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समाज-सरोकार

माखनलाल-4 : छात्र आंदोलन पत्रकार की भ्रूण हत्या के खिलाफ है

माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में इन दिनों चल रहे छात्र-अध्यापक संयुक्त आंदोलन की वजहों को देखकर अगर किसी आदमी को सबसे ज्यादा दुख होता, तो वह दिवंगत प्रभाष जोशी होते। क्योंकि इस आंदोलन का मूल मुद्दा है- चिंतन की स्वतंत्रता, पत्रकार का घुमक्कड़पन और पत्रकारिता के पेशे की बाकी पेशों से मूलभूत भिन्नता। इन्हीं बातों को लेकर जोशी जी लगातार ‘कागद कारे’ करते रहे। वे इसलिए भी दुखी होते कि वे खुद इसे अपना जलाया हुआ दीया मानते थे। जानने वालों को पता होगा कि प्रभाष जोशी और कपूरचंद कुलिश जैसे बड़े नामों सहित देश के चुनिंदा पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने करीब दो दशक पहले पत्रकारिता की जड़ें मजबूत करने के लिए भोपाल में विश्वविद्यालय की नींव रखाई थी। प्रभाष जी तो स्थापना के बाद से वर्ष 2003 तक विश्वविद्यालय की महापरिषद के सदस्य भी बने रहे।

<p style="text-align: justify;">माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में इन दिनों चल रहे छात्र-अध्यापक संयुक्त आंदोलन की वजहों को देखकर अगर किसी आदमी को सबसे ज्यादा दुख होता, तो वह दिवंगत प्रभाष जोशी होते। क्योंकि इस आंदोलन का मूल मुद्दा है- चिंतन की स्वतंत्रता, पत्रकार का घुमक्कड़पन और पत्रकारिता के पेशे की बाकी पेशों से मूलभूत भिन्नता। इन्हीं बातों को लेकर जोशी जी लगातार 'कागद कारे' करते रहे। वे इसलिए भी दुखी होते कि वे खुद इसे अपना जलाया हुआ दीया मानते थे। जानने वालों को पता होगा कि प्रभाष जोशी और कपूरचंद कुलिश जैसे बड़े नामों सहित देश के चुनिंदा पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने करीब दो दशक पहले पत्रकारिता की जड़ें मजबूत करने के लिए भोपाल में विश्वविद्यालय की नींव रखाई थी। प्रभाष जी तो स्थापना के बाद से वर्ष 2003 तक विश्वविद्यालय की महापरिषद के सदस्य भी बने रहे।</p> <p style="text-align: justify;" />

माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में इन दिनों चल रहे छात्र-अध्यापक संयुक्त आंदोलन की वजहों को देखकर अगर किसी आदमी को सबसे ज्यादा दुख होता, तो वह दिवंगत प्रभाष जोशी होते। क्योंकि इस आंदोलन का मूल मुद्दा है- चिंतन की स्वतंत्रता, पत्रकार का घुमक्कड़पन और पत्रकारिता के पेशे की बाकी पेशों से मूलभूत भिन्नता। इन्हीं बातों को लेकर जोशी जी लगातार ‘कागद कारे’ करते रहे। वे इसलिए भी दुखी होते कि वे खुद इसे अपना जलाया हुआ दीया मानते थे। जानने वालों को पता होगा कि प्रभाष जोशी और कपूरचंद कुलिश जैसे बड़े नामों सहित देश के चुनिंदा पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने करीब दो दशक पहले पत्रकारिता की जड़ें मजबूत करने के लिए भोपाल में विश्वविद्यालय की नींव रखाई थी। प्रभाष जी तो स्थापना के बाद से वर्ष 2003 तक विश्वविद्यालय की महापरिषद के सदस्य भी बने रहे।

मध्य प्रदेश विधानसभा के जिस अधिनियम के तहत विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, उसके प्रावधानों में भी जोशी जी की झलक साफ दिखती है। यहां साफ कहा गया है कि विश्वविद्यालय में देश के सर्वश्रेष्‍ठ पत्रकार पैदा किए जाएंगे। धर्म, जाति, क्षेत्र और जन्मस्थान की बंदिशों से परे योग्य छात्र यहां दाखिला पाएंगे। शिक्षा प्रणाली में चिंतन की स्वतंत्रता पर खास जोर होगा।लेकिन इन दिनों इन्हीं नीति नियामक विचारों में पलीता लग रहा है। दाखिले के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा खत्म कर दी गई है। नाम में राष्‍ट्रीय जुड़ा होने के बावजूद मध्य प्रदेश के निवासी छात्रों के लिए आरक्षण रचा गया है। जबकि देश के किसी भी राष्‍ट्रीय शिक्षा संस्थान में यह व्यवस्था नहीं है।

पेशेवर पत्रकारों और प्राध्यापकों के व्याख्यान पर अघोषित रोक लगा दी गई है। लाइब्रेरी और कंप्यूटर लैब शाम 5 बजे के बाद बंद किए जाने का फरमान है। ये सारी दिक्कतें देखने में एक संस्थान की समस्या लगती हैं, लेकिन वाकई सोचना पड़ेगा कि क्या ऐसा माहौल पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए वाजिब है। और क्या ऐसा ही माहौल रचने के लिए दिग्गज पत्रकारों ने विश्वविद्यालय की स्थापना कराई थी। या फिर यह व्यवस्था पत्रकार की भ्रूण हत्या करने की साजिश है।

एक बात पर और ध्यान देना होगा कि इस समय जो आंदोलन विश्वविद्यालय में खड़ा हुआ है, वह पिछले दिनों महात्मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति की एक गाली से शुरू हुए विवाद से काफी अलग है। अखबारी खबरों की नजर से पत्रकारिता विश्वविद्यालय का आंदोलन छात्र-अध्यापक बनाम कुलपति जैसा नजर आ रहा है। जबकि असल में कुलपति बी के कुठियाला तो एक प्रतीक मात्र हैं। छात्र चाहते हैं कि विश्वविद्यालय का काम वैसे ही चले जैसा उसके नियम-शास्त्र-परंपरा में दर्ज है। जबकि कुलपति महोदय स्कूली अनुशासन और कंपनियों के विस्तार की सी रणनीति लेकर विश्वविद्यालय को आगे बढ़ाने की ऐसी रट लगाए हैं कि छात्रों को यहां रट्टू तोते पैदा होने का डर सताने लगा है। विश्वविद्यालय में शुरू हुए नए अनुशासन पर्व और युवा पत्रकारों की मुखालफत ने एक बार फिर यह सोचने का मौका दिया है कि पत्रकारिता की पढ़ाई वाकई किस तरह होनी चाहिए। इसी आंदोलन में बाद में विभागाध्यक्ष को पद से हटाने की एकतरफा कार्रवाई का मामला भी जुड़ गया। और छात्र अब तक अनशन पर हैं।

सबसे पहले दाखिला प्रक्रिया में आए बदलाव के असर की बात करते हैं। वर्तमान सत्र में दाखिले के लिए होने वाली अखिल भारतीय स्तर की प्रवेश परीक्षा को बिना कोई कारण बताए समाप्त कर दिया गया। सनद रहे कि प्रवेश परीक्षा विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद से ही बिला नागा हर साल आयोजित होती थी। देश भर से पत्रकारिता का जुनून या दिलचस्पी रखने वाले छात्र विश्वविद्यालय में दाखिला लेते थे। लेकिन नए निजाम में प्रवेश परीक्षा का स्थान स्नातक परीक्षा में मिले अंकों की मैरिट ने ले लिया है। मैरिट में विज्ञान, कला, वाणिज्य, तकनीक, कंप्यूटर, प्रबंधन जैसी एक दूसरे से बहुत अलग शाखाओं के विद्यार्थियों के अंकों को एक ही कसौटी पर कसा जा रहा है। सब धान एक पसेरी की नई व्यवस्था में इस बात का पूरा अंदेशा है कि पत्रकार का मिजाज ना रखने वाले छात्र भी पत्रकारिता की पढ़ाई करते दिखाई देंगे। ऐसे छात्रों से जितना नुकसान विश्वविद्यालय का होगा, उससे कहीं ज्यादा खामियाजा इन छात्रों को भुगतना पड़ेगा, क्योंकि आगे चलकर पेशेवर जीवन में उनके लडख़ड़ाने का बहुत डर है।

विश्वविद्यालय में इन दिनों वरिष्‍ठ पत्रकारों और शिक्षाविदों के व्याख्यान पर अघोषित रोक लगी है। जबकि विश्वविद्यालय के स्थापना अधिनियम में साफ लिखा है कि विश्वविद्यालय दूसरी संस्थाओं के साथ छात्र और अध्यापकों का आदान-प्रदान करेगा। विश्वविद्यालय की महासभा और अन्य नियामक सभाओं में बड़ी संख्या में पत्रकारों के लिए पद आरक्षित हैं, जिसका सीधा मतलब है कि पेशेवर पत्रकार संस्थान से जुड़ें। लेकिन इन सारी रवायतों को ताक पर रख दिया गया है। एक वो समय था कि भोपाल में किसी भी विधा का जानकार आया नहीं कि उसे हर हाल में छात्रों से रूबरू कराने की पहल चल पड़ी। इस पहल के लिए ना तो कागज दौड़ते थे और ना फाइलें घिसटती थीं।

कुलपति तो छोडि़ए कई बार विभागाध्यक्ष भी छात्रों के इन मंसूबों से नावाकिफ रहते थे। लेकिन जैसे ही कोई हस्ती विश्वविद्यालय आती नियमित क्लास स्थगित कर, उनसे विशेष संवाद की व्यवस्था हॉल में हो जाती थी। आर के लक्ष्मण और ए के हंगल जैसी शख्सियत भी वहां इसी सहजता से आईं। शायद ही कोई अखबार हो जहां के संपादक भोपाल आएं हों और विश्वविद्यालय के छात्रों ने उनसे बात करने का मौका गंवाया हो। मुझे याद है कि एक बार तो भोपाल में शॉल बेचने आए दो कश्मीरी युवकों को भी व्याख्यान के डाइस पर खड़ा कर दिया गया ताकि उनसे कश्मीर के आम आदमी की बात सीधी सुनी जा सके। क्या इस तरह की पहल लाल फीते की दुकानदारी में संभव हैं।

तीसरी चीज है शिक्षा का अनुशासन, जिसके नाम पर कुलपति महोदय तमाम बदलाव ला रहे हैं। इसी बहाने से उन्होंने विभागाध्यक्षों के अधिकार छांट दिए। 2003 और 2004 के छात्र आंदोलन के बाद पत्रकारिता के मिजाज को देखते हुए कंप्यूटर लैब 24 घंटे खुला रखने की व्यवस्था की गई थी, अनुशासन के नाम पर अब कंप्यूटर लैब 5 बजे बंद करने का फरमान परिसर में गूंजता है। एक समय विश्वविद्यालय का माहौल ऐसा हो गया था कि अखबार की दुनिया को पूरी तरह आत्मसात करने के लिए छात्र रात के दो-दो बजे तक बैठकर विश्वविद्यालय के अखबार ‘विकल्प’ का प्रकाशन करते थे।

मुझे याद है कि 2006 में जब विश्वविद्यालय में पहली बार दीक्षांत समारोह हुआ तो उस समय विकल्प को दैनिक अखबारों की तरह बड़ा और पूरा रंगीन छापा गया। अखबार के छपकर प्रेस से निकलने के वक्त भी कम से कम 20 छात्र कुछ प्रोफेसरों के साथ प्रेस के बाहर मौजूद थे। लेकिन पत्रकारिता की अनिवार्य और अपरिहार्य निशाचरी आज अनुशासन के खिलाफ जान पड़ रही है। क्या कोई दुनिया देश पत्रकार या शिक्षाविद् इस ढर्रे पर स्वीकृति की मुहर लगा सकेगा।

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लेखक पीयूष बबेले दि इकनॉमिक्‍स टाइम्‍स में वरिष्‍ठ संवाददाता हैं.

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