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अयोध्‍या 18 : आडवाणी जी, आपको शर्म क्यों नहीं आती?

सलीमलालकृष्ण आडवाणी का यह कहना कि अयोध्या पर हाईकोर्ट के फैसले से उनकी रथ यात्रा सार्थक साबित हुई है, उन हजारों मुसलमानों और हिन्दुओं के जख्मों पर नमक छिड़का है, जो उनकी रथयात्रा के चलते प्रभावित हुए थे। आडवाणी का यह बयान उन मुसलानों को भी आहत करने वाला है, जो यह सोचते हैं कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को अंतिम मानकर अब अयोध्या विवाद का पटाक्षेप हो जाना चाहिए। ऐसा चाहने वाले मुसलमानों के दिल में यह बात आ सकती है कि नहीं, सुप्रीम कोर्ट तक लड़ा जाना चाहिए। पता नहीं कैसे आडवाणी अपनी रथयात्रा को सार्थक बता रहे हैं। सच तो यह है कि आडवाणी की वह रथयात्रा इस देश पर एक कलंक और एक तरह से ‘खूनी यात्रा’ थी। वह जहां से गुजरी अपने पीछे तबाही और बरबादी के निशान छोड़ गयी थी। लेकिन आडवाणी इतने कठोर दिल वाले साबित हुए थे कि उन पर मासूम बच्चों की चीत्कारों, औरतों की लुटती अस्मतों, आग में जिन्दा जलते बेगुनाह लोगों की चीखों का कोई असर नहीं पड़ा था। उस समय शायद उनमें हिटलर की आत्मा समा गयी थी, जैसे हिटलर यहूदियों को गैस चैम्बरों में मरता देखकर अट्ठाहस करता होगा, ऐसे ही आडवाणी देश को जलता देखकर अपने आप को हिटलर ही समझते होंगे।

<p style="text-align: justify;"><img src="http://bhadas4media.com/images/img/salim111.jpg" border="0" alt="सलीम" title="सलीम" align="left" />लालकृष्ण आडवाणी का यह कहना कि अयोध्या पर हाईकोर्ट के फैसले से उनकी रथ यात्रा सार्थक साबित हुई है, उन हजारों मुसलमानों और हिन्दुओं के जख्मों पर नमक छिड़का है, जो उनकी रथयात्रा के चलते प्रभावित हुए थे। आडवाणी का यह बयान उन मुसलानों को भी आहत करने वाला है, जो यह सोचते हैं कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को अंतिम मानकर अब अयोध्या विवाद का पटाक्षेप हो जाना चाहिए। ऐसा चाहने वाले मुसलमानों के दिल में यह बात आ सकती है कि नहीं, सुप्रीम कोर्ट तक लड़ा जाना चाहिए। पता नहीं कैसे आडवाणी अपनी रथयात्रा को सार्थक बता रहे हैं। सच तो यह है कि आडवाणी की वह रथयात्रा इस देश पर एक कलंक और एक तरह से 'खूनी यात्रा' थी। वह जहां से गुजरी अपने पीछे तबाही और बरबादी के निशान छोड़ गयी थी। लेकिन आडवाणी इतने कठोर दिल वाले साबित हुए थे कि उन पर मासूम बच्चों की चीत्कारों, औरतों की लुटती अस्मतों, आग में जिन्दा जलते बेगुनाह लोगों की चीखों का कोई असर नहीं पड़ा था। उस समय शायद उनमें हिटलर की आत्मा समा गयी थी, जैसे हिटलर यहूदियों को गैस चैम्बरों में मरता देखकर अट्ठाहस करता होगा, ऐसे ही आडवाणी देश को जलता देखकर अपने आप को हिटलर ही समझते होंगे।</p>

सलीमलालकृष्ण आडवाणी का यह कहना कि अयोध्या पर हाईकोर्ट के फैसले से उनकी रथ यात्रा सार्थक साबित हुई है, उन हजारों मुसलमानों और हिन्दुओं के जख्मों पर नमक छिड़का है, जो उनकी रथयात्रा के चलते प्रभावित हुए थे। आडवाणी का यह बयान उन मुसलानों को भी आहत करने वाला है, जो यह सोचते हैं कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को अंतिम मानकर अब अयोध्या विवाद का पटाक्षेप हो जाना चाहिए। ऐसा चाहने वाले मुसलमानों के दिल में यह बात आ सकती है कि नहीं, सुप्रीम कोर्ट तक लड़ा जाना चाहिए। पता नहीं कैसे आडवाणी अपनी रथयात्रा को सार्थक बता रहे हैं। सच तो यह है कि आडवाणी की वह रथयात्रा इस देश पर एक कलंक और एक तरह से ‘खूनी यात्रा’ थी। वह जहां से गुजरी अपने पीछे तबाही और बरबादी के निशान छोड़ गयी थी। लेकिन आडवाणी इतने कठोर दिल वाले साबित हुए थे कि उन पर मासूम बच्चों की चीत्कारों, औरतों की लुटती अस्मतों, आग में जिन्दा जलते बेगुनाह लोगों की चीखों का कोई असर नहीं पड़ा था। उस समय शायद उनमें हिटलर की आत्मा समा गयी थी, जैसे हिटलर यहूदियों को गैस चैम्बरों में मरता देखकर अट्ठाहस करता होगा, ऐसे ही आडवाणी देश को जलता देखकर अपने आप को हिटलर ही समझते होंगे।

दुख इस बात का है कि आडवाणी यह सब उस भगवान के राम के नाम पर कर रहे थे, जो पूरी दुनिया में मानवता के लिए जाने जाते हैं। भगवान राम भी उनकी रथयात्रा के लिए उन्हें माफ नहीं कर सकते। आडवाणी की उस रथयात्रा ने देश की धर्मनिरपेक्ष छवि का तार-तार करने काम किया था। आडवाणी की रथयात्रा ने देश के हिन्दुओं में इतना उन्माद पैदा कर दिया था कि 6 दिसम्बर 1992 को एक उन्मादी और अराजक भीड़ ने एक ऐतिहासिक मस्जिद को जमींदोज कर दिया था। बाबरी मस्जिद का विध्वंस होना इस देश की एक अभूतपूर्व घटना थी। इस घटना के बाद देश में खूरेंज साम्प्रदायिक दंगों की बाढ़ आ गयी थी। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक लकीर सी खिंच गयी थी। रही सही कसर आडवाणी के शिष्य नरेन्द्र मोदी ने 2002 में गुजरात में पूरी कर दी थी। हिन्दू मोहल्लों से मुसलमानों का तो मुस्लिम मोहल्लों से हिन्दुओं का तेजी से पलायन हुआ। आबादियां बंट गयीं। आबादियों के बंटने का सिलसिला आज भी जारी है।

बाबरी मस्जिद विध्वंस, मुंबई और गुजरात के खूरेंज मुस्लिम विरोधी दंगे देश के दुश्मनों के लिए वरदान साबित हुए। मुंबई के भयानक साम्प्रदायिक दंगों के बाद मार्च 1993 में मुंबई में जबरदस्त बम धमाके हुए। इन बम धमाकों को बाबरी विध्वंस और मुंबई दंगों का बदला कहा गया। अपनी रथयात्रा को सार्थक बताने वाले आडवाणी भी यह जानते हैं कि यदि बाबरी मस्जिद का विध्वंस नहीं हुआ होता तो, न तो मुबई में साम्प्रदायिक दंगा होता और न ही मुंबई में बम धमाकों में सैकड़ों बेगुनाह लोगों की जान जाती। बात यहीं खत्म नहीं हुई। आतंकवादियों को, आतंकवादी घटना अंजाम देने के लिए बाबरी मस्जिद विध्वंस, मुंबई और गुजरात के दंगों का तर्क मुहैया हो गया। इस आड़ में ‘भगवा आतंकवादी’ भी बहती गंगा में हाथ धोने लगे।

आतंकवादी घटनाओं में मुसलमानों का हाथ बताकर मुस्लिम युवकों को एनकाउंटर में मार गिराने या उन्हें जेलों में ठूंसने का काम शुरु हुआ। बगैर उचित इंवेस्टीगेशन के सीधे-सीधे मुसलमान को आतंक का पर्याय बताया जाने लगा। यह तो अच्छा हुआ कि कुछ ईमानदार पुलिस अफसरों की वजह से ‘भगवा आतंकवाद’ का सच सामने आ गया, वरना ‘भगवा आतंकवाद’ मुसलमानों को आज तक बदनाम कर रहा होता। यह संयोग नहीं है कि ‘भगवा आतंकवाद’ का सच सामने आने के बाद देश में आतंकवादी घटनाएं बंद हो गयी हैं। अब ‘भगवा ब्रिगेड’ ने इस्लामिक आतंकवाद का राग अलापना बंद कर दिया है।

यदि आज भगवा ब्रिगेड अयोध्या फैसले पर संयम और शांति बरतने का ढोंग कर रहा है तो इसका सारा श्रेय इस देश के धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं को जाता है। धर्मनिरपेक्ष हिन्दू ही भगवा ब्रिगेड के सामने दीवार बनकर खड़ा हो गया। बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों के बाद भारत के मुसलमानों का आत्मविश्वास हिल कर रह गया था। सैक्यूलर मीडिया और सैक्यूलर हिन्दू जब मुसलमानों पर होने वाली ज्यादतियों के विरोध में खड़ा हुआ तो उनका आत्मविश्वास लौटा। हालांकि भगवा ब्रिगेड सैक्यूलर पत्रकारों को ‘बिका हुआ’ तो सेक्यूलर नेताओं को छद्म धर्मनिरपेक्ष कहता आया है।

आडवाणी अपनी रथयात्रा को इसलिए भी सार्थक कह रहे होंगे कि उन्होंने बाबरी मस्जिद और राममंदिर मुद्दे को इतना संवेनशील बना दिया था कि अयोध्या पर फैसला लिखते समय जजों के भी हाथ कांप गए। जस्टिस यूएस खान ने लिखा है कि ‘हमारे चारों तरफ बारुदी सुरंगें बिछी हुई है।’ ये बारुदी सुरंगें लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने ही बिछाई थीं। आडवाणी खुश हो सकते हैं कि उनकी रथयात्रा ने अयोध्या फैसले को प्रभावित कर दिया। वे अपनी रथयात्रा को सार्थक कह सकते हैं, लेकिन उन्हें इस बात पर भी विचार करना चाहिए उनकी रथयात्रा किस ‘कीमत’ पर सार्थक हुई है। यदि वे कीमत का अंदाजा लगा लेंगे तो उन्हें शर्म जरुर आएगी। लेकिन क्या आडवाणी जी को शर्म आएगी?

लेखक सलीम अख्तर सिद्दीक़ी हिंदी के सक्रिय ब्लागर, सिटिजन जर्नलिस्ट और सोशल एक्टिविस्ट हैं. मेरठ निवासी सलीम विभिन्न विषयों पर लगातार लेखन करते रहते हैं.

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