प्रभाष जोशी के लिए लिखना जितना आसान था, उनके बारे में लिख पाना उतना ही मुश्किल। उनकी उपलब्धियों को आंक पाना शोधकर्ताओं के लिए भी आसान नहीं होगा। इसलिए कि उनके आयाम कई थे। मैं उनके सिर्फ एक आयाम, ‘जनसत्ता’ को पंजाब लाने का जिक्र करुंगा। पर उससे पहले एक छोटी सी घटना। ‘जनसत्ता’ के लिए रिपोर्टिंग के दौरान मुझे चंडीगढ़ के 22 सेक्टर में अखबार का सब आफिस ढूढंते तीन चार सरदार मिले। वे सब के सब संगरूर से आए थे। शुक्रिया अदा करने। उनने बताया कि ‘जनसत्ता’ की चौदह कापियां वे तब भी खरीदते थे जब की अखबार दिल्ली से छपता था। उन्हें अखबार अगले दिन मिलता था। वे सभी चौदह लोग मित्र थे। हर कोई अपनी अलग कापी मंगाता था। चंडीगढ़ से संगरूर तक अखबार पहुंचने का प्रबंध उन लोगों ने खुद किया था। मोहाली में रहने वाले अपने एक दोस्त के जरिये। जुनून पाठकों को था तो इसलिए कि जुनून जोशी जी में था। दिल्ली से आम आदमी के लिए आम बोलचाल वाली भाषा में बेखौफ अखबार निकाल कर तब तक हो रही पत्रकारिता को एक नई पहचान वे दे ही चुके थे।
पंजाब वे ‘जनसत्ता’ लाए तो इसके पीछे एक बड़ा वजह थी, पंजाब को हिंसा से छुटकारा दिलाना।…मैं पहली बार उनसे अपने इंटरव्यू के दौरान मिला। साढ़े पांच सौ पत्रकारों की साढ़े पांच घंटे की लिखित परीक्षा में अव्वल आया होने की वजह से पहला इंटरव्यू मेरा था। उनने मुझसे माझा, दोआबा, मालवा की बोली सुनी। पूछा, यहां सूरज छुपने के बाद लोग घरों से नहीं निकलते। डर के भागोगे तो नही?
नौकरी लग गई। रिपोर्टर के तौर पर मैं अपराध देखता था। 6 जुलाई 87 की रात एजेंसी के टेलिप्रिंटर पे टिक्कर आया, लालड़ के पास बस अगवा, बस के भीतर गोलियां, आठ मरे। मुझे लगा बस अगवा हो ही गई, लिंक रोड पे भी ले गए, गोलियां भी अदंर चलीं तो सवारियां ज्यादा होंगी, मरे भी ज्यादा होंगे। शायद कोई सिख भी मारे गए हों। मैं आधी रात के बाद गया। लौटा। चालीस मरे थे। सुबह अखबार में बैनर छपा। सुबह कोई दस बजे दस हजार कापियां और छापनी पड़ीं…खौफ निकल गया था। अपने भीतर कहीं था तो वहां से भी। बाकी पत्रकारों में था तो कुछ हिलजुल हुई होगी। प्रभाष जी जब मिले तो गले लगा के मिले। बोले, हिंसा राज्य भी करता है। झूठी मुठभेड़ें नहीं होनी चाहिएं। होंगी तो आतंकी और पैदा होंगे। उनने मूल मंत्र दिया- हमें हर तरह की हिंसा के खिलाफ लिखना है। नतीजा जो भी हो।
‘जनसत्ता’ ने झूठी मुठभेड़ों के खिलाफ धांस के लिखा। सरकार को अच्छा नहीं लगा विज्ञापन नहीं मिले। न सही। प्रभाष जी की फौज ने करीब करीब फाकाकशी की सी पगार और वैसे हालात में काम किया। ‘जनसत्ता’ उन दिनों भी धड़ल्लें से छप और बिक रहा था जब सुक्खा और जिंदा के पांच पांच पेजों के प्रेस नोट पूरे के पूरे छापने पड़ रहे थे और जब शहीद परिवार फंड जैसे प्रोग्राम में हो आने के बाद संपादको पहले पेज पर माफीनामे छापने पड़ रहे थे। प्रभाष जोशी हर तरह की हिंसा के खिलाफ डटे रहे।
ये वे दौर भी था कि जब पंजाब के अखबारों शीर्षक छपते थे- पंजाब में तीन आतंकवादियों समेत आठ मरे।…होता दरअसल क्या था? होता ये था कि कुछ आतंकवादी ‘मरने’ के लिए पुलिस के पास पहले से मौजूद होते थे। जिस दिन आतंकवादी कोई बड़ा धमाका करती, पुलिस भी उसी दिन उसी दिन कुछ आतंकवादी ‘मार’ कर हिसाब किताब बराबर कर देती। सिर्फ बेगुनाहों के मारे जाने की खबरें सरकार को नहीं सुहाती थीं। झूठी मुठभेड़ों को न छापने का दबाव आतंकवादी संगठनों का भी था। उन दबावों के बावजूद प्रभाष जी ने सरोकारों का साथ नहीं छोड़ा। उनने आतंकवादियों को हाथों बेगुनाहों की हत्याओं पे छापा तो झूठी मुठभेड़ों के लिए पुलिस की आलोचना भी। उनका फैसला था कि हिसाब किताब बराबर करने वाले हैडिंग नहीं लगेंगे। खबर, खबर की तरह जाएगी।
एकाध मिसाल।…पुलिस ने प्रेस कान्फ्रेंस कर बताया कि उसने मुठभेड़ के दौरान पहली मंजिल पर मौजूद मुकाबला करते दो आतंकवादियों को धर दबोचा। तीसरा अंधेरे का फायदा उठा कर निकल भागा। पुलिस नीचे गली में थी।…अब भला कोई पूछे पुलिस वालों से कि तुम नीचे गली में साफ दिखते साफ कैसे बच रहे और ऊपर छुपे ‘आतंकवादियों’ को तुम्हारी गोलियां मोड़ मुड़ कर कैसे लग गईं। दूसरों की छोड़िए। पर जनसत्ता में तो खबर ये लगी कि पुलिस पड़ोसी की दीवार फांद दो को जिंदा पकड़ ले गई। तीसरे को गोली मार कर गली में गिरा दिया। लोगों से कहा, जुबान खोली तो तुम्हारा भी यही हस्र होगा। खंडन के लिए दबाव आया। जनसत्ता ने खंडन नहीं छापा। ऐसे ही नवंबर 87 के गुरुपूरब के दिन अमरजीत नाम के एक लड़के को पुलिस ने सारी संगत के सामने भून डाला। रेडियो ने कहा मुठभेड़ हुई। ज्यादातर अखबारों ने खबर ही नहीं छापी। जनसत्ता में छपा, निहत्था मारा गया।
इसका बहुत बड़ा फायदा हुआ। प्रभाष जोशी की टीम का एक अदना सा सदस्य होने के नाते मुझे भी इसका इल्म हुआ।… तब पंजाब में खौफ का दूसरा नाम, हरमिदंर गिल और उनके कुछ साथी मुझे घेर कर आनंदपुर साहिब के एक तहखाने में ले गए। छोड़ा ये कह कर पुलिस की खबरें छापता है जनसत्ता। पर झूठी मुठभेड़ों को बेनकाब भी करता है।
प्रभाष जोशी और उनकी पत्रकारिता को किसी प्रमाण की जरूरत नहीं। लेकिन अपना ये मानना है कि उन तरह की पत्रकारिता से पंजाब में अमन कायम करने में बड़ी मदद मिली। जरूर सोच में कुछ बदलाव समय के प्रवाह के साथ भी आए होंगे। लेकिन ये पक्का है कि प्रभाष जी पंजाब नहीं आए होते तो तब की गलाकाटू अखबारी लड़ाई ने हिंदू और सिखों के बीच पुवाड़ा तकरीबन डाल ही दिया था।