुगतने होंगे। क्योंकि यह मसला महज आस्था बनाम कानून का नहीं बल्कि शांति-सद्भाव और गंगा-जमुनी तहजीब का भी है। न्यायालय ने सिर्फ फैसला ही नहीं सुनाया है बल्कि राष्ट्रवादी लोगों को सुलह-समझौते के आधार पर अनेकता में एकता की नई इबारत लिखने का मौका भी दिया है। देश के अधिसंख्यकों की प्रतिक्रियाओं को देखने-सुनने के बाद ऐसा दावे के साथ कहा जा सकता है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड और हिंदू महासभा के आपसी समझौते के पहल को यदि गंभीरता से लिया जाए, तो न केवल सर्वमान्य हल हमारे सामने होगा, बल्कि यह कदम हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए बेहतरीन टॉनिक भी साबित हो सकता है। बशर्ते इसके लिए देश के राष्ट्रवादी और धर्म-निरपेक्ष ताकतों को अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए उन्हें इस बिंदु पर लामबंद होना होगा।

रीता जायसवाल

रीता जायसवाल अयोध्या विवाद पर हाईकोर्ट के फैसले को सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देने की मुनादी कर दी है। कानून के नजरिए से उनके इस कदम को जायज ठहराया जा सकता है, लेकिन यह भी तय है कि सुप्रीमकोर्ट जाने से पहले आपसी समझौते के बल पर अयोध्या मसले को निबटाने के प्रयास नहीं किए गए तो समूचे राष्ट्र को इसके दूरगामी नतीजे भुगतने होंगे। क्योंकि यह मसला महज आस्था बनाम कानून का नहीं बल्कि शांति-सद्भाव और गंगा-जमुनी तहजीब का भी है। न्यायालय ने सिर्फ फैसला ही नहीं सुनाया है बल्कि राष्ट्रवादी लोगों को सुलह-समझौते के आधार पर अनेकता में एकता की नई इबारत लिखने का मौका भी दिया है। देश के अधिसंख्यकों की प्रतिक्रियाओं को देखने-सुनने के बाद ऐसा दावे के साथ कहा जा सकता है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड और हिंदू महासभा के आपसी समझौते के पहल को यदि गंभीरता से लिया जाए, तो न केवल सर्वमान्य हल हमारे सामने होगा, बल्कि यह कदम हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए बेहतरीन टॉनिक भी साबित हो सकता है। बशर्ते इसके लिए देश के राष्ट्रवादी और धर्म-निरपेक्ष ताकतों को अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए उन्हें इस बिंदु पर लामबंद होना होगा।

उच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के बाद यह एक ऐसा भाग्यशाली अवसर है, जहां न्यायिक निर्णय और सौहार्दपूर्ण समाधान का अच्छा मेल-मिलाप हो सकता है। इस मौके पर इससे बड़े फक्र की बात और क्या हो सकती है कि मुस्लिम समुदाय का एक तबका न्यायिक फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में जाने से पहले आपस में ही निबटारे जैसे साहसिक जज्बे के साथ आगे आ रहा है। इस तबके की यह तकरीर कि आपसी समझौते का नजरिया मुसलमानों की राष्ट्रवादी छवि को न केवल और बेहतर बनाने में मदद करेगा वरन आपसी एकता, भाईचारगी को एक नयी बुलंदी मिलेगी। लगे हाथ देश के अन्य तमाम ज्वलंत समस्याओं के समाधान के भी रास्ते खुलेंगे। सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि विध्वंसकारी ताकतों के हौसले पस्त होंगे। उनके इस दलील का भी अमन की राह में आगे बढ़ कर स्वागत किया जा सकता है कि इतिहास में ऐसी कई मिसालें देखनें को मिली हैं कि मुसलमानों के इबादतगाहों को दूसरे धर्मों के लिए खाली कर देना पड़ा है, जब उन्हें यह पता चला कि वहां कभी दूसरे धर्में के पूजा स्थल थे।

ऐसे में बेहतर यही होगा कि मुसलमानों को इस विवादित स्थल पर मस्जिद से अपना दावा छोड़ कर, इसे कहीं और बनाने की पहल पर एकजुट हो जाना चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि यदि राष्ट्रीय एकता-अखंडता को साक्षी मान कर इस विवाद के समाधान की आधारशिला भाई-चारे की बुनियाद पर रखने की कोशिश की जाए, तो भी इसके एक नहीं कई हल सामने होंगे। अव्वल तो इसके लिए हमें पहले धर्म-निरपेक्ष होना होगा और फिर इसे ऊंची अदालत में जाने से रोकने की मजबूत पहल करनी होगी। तमाम बुद्धिजीवियों का यह तर्क भी काबिलेगौर है कि मानवता की सेवा भी ईश्वर की आराधना का सशक्‍त माध्यम है। लिहाजा विवादित स्थल पर सर्वसम्मति से समाज उपयोगी स्मारक बनाने की पहल को भी आपसी समझौते का आधार बनाया जा सकता है। वैसे भी देखा जाए तो देश का अधिसंख्यक समाज अदालती लड़ाई को आगे बढ़ाना नहीं चाहता। इस दौरान यह भी जेहन में रहे कि न्यायिक फैसला सामने आने के साथ ही समाज ने भी शांति और सद्भाव का माहौल पेश कर अपना फैसला सुना चुका है। यहां तक कि विभिन्न वर्गों से जो प्रतिक्रियाएं सामने आयी वे भी हिंसा अथवा उन्माद की ओर ले जाती नहीं दिखीं।

राष्ट्रीय एकता-अखंडता और आपसी सद्भाव का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है। कुल मिला कर जो परिदृश्य सामने है उसका सार तो यही समझ में आ रहा है कि समाज का बदलता मन-मिजाज सांप्रदायिक हिंसा अथवा उन्माद को बढ़ावा देने के पक्ष में कत्तई नहीं है। लिहाजा पूरे यकीन के साथ यह कहा जा सकता है कि अवाम के इस फैसले को दरकिनार कर अदालती फैसले को ऊंची अदालत में चुनौती देने की कोशिशें और कतिपय राजनीतिक दलों के अनर्गल प्रलाप उनकी रोजी-रोटी के जुगाड़ का ही एक हिस्सा है। इनके कुकर्मों की सजा ही समाज भुगत रहा है। कल तक ये ही छद्मवेशी नेता अदालत का सम्मान करने की नसीहत देते घूम रहे थे और जब अदालत ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया तो इस फैसले से लड़खड़ाती अपनी दुकानदारी देख ये खुद ही अदालत की अवमानना पर उतर आए हैं। अब वह वक्त आ गया है कि इनके नापाक इरादों को समझने और अपने आप को संभालने की।

इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि उच्च न्यायालय के फैसले के जरिए जब एक सौहार्द का संदेश सामने आया और भाईचारगी की बुनियाद पर समृद्ध भारत का सपना साकार होता दिखने लगा है, तो इन्हें अपने पुराने आचरण पर पश्चाताप कर, समाज के नए मन-मिजाज से अपने आप को जोड़ने के बजाए अब भी तुष्टीकरण में अपनी राजनीतिक संभावनाएं तलाश रहे हैं। बिजली, सड़क, सफाई, चिकित्सा, सुरक्षा, रोजगार, शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों से जूझ रहे इस देश को ये कहां ले जाना चाहते हैं, अवाम समझ नहीं पा रहा है। अच्छा तो यही होगा कि मस्जिद-मंदिर का मंसूबा छोड़ कर पहले इन्हीं के निर्माण की पहल हो। क्योंकि जब तक भारत भूमि पर ऐसे छद्मवेशी नेताओं को तरजीह मिलती रहेगी यह राष्ट्र धार्मिक और सांप्रदायिक अंतर्द्वंद से जूझता रहेगा। किसी ने ठीक ही कहा है कि लालचश्मे से देखने वाले कभी राष्ट्रवादी नहीं हो सकते। लिहाजा इन्हें दरकिनार करते हुए जब हम अयोध्या मसले पर विचार करने सामूहिक रूप से खड़े हो जाएंगे तो एक नहीं तमाम मंदिर-मस्जिद खुद-ब-खुद बन जाएंगे।

लेखिका रीता जायसवाल वाराणसी की निवासी हैं तथा स्‍वतंत्र लेखन करती हैं.

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