: मुसलमान चाहते हैं मामले का पटाक्षेप हो : अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला सकून देने वाला साबित हुआ है। देश की जनता और नेता बदले-बदले से लगे। इस बात की खुशी है कि सभी लोगों की आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं। पूरा देश सिर्फ दो घंटे के लिए सहमा लेकिन फिर वहीं बहार लौट आई। पहली अक्टूबर तनाव से मुक्त थी। भाजपा व अन्य हिन्दुवादी संगठन अब से पहले यह कहते रहे हैं कि ‘आस्था’ का फैसला अदालत नहीं कर सकती। कैसा अजीब संयोग है कि अदालत ने फैसला देते समय ‘आस्था’ को ही आधार बनाया है। सबूत और तथ्य धरे रह गए। मेरा मानना है कि भारत की कोई अदालत इससे अलग फैसला दे भी नहीं सकती। भले ही सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रहा हो, वहां भी इससे अलग फैसला आने की कतई उम्मीद नहीं है। हाई कोर्ट के हालिया फैसले ने देश को बहुत बड़ी मुसीबत से बचा लिया है।
मुसलमान तो तभी से बाबरी मस्जिद को भूलने लगा था, जब से 1992 में बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया था। इस विवाद से सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों का ही हुआ है। अब मुसलमानों का बड़ा वर्ग ऐसा है, जो बाबरी मस्जिद जैसे विवादों को भूलकर तरक्की की राह पर जाना चाहता है। यही वजह है कि विपरीत फैसला आने के बाद भी मुसलमानों ने अपना संयम नहीं खोया। इस बात के लिए मुसलमान बधाई के हकदार हैं। जरा कल्पना कीजिए यदि फैसला राममंदिर के पक्ष में नहीं आता तो क्या होता? क्या देश में इसी तरह अमन-ओ-आमान कायम रहता? बाबरी मस्जिद के पक्ष में फैसला आने पर संघ परिवार के वे नेता, जो फैसला आने से पहले तक संयम बरतने की अपीलें कर रहे थे, वही आज सड़कों पर होते।
लेकिन हां, हिन्दुवादी संगठनों की इस बात के लिए बहुत ही तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने 6 दिसम्बर 1992 की तर्ज पर शौर्य दिवस या विजय दिवस मनाने की घोषणा नहीं की। यदि ऐसा होता तो हालात खराब हो सकते थे। नरेन्द्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी जैसे तथाकथित फायर ब्रांड नेताओं के मुंह से भी धैर्य बनाए रखने की बातें सुनकर सुखद आश्चर्य हो रहा था। सब जानते हैं कि मैं संघ परिवार का घोर विरोधी हूं। लेकिन कल मोहन भागवत ने जो कुछ कहा, सुनकर अच्छा लगा। यह कहना मुश्किल है कि ऐसा करना संघ की मजबूरी थी या कोई रणनीति।
इस सब के बीच यह नहीं भूलना चाहिए कि यह फैसला एक तरह से भाजपा की आशाओं के विपरीत आया है। यह भी याद रखिए कि बाबरी मस्जिद को ढहाना भाजपा के एजेंडे में कभी नहीं था। कहते हैं कि जब बाबरी मस्जिद तोड़ी जा रही थी तो उस वक्त लालकृष्ण आडवाणी की आंखों में आंसू थे। उनके वे आंसू पश्चाताप के नहीं, बल्कि अपनी राजनीति के प्रतीक को ढहते हुए देखने के थे। फैसले के बाद भाजपा नेताओं के दिमाग में कहीं न कहीं यह जरुर सवाल उभर रहा होगा कि उनकी राजनीति अब कैसे चलेगी? तारिक अरशद नाम का मेरा एक दोस्त था। वह मेरठ के 1990 के दंगों में एक हिन्दु को बचाते हुए मुसलमानों के हाथों शहीद हुआ था। वो मुझसे कहा करता था कि मुसलमानों को चाहिए कि भाजपा को सत्ता में लाएं। एक बार सत्ता में आने के बाद इनका ऐसा पतन शुरु होगा कि फिर से यह दो सीटों पर न सिमट जाएं तो कहना। वो हमारे बीच नहीं है। यदि होता तो देखता कि ऐसा ही हो रहा है।
बाबरी मस्जिद के टूटने और भाजपा के सत्ता में आने बाद भाजपा का ग्राफ लगातार गिरा है। हाईकोर्ट का यह फैसला भाजपा के ताबूत में अंतिम कील साबित होने जा रहा है। इस फैसले ने एक तरह से भाजपा की हवा निकाल दी है। सच तो यह है कि राममंदिर के विपक्ष में होने वाला फैसला भाजपा के लिए ज्यादा ‘अनुकूल’ होता। ‘प्रतिकूल’ फैसला आने की पीड़ा उनके चेहरों पर साफ पढ़ी जा सकती है। अब हालात यह हैं कि अयोध्या का मुक्कमिल फैसला सुप्रीम कोर्ट करेगी या आपसी बातचीत से मसला हल होगा। बातचीत में भाजपा को कुछ लेना-देना नहीं रहेगा। अदालत के फैसले या आपसी बातचीत से विवादित स्थल पर राममंदिर का निर्माण होता भी है तो इसका श्रेय भाजपा को बिल्कुल नहीं मिलने वाला है। इस विवाद से वह जितना राजनैतिक फायदा उठा सकती थी, उसने उठा लिया है। भाजपा के लिए राममंदिर मुद्दा एक चेक था, जिसे कैश करा लिया गया है। एक चेक कई बार कैश नहीं हो सकता।
हालांकि जफरयाब जिलानी सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रहे हैं, लेकिन मेरा मानना है कि हाईकोर्ट के फैसले को ही अन्तिम मानकर इस विवाद का पटाक्षेप किया जाना चाहिए। यह बात मैं ही नहीं कह रहा हूं। इस बात को मुसलमानों का बहुत बड़ा वर्ग कह रहा है। यह अलग बात है कि वे इस बात को सार्वजनिक रुप से कहते हुए कतराते हैं। मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट जाने का कोई फायदा नहीं होगा। जैसा कि मैंने पहले भी कहा, कोई अदालत अब शायद ही मस्जिद के हक में फैसला दे। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जो जगह सुन्नी वक्फ बोर्ड को दी है, उस जगह पर मस्जिद का निर्माण किया जा सकता है। मंदिर भी बने और मस्जिद भी। मुसलमानों की छोटी सी कुर्बानी न सिर्फ मुसलमानों की खुशहाली में इजाफा करेगी बल्कि देश एक विवाद से हमेशा के लिए निजात पा जाएगा। सबसे बड़ी बात यह होगी कि आग और खून की होली खेलेकर सत्ता हासिल करने वाले राजनैतिक दल हमेशा के लिए हाशिए पर चले जाएंगे।
लेखक सलीम अख्तर सिद्दीक़ी हिंदी के सक्रिय ब्लागर, सिटिजन जर्नलिस्ट और सोशल एक्टिविस्ट हैं. मेरठ निवासी सलीम विभिन्न विषयों पर लगातार लेखन करते रहते हैं.