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मीडिया और मोमबत्ती बिग्रेड

[caption id="attachment_2307" align="alignleft" width="99"]अजय नाथ झाअजय नाथ झा[/caption]कहा जाता है कि आवश्कता ही अविष्कार की जननी है। और जहालत की तिरगी में इल्म और तालीम की कंदील ही रास्ता रोशन करती है। आदमी अपनी जरुरियात के लिए हर तरह के प्रयोग व प्रयास करता है और आसपास की चीजों से ही अपने ऐशोआराम का सामान जुटा लेता है। कंदील या मोमवत्ती की कहानी भी कुछ इसी तरह शुरू होती है। पाषाण युग से ही मोमवत्ती के प्रयोग का किस्सा सामने आता है मिश्र ऐसा पहला देश था जिसमें कंदील का प्रयोग ईशा पूर्व 400 साल पहले से ही शुरू हो गया था। उसके बाद चीन तथा जापान में कीड़ों और कुछ फसलों के बीज से मोम निकाल कर उसको कागज के ट्यूब में डालकर मोमबत्ती बनाया जाता था। भारत में मोमबत्ती की शुरुआत पहली सदी के आगाज़ से मंदिर में दीप जलाने के लिए दालचीनी के पेड़ से उसकी छाल पिघलाकर निकाले गए मोम से हुई थी।

अजय नाथ झा

अजय नाथ झा

अजय नाथ झा

कहा जाता है कि आवश्कता ही अविष्कार की जननी है। और जहालत की तिरगी में इल्म और तालीम की कंदील ही रास्ता रोशन करती है। आदमी अपनी जरुरियात के लिए हर तरह के प्रयोग व प्रयास करता है और आसपास की चीजों से ही अपने ऐशोआराम का सामान जुटा लेता है। कंदील या मोमवत्ती की कहानी भी कुछ इसी तरह शुरू होती है। पाषाण युग से ही मोमवत्ती के प्रयोग का किस्सा सामने आता है मिश्र ऐसा पहला देश था जिसमें कंदील का प्रयोग ईशा पूर्व 400 साल पहले से ही शुरू हो गया था। उसके बाद चीन तथा जापान में कीड़ों और कुछ फसलों के बीज से मोम निकाल कर उसको कागज के ट्यूब में डालकर मोमबत्ती बनाया जाता था। भारत में मोमबत्ती की शुरुआत पहली सदी के आगाज़ से मंदिर में दीप जलाने के लिए दालचीनी के पेड़ से उसकी छाल पिघलाकर निकाले गए मोम से हुई थी।

अमेरिका में लोगों ने एक खास प्रजाति की मछली की चर्बी से पहली बार मोमबत्ती बनाई। उसमें लकड़ी का एक टुकड़ा घुसेड़ दिया जाता था ताकि वो सीधी तरह खड़ी रह सके। उसके बाद पहली सदी के अंत में सेरिओ नामक वृक्ष की छाल को पिघलाकर और उसमें से मोम निकाल कर मोमबत्ती बनाने की प्रथा शुरू हो गई।

कालान्तर में इंग्लैड में बसे लोगों ने बेबेरिज नामक पेड़ से मोमबत्ती बनाना शुरु कर दिया। लेकिन ये थोड़ा महंगा साबित हुआ। ये दीगर बात है कि आज की तारीख में भी इस पेड़ की छाल से इंग्लैंड में मोमबत्ती बनाई जाती है। लेकिन उसकी मुश्किल ये है कि 8 इंच की मोमबत्ती के लिए एक पूरे पेड़ का छाल पिघलाना पड़ता है।

कुछ समय बाद जानवरों की चर्बी से भी मोमबत्ती बनाने की प्रथा शुरू हुई लेकिन उसकी दुर्गंध लोगों को पसंद नहीं आई।

बड़े पैमाने पर मोमबत्ती बनाने की प्रथा 14वीं सदी के आसपास शुरू हुई जिसमें मधुमक्खी के छत्ते से निकाले गए मोम का प्रयोग हुआ। फ्रांस के पेरिस में इसका आविर्भाव हुआ और 18वीं सदी के आगाज में मोमबत्ती बनाने की कला दुनिया के कई देशों में विकसित हो गई।

मोमबत्ती बनाने की मशीन का निर्माण पहली बार सन 1825 में हुआ। मोमबत्ती में पाराफिन का प्रयोग 1830 में शुरू हुआ। टैलो पदार्थ से बनाई गई मोमबत्ती भी काफी समय तक लोकप्रिय रही।

आज की तारीख में घरों से राजमहलों तक, झाड़-फानूस को सजाने में मोमबत्ती का बड़ा ही अहम रोल रहा है। बिजली आने के बाद भी कई देशों में और खासकर कुछ विशेष मौकों पर सुगंधित और रंग बिरंगी मोमबत्तियां अपनी अलग ही छटा बिखेरती हैं।

मोमबत्ती के इतिहास के संदर्भ में ये भी जानना उचित होगा कि चीन में मोमबत्ती बनाने की अलग ही तकनीक थी। सन 265 से 420 ईबी तक जिंन साम्राज्य में इसका प्रचलन काफी बड़े पैमाने पर रहा। इस पद्धति के तहत कागज के पन्ने पर मधुमक्खी के छत्ते से निकाले गए मोम को चिपका कर मोमबत्ती बनाई जाती थी।बाद में सूंग साम्राज्य के समय मोमबत्ती में धागा डाला जाने लगा था।

भारत के समीप तिब्बत देश में याक जानवर के मख्खन से मोमबत्ती बनाई जाती थी।

1448 में निर्मित दुनिया की सबसे प्रचीन मोमबत्ती बनाने वाली मशीन आज भी दक्षिण अफ्रीका के डबलिन शहर में मौजूद है। साथ ही गाय या भैंस की चर्बी से निर्मित मोमबत्ती के कुछ कारखाने यूरोपिय देशों में देखे जा सकते हैं।

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16वीं सदी में यूरोप के कई देशों में महलों और मकानों में रौशनी के अलावा सड़क पर प्रकाश डालने के क्रम में मोमबत्ती का प्रयोग होता था। मगर सन 1830 के बाद से मोमबत्ती बनाने की तकनीक तथा उसके मूल पदार्थों के चयन में भी काफी बदलाव आया।

अमेरिका के जोसेफ सैमसन को सन 1830 में नये तरीके से मोमबत्ती बनाने का पेटेंट दिया गया था। सन 1934 में इस कंपनी ने प्रति घंटे 1500 मोमबत्ती की रफ्तार से मोमबत्ती निर्माण का कार्य शुरू किया जो पूरे देश में बहुत मशहूर हुआ।

सन 1829 में प्रिंस विल्सन नामक एक शख्स ने श्रीलंका के एक 1400 एकड़ वाले नारियल के पेड़ों का जखीरा खरीदा जिसका मूल उद्देश्य नारियल के पेड़ की छाल की मदद से मोमबत्ती बनाना था। मगर उसके बदले वहां ताड़ के पेड़ की छाल से मोमबत्ती बनने लगी।

सन 1879 में थामस एडिसन द्वारा बिजली बल्ब के अविष्कार के बाद से भले ही मोमबत्ती की महत्ता में थोड़ी कमी आई हो। मगर जन्मदिन से लेकर गिरजाघरों में खास दिन पर मोमबत्ती जलाने का चलन आज भी बदस्तूर जारी है।

सोयाबीन से लेकर पेट्रोलियम पदार्थों से भी मोमबत्ती बनाई जाती है और आज की तारीख में पूरी दुनिया में 178 पदार्थों से अलग-अलग किस्म की मोमबत्तियां बनाई जाती रही हैं।

आप सोच रहे होंगे कि हम मोमबत्ती का बखान क्यों कर रहे हैं ? दरअसल आजकल मोमबत्ती का इस्तेमाल एक खास मानसिकता के लोग खास मौकों पर करने लगे हैं और तो और इस खास मानसिकता के लोगों की एक बिग्रेड सहज ही तैयार हो गई है जिसे आप मोमबत्ती बिग्रेड कह सकते हैं। किसी खास मौके पर मोमबत्ती बिग्रेड की चिल्ल पौ का उतना ही महत्व होता है जितना राजनीति की भाषा में आश्वासन का।

मोमबत्ती बिग्रेड का वैभव आपको सिर्फ वैभावशाली दिल्ली, मुंबई जैसे रेशमी महानगरों में ही दिखाई देगा। कुछ लोग सिर्फ हाईप्रोफाइल केस (अमीर परिवार से जुड़ी घटना) में न्याय मांगने के लिए एक खास जगह पर इकट्ठा होकर मोमबत्ती जलाते हैं। अगर किसी अमीर परिवार की बेटी की हत्या हो गई या किसी नामी मॉडर्न परिवार के साथ अन्याय हो गया तो मोमबत्ती बिग्रेड के लोग मोमबत्ती जलाकर, सुंदर-सुंदर रंग बिरंगे पोस्टर बनाकर, लेटेस्ट फैशन की पोशाक पहन कर, अंग्रेजी में नारे लगाते हैं और अंग्रेजी में बयान जारी करते हैं। हिंदी बोलने से उन्हें थोड़ा परहेज होता है। शायद डर हो कि हिंदी बोलने से कई विरोध करने की क्वालिटी न डिग्रेड हो जाए इस लिए स्टाइलिश इंग्लिश में अपनी बात कहते हैं। आप इस ग़फलत में मत रहिएगा की मोमबत्ती बिग्रेड कोई संगठन है और मोमबत्ती जलाने पहुंचने वाले सभी लोग एक दूसरे को जानते हैं। मोमबत्ती ब्रिगेड के लोग कुछ ऐसे ही इकट्ठा होते हैं जैसे कस्तूरी की तलाश में हिरन भटकते-भटकते इकट्ठे हो जाते हैं।

विरोध करने के लिए एकत्र हुए मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों के चेहरे पर विरोध का भाव ढूंढना ऐसे ही है जैसे समुद्र में मोती खोजना। हल्की मुस्कान के साथ अपनी बात ऐसे कहते हैं जैसे किसी गेट टू गेदर पार्टी में आए हो। मजे की बात ये है कि हमारी मीडिया मोमबत्ती बिग्रेड को खूब अहमियत देती है। जैसे ही मीडिया को भनक लगती है कि आज मोमबत्ती बिग्रेड का खास शो हो होने जा रहा है तो न्यूज चैनलों की ओबी वैन सीधे मोमबत्ती बिग्रेड की लाइव कवरेज के लिए तैनात कर दी जाती है।

कैमरा, लाइट , और पूरे एक्शन के साथ मोमबत्ती जलाई जाती है और ये अद्भुत विरोध आप घर बैठे टीवी पर देख सकते हैं। या सीधे कहें तो इंज्वाय कर सकते हैं। क्योंकि आपको दुख और विरोध का भाव कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा। ये अजीब विरोधाभास और यदि आप मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों में विरोध और दुख का भाव देखना चाहते हैं तो फिर आप माडर्न मोमबत्ती बिग्रेड में शामिल होने कि योग्यता नहीं रखते।

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मोमबत्ती बिग्रेड के साथ मीडिया की कदम ताल निराली हैं। मोमबत्ती बिग्रेड की पल-पल की खबर देने के लिए न्यूज चैनल लाखों रुपये खर्च करने में नहीं झिझकते। न्यूज चैनलों की रिपोर्टर मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों की मोमबत्ती से मोमबत्ती जलाकर बोलतीं है जैसे वो खुद रिपोर्टर कम मोमबत्ती बिग्रेड की मेम्बर ज्यादा हों। और रिपोर्टर महोदया को इसके लिए खूब शाबाशी भी दी जाती हैं उनके इस हुनर की तारीफ सीनियर खूब चटकारा लेकर करते हैं।

मोमबत्ती बिग्रेड का चलन अभी नया है। इसलिए दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में ज्यादा नजर आता है। पर आपको परेशान होने की जरूरत नहीं। मॉडर्न कहलाने का शौंक बड़ी गजब की चीज़ है। इसलिए जिसे भी खुद को मॉडर्न साबित करना होगा वो जल्द से जल्द मोमबत्ती बिग्रेड में शामिल होगा और वो दिन दूर नहीं जब आपको छोटे शहरों में भी मोमबत्ती बिग्रेड के लोग नजर आने लगेंगे।

आप ये सोच कर परेशान हो सकते हैं की दांतेवाड़ा में नक्सली हिंसा में मारे गए जवानों के लिए मोमबत्ती बिग्रेड ने मोमबत्तियां क्यों नहीं जलाई? आए दिन पश्चिम बंगाल में हो रहे नक्सली हमले का विरोध ये मोमबत्ती बिग्रेड क्यों नहीं करता? किसी गरीब की बेटी की बलात्कार हो जाने पर मोमबत्ती बिग्रेड का मोम जैस दिल क्यों नहीं पिघलता ? विदर्भ में आत्महत्या कर रहे किसानों का दुख मुंबई के मोमबत्ती बिग्रेड को दुखी क्यों नहीं करता ? देश में हो रहे अरबों के घोटलों पर मोमबत्ती बिग्रेड की ज्वाला क्यों नहीं जलती ? महंगाई से पिस रही आम जनता की पीड़ा मोमबत्ती बिग्रेड को क्यों नहीं दिखाई देती?

दरअसल मोमबत्ती बिग्रेड में शामिल पढ़े-लिखे मोटा पैसा कमाने वाले लोगों का ये मानसिक दिवालियापन हैं। ये लोग खुद को बाकी दुनिया से अलग समझते हैं पश्चिमी सभ्यता की नकल करने के लिए पिज्जा हट में बैठकर हजार रुपये का पिज्जा खा कर और पानी की जगह “कोल्ड ड्रिंक” से प्यास बुझा कर ये लोग खुद को माडर्न समझते हैं और पश्चिमी सभ्यता की आंख, कान, दिमाग बंद कर अनुसरण करते हैं। इन्हें लगता है ये ही वर्ल्डक्लास जीवन है।

मोमबत्ती बिग्रेड के लोग क्या ये नहीं जानते की उनके देश भारत ने सदियों से दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाया हैं। शांति का अधिष्ठाता रहे भारत के महापुरुष दुनिया को शांति और अहिंसा का मार्ग दिखाते रहे हैं। महात्मा बुद्ध से लेकर महात्मा गांधी तक ये परंपरा निरंतर चली आ रही है।

‘दे दी हमे आजादी बिना खड्ग बिना ढाल

साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’

आज भी हमारे देश के स्कूलों में छात्र ये गीत गाते हैं। सारी दुनिया महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा के मार्ग का लोहा मानती है। महात्मा गांधी बिना मोमबत्ती जलाए, सादगी और अहिंसात्मक तरीके से विरोध करते थे और अंग्रेजों को सोचने पर मजबूर कर देते थे। पर मोमबत्ती बिग्रेड को मोमबत्ती ज्यादा भाती है चाहे किसी को श्रद्धांजलि देना हो, या विरोध प्रगट करना हो। महात्मा गांधी को संसाधनों के दुरुपयोग पर बहुत दुख होता था और वो हमेशा कम से कम चीज़ों का इस्तेमाल कर जीवन जीने की लोगों को सलाह देते थे। एक बार महात्मा गांधी के जन्म दिन पर उनकी पत्नी ने आश्रम में घी का दीपक जलाया था जब गांधी जी ने घी दीपक जलते देखा तो काफी दुखी हुए और कहा कि जिस देश में लाखों लोगों को घी खाने के लिए नहीं मिलता वहां घी का दीपक चलाना संसाधनों का दुरुपयोग करना है। और गांधी जी ने इसके लिए प्रायश्चित किया था।

अगर गांधीजी मोमबत्ती बिग्रेड के फैशनेबल मोमबत्ती शो को देखते तो देश के इन महा शुभचितंकों से शायद हाथ जोड़कर यही निवेदन करते की… हे ! मोमबत्ती बिग्रेड के महानुभावों। जो धन आप मोमबत्ती खरीदने में खर्च करते हैं वहीं धन आप शहीदों के परिवारवालों को दे तो उनकी बड़ी मदद होती।…

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मगर ये बात मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों के जेहन में न कभी आई और न लगता है कभी आएगी? क्योंकि मोमबत्ती बिग्रेड के ज्यादातर लोग अमीरी और वैभव के उस खेमे से तालुक रखते हैं जहां गरीबी और अभाव का साया कभी रहा ही नहीं। संपन्न परिवार के इन लोगों को पांच रुपये की मोमबत्ती जलाने में मजा आता है, सांधनों का दुरुपयोग करके इनकों आनंद मिलता है। भोग-विलास और आनंद में मदहोश मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों से उम्मीद करना कि मोमबत्ती में पैसा खर्च करने की जगह ये देश के लिए शहीद हुए शूरवीरों के असहाय परिवार की मदद करेंगे ऐसे ही है जैसे पत्थर से पिघलने की उम्मीद करना।

मोम तो पिछल जाएगा, मोमबत्ती की बाती जल जाएगी पर मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों में ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और सादगी की बाती कब जलेगी ? कब मोमबत्ती बिग्रेड देश की आम जनता की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करेगा ? मोमबत्ती बिग्रेड जमीन से जुड़े मुद्दे उठाएगा ? कब मोमबत्ती बिग्रेड का दिखावे का चोला वास्तविक ईमानदारी का चोला धारण करेगा ? कब मोमबत्ती बिग्रेड में फैशन की जगह देशभक्ति का भाव दिखेगा ? कब मोमबत्ती जलाने वाला युवा बिग्रेड सही मायने में देश की का शुभचितंक बिग्रेड बनेगा ?

ऐसे सैकड़ों सवाल है जो जिन पर सोचने के लिए समाज के महा महिम मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों के पास शायद समय नहीं है। पश्चिमी देशों को जब हम अपना आदर्श मान लेते हैं और उनके बनाए ढर्रे पर लगातार आंख, कान, दिमाग बंद कर चलते चले जाते हैं तो ऐसे ही मोमबत्ती बिग्रेड पैदा होते हैं। जिनकी भावनाएं सिर्फ मोमबत्ती जलाने तक सीमित होती हैं। देश की जमीन से जुड़ी समस्याओं के बारे में सोचने समझने के लिए इनके पास वक्त नहीं होता और गरीबों पर होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए लिए इनके पास मोमबत्ती नहीं होती।

कुछ खास घटनाओं पर ही मोमबत्ती बिग्रेड का हुजूम नज़र आता है जो इनकी संकीर्ण मानसिकता और भेदभाव पूर्ण भावनाओं को दिखाता है। 26/11 मुंबई हमले के बाद मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया के सामने मोमबत्तियां लेकर इकट्ठा हुए मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों ने अंग्रेजी में अपना रोना रोया। भले ये भाई लोग घरों में हिंदी या मुंबईय्या भाषा बोलते हो लेकिन मोमबत्ती बिग्रेड के शो में अंग्रेज बने बिना इनके पेट का पिज्जा कैसे पचता ? कैसे लोगों को ये पता चलता की ये महान लोग हाईक्लास के हैं और मॉर्डन फैशन की दुनिया के आदर्श मानुष हैं ?

हमारे देश का मीडिया मॉर्डन मानुषों का बड़ा कदरदान हैं हर न्यूज चैनल इनकी कवरेज पर अपनी पूरी ताकत झोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। न्यूज चैनलों को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों की भावनाएं ईमानदार भावुकता से भरी हैं या दिखावटी घड़ियाली भावनाओं से ? गुड विजुअल के भूखे खबरिया चैनल, खबर दिखाने के नाम पर, न्यूज चैनल में सुंदर-सुंदर चेहरे दिखाने पर ज्यादा भरोसा रखते हैं। बिल्ली के भाग से टूटा छींका और न्यूज चैनलों की मुराद हुई पूरी। मोमबत्ती बिग्रेड के लोग न्यूज चलनों की मांग पर खरे उतरते हैं। बिल्ली की तरह न्यूज चैनल वाले तक लगाए बैठ रहते हैं कि कब कई मोमबत्ती बिग्रेड के लोग इकट्ठा हों और भाई लोग ओबी वैन तान दें और फिर कहना ही क्या….? चले राग तोरी में ख्याल जौनपुरी और कुछ तो मोहर्रम में भी गाएं होरी।

मोमबत्ती बिग्रेड को पापुलर बनाने में मीडिया की अहम भूमिका हैं। खबरिया चैनल मसाला, तड़का और भावनाओं के रंग भरकर देश की जनता के सामने मोमबत्ती बिग्रेड के शो को ऐसे पेश करते हैं जैसे देश मोमबत्ती बिग्रेड के शो में देशभर का दुख पिघल कर बह चला हो और उसे बांधने का सारा ठेका खबरिया चैनलों को दे दिया गया हो।

ऐसा लगता है मोमबत्ती बिग्रेड वालों की महा असली, महा दुखी भावनाओं की भाषा सिर्फ हमारे खबरिया चैनल ही समझते हैं और जितने दुखी और मोम की तरह पिघलने वाले दयालु मोमबत्ती बिग्रेड के लोग हैं उतने ही दुखी और उतने ही दयालु हमारे खबरिया चैनल के भाई लोग हैं। तभी तो पूरी भक्ति भावना से मीडिया बिग्रेड के शो अपने न्यूज चैनल पर दिखाते हैं।

महादेवी वर्मा की कविता के ये पंक्तियां

“गीत कहीं कोई गाता है,

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गूंज किसी दिल में उठती है”

खबरिया चैनलों और मोमबत्ती बिग्रेड की जुगलबंदी में ये पंक्तियां फिट बैठती है गीत मोमबत्ती बिग्रेड के लोग गाते है और उसकी असली गूंज खबरिया चैनलों के संपादकों के दिल में गूंजती हैं और फिर घंटों खबरिया चैनलों में मोमबत्ती बिग्रेड की लीला छाई रहती है।

खबरिया चैनलों के लिए शायद मोमबत्ती बिग्रेड वाले गुन-गुनाते होंगे

जब शाम ढले आना..

जब मोमबत्ती जले आना…

और ये गीत सुनते ही लोकतंत्र के चौथे खंभे के पहरेदार खबरिया चैनल, खबरों की सारी मर्यादा को छोड़कर मोमबत्ती बिग्रेड के शो की तरफ ऐसे भागते हैं जैसे सर्कस देखने के लिए युवाओं की टोली गांव से कस्बों की तरफ भागती है।

लेखक अजय नाथ झा वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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