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मीडिया मंथन

मैं प्रभाषजी की किसी श्रद्धांजलि सभा में नहीं जाऊंगा

आलोक तोमरतट पर रख कर शंख सीपियां : प्रभाष जी की किसी शोक-श्रद्धांजलि सभा में, मैं नहीं गया। जाने को उनके पिछले जन्मदिन पर गांधी शांति प्रतिष्ठान भी नहीं जा पाया था और फोन पर उनसे डाट भी सुनी थी मगर शोक सभाओं में तो जानबूझ कर नहीं जा रहा। अब जब प्रभाष जी की अस्थियां गंगा और नर्मदा में विसर्जित हो चुकी हैं तो एक बार फिर मन की बात करने को जी चाह रहा है। बात करूं इसके पहले एक संस्मरण। मेरे शहर यानी चंबल घाटी के भिंड शहर में एक जमाने के समाजवादी छात्र नेता भूपत सिंह जादौन ने पत्रकारिता पर प्रभाषजी का भाषण करने के लिए आमंत्रित किया था। ठीक उसी दौरान मुरैना से प्रकाशित होने वाले एक अखबार ने उदघाटन के लिए उन्हें निमंत्रण भेजा था। दोनों ने मुझे फोन करके कहा था कि प्रभाष जी को आपको ही लाना है। प्रभाष जी से बात की तो बोले, चलते हैं यार, तुम्हारे माता-पिता से भी मिल आएंगे और मौका मिला तो जौरा चले चलेंगे जहां सुब्बाराव रहते हैं और जहां चंबल घाटी के इतिहास में डाकुओं का सबसे बड़ा समर्पण हुआ था। फिर बोले- पंडित एक नई कार आई है, सुना है बहुत अच्छी है, स्कार्पिओ नाम है, अगर हो सके तो उसका इंतजाम कर लेना।

आलोक तोमर

आलोक तोमरतट पर रख कर शंख सीपियां : प्रभाष जी की किसी शोक-श्रद्धांजलि सभा में, मैं नहीं गया। जाने को उनके पिछले जन्मदिन पर गांधी शांति प्रतिष्ठान भी नहीं जा पाया था और फोन पर उनसे डाट भी सुनी थी मगर शोक सभाओं में तो जानबूझ कर नहीं जा रहा। अब जब प्रभाष जी की अस्थियां गंगा और नर्मदा में विसर्जित हो चुकी हैं तो एक बार फिर मन की बात करने को जी चाह रहा है। बात करूं इसके पहले एक संस्मरण। मेरे शहर यानी चंबल घाटी के भिंड शहर में एक जमाने के समाजवादी छात्र नेता भूपत सिंह जादौन ने पत्रकारिता पर प्रभाषजी का भाषण करने के लिए आमंत्रित किया था। ठीक उसी दौरान मुरैना से प्रकाशित होने वाले एक अखबार ने उदघाटन के लिए उन्हें निमंत्रण भेजा था। दोनों ने मुझे फोन करके कहा था कि प्रभाष जी को आपको ही लाना है। प्रभाष जी से बात की तो बोले, चलते हैं यार, तुम्हारे माता-पिता से भी मिल आएंगे और मौका मिला तो जौरा चले चलेंगे जहां सुब्बाराव रहते हैं और जहां चंबल घाटी के इतिहास में डाकुओं का सबसे बड़ा समर्पण हुआ था। फिर बोले- पंडित एक नई कार आई है, सुना है बहुत अच्छी है, स्कार्पिओ नाम है, अगर हो सके तो उसका इंतजाम कर लेना।

प्रभाष जी जैसे सादा व्यक्ति, जो जिंदगी भर या तो साइकिल पर चले या कंपनी की एंबेसडर कार में, से यह बात सुन कर अटपटा लगा मगर गुरु जी की आज्ञा थी। ग्वालियर में दोस्तों को बोला तो स्कार्पिओ का पूरा काफिला जमा हो गया। हमारे भिंड शहर ने एक साथ इतनी स्कार्पिओ गाड़ियां पहली बार देखी होंगी। समारोह जैसे छोटे शहरो में होते हैं, वैसे यहां भी हुआ और बाकी सबके अलावा अपने को भी शॉल भेंट की गई। मां श्रोताओं में से थी, सो मंच से उतर कर शॉल उन्हें ओढ़ा दी। प्रभाष जी ने अपनी बात खत्म की तो अंत में उनका गला भर आया और उन्होंने कहा कि मैं सोच भी नहीं सकता था कि यह सोता हुआ शहर एक इतने जीते जागते बालक को पत्रकारिता के संसार में भेजेगा और उसे यह संस्कार भी देगा कि अपनी मां का आदर करें।

इसके बाद कुछ देर सर्किट हाउस, जहां भाजपा के लोकल नेता उन्हें घेरने वाले थे, मगर भिंड में ठीक ठाक दादागीरी है, इसलिए निवेदन और धमकी, दोनों का इस्तेमाल करके उन्हें भगा दिया। इसके बाद मुरैना जाना था, वह भी ग्वालियर होते हुए लेकिन प्रभाष जी घर गए और मेरे पिता के हम उम्र होने के बावजूद उनके चरण छूए और मां के सिर पर हाथ रखा। खाना भी वहीं खाया। चलते-चलते शिकायत भी कर दी कि लड़का बिगड़ गया है। इसे वापस भिंड बुला लो।

मुरैना पहुंचते पहुंचते शाम हो गई थी। एक छोटे से होटल में कोई आधे घंटे की झपकी लेने के बाद प्रभाष जी ने एक घंटे लंबा भाषण दिया और भूदान यात्रा के दौरान चंबल की यादों को ताजा किया। जैसा छोटे शहरों में होता है, प्रभाष जी के जय के नारे लगे और चूंकि आदत राजनैतिक नारे लगाने की है, भीड़ ने कहा, देश का नेता कैसा हो, प्रभाष जोशी जैसा हो। प्रभाष जी ने मंच पर ही पीठ पर हाथ मारा और मुक्तिबोध के प्रसिद्ध शब्दों में हंसते हुए सवाल किया कि पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? इसके बाद मैं मित्रों से मिलने सर्किट हाउस चला गया और प्रभाष जी ने रात 12 बजे की रेल पकड़ी और दिल्ली रवाना हो गए। अनवरत यात्री प्रभाष जी को अगले दिन मुंबई जाना था। पता नहीं यह अपार उर्जा उनमें कहां से आती थी।

शताब्दी से जब ग्वालियर जा रहे थे तो बीच में तीन चार बार ट्रेन के बाथरूम में जा कर सिगरेट पी आया। अच्छा खासा कुल्ला कर के आया था मगर प्रभाष जी ने पकड़ लिया और हाथ पकड़ कर बोले कि अब छोड़ भी दो यार। प्रभाष जी का यह एक अकेला ऐसा आदेश है जिसका पालन मैं आज तक नहीं कर पाया।

प्रभाष भी जौरा नहीं जा पाए। कहा था कि दोबारा आएंगे। लेकिन वह भी नहीं हुआ। मुरैना जिले में मेरे गांव के पास बरवाई गांव में राम प्रसाद बिस्मिल और पुतली बाई दोनों का जन्म हुआ था। प्रभाष जी वहां भी जाना चाहते थे। भिंड में इतनी लंबी भागदौड़ में वे मेरे घर के पास ही रहने वाले अपने जमाने के कुख्यात डाकू लुक्का उर्फ लोकमन दीक्षित से भी मिले। लोकमन दीक्षित चंबल के पचास और साठ के दशक के सबसे बड़े डाकू गिरोह मान सिंह की गैंग के मुखिया रह चुके थे और 1960 में बिनोवा भावे के सामने इस गैंग का समर्पण करवाने में प्रभाष जी की खास भूमिका थी। सुब्बा राव भी उसी जमाने के उनके साथी है।

काम तो प्रभाष जी के साथ नौ साल आठ महीने किया और अगर वे निकाल नहीं देते तो और कई साल करता रहता। लेकिन मुझे उन्होंने न सिर्फ पत्रकारिता के संस्कार दिए, पहले लिख चुका हूं कि छह साल में सात पदोन्नतियां दी मगर एक गलतफहमी की वजह से एक झटके में बाहर भी कर दिया। इसके बावजूद जिस दिन रिटायर होकर उन्हें आखिरी बार संपादक के तौर पर एक्सप्रेस बिल्डिंग छोड़नी थी, उनका फोन आया और पूछा कि गाड़ी में कितना पेट्रोल है? उस जमाने में मारुति 800 हुआ करती थी जो प्रभाष जी जैसे लंबे कद वाले व्यक्ति के लिए सुविधाजनक नहीं थी फिर भी उन्होंने जिद की कि पंडित घर तो तुम्हारे साथ ही जाऊंगा। वह दृश्य मार्मिक था। जनसत्ता और एक्सप्रेस का पूरा स्टाफ बाहर निकल कर खड़ा था। ज्यादातर की आंखों में आंसू थे। वे ड्राइवर के साथ वाली सीट पर उसे पीछे करके बैठे, सभी लोगों से हाथ जोड़े, कहा- भूल चूक माफ करना। मुझे कहा कि चलो। बहादुरशाह जफर मार्ग पार होने के पहले ही उन्हें बता दिया कि अपने पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है। बोले- तेरे जैसा गेल्या नहीं देखा। मालवी में गेल्या का अर्थ पागल होता है या और सटीक अर्थ लगाए तो गेल्या का मतलब है खिसका हुआ।

जमुना का पुल पार हुआ। प्रभाषजी चित्र विहार में रहते थे। गाड़ी मोड़ने लगा तो बोले- इतनी जल्दी क्या है? चलते रहो, थोड़ी पंचायत करते हैं। इसके बाद लगातार पूछते रहे कि जनसत्ता छूटने के बाद गुजारा कैसे चल रहा है? अखबार समय पर पैसा भेजते हैं कि नहीं? फिर अचानक पूछा कि अगर मैं तुम्हारी तरह देश के अखबारों में लिखना शुरू करूं तो घर चल जाएगा? यह अवाक करने वाला सवाल था। मगर मेरा जवाब अटपटा मगर यथार्थ से जुड़ा हुआ था। मैंने कहा कि आप जिस तरह धुआंधार लिखते हैं और जब चाहे जिसका चाहे विकेट उड़ा देते हैं, आपको राज्य सरकारों से विज्ञापन लेने वाले अखबार झेल नहीं पाएंगे, और संभल कर आप लिखेंगे तो पाठक आपको नहीं झेल पाएंगे। उस समय रात के ग्यारह बज रहे थे और जमुना पार में जहां-जहां मकान बन रहे थे वहां रात को भी चाय वाले बैठे थे, सो दो तीन बार बगैर चीनी की चाय पिलाई और आखिरकार एक बजे घर लौटे। घर पर चिंता और परेशानी का माहौल था और उसकी एक वजह यह भी है कि सड़क पर गाड़ी ठोकने का मेरा अच्छा खासा रिकॉर्ड रहा है। गाड़ी से उतरे, दोनों हाथ मेरे सिर पर रखे, बाल सहलाए और कहा कि अच्छे से रहना और अभी मैं हूं, मेरी जब भी जरूरत पड़े, बताना।

प्रभाष जी ने कहा था, अभी मैं हूं। सो जब तक मेरी सांस चलती है, प्रभाष जी मेरे लिए हैं। मैं अपनी आत्मा में यह पुष्टि नहीं करना चाहता कि वे चले गए। मैं नहीं चाहता कि मैं अपने आपको लगातार अनाथ महसूस करता रहूं। रही चिता और अस्थि विसर्जन की बात तो कविता में कहूं तो- तट पर रखकर शंख सीपियां उतर गया है, ज्वार हमारा। ज्वार उतरा है मगर प्रभाष जी नाम का समुद्र सूखा नहीं है। इस समुद्र को सुखाने के लिए हजारों सूरज चाहिए। इसीलिए मुझे क्षमा करें, मैं प्रभाषजी की किसी श्रद्धांजलि सभा में नहीं जाऊंगा। उनके प्रति मेरी श्रद्धा मेरी निजी पूंजी है जिसे मैं किसी के साथ नहीं बांटना चाहता।

लेखक आलोक तोमर देश के जाने-माने पत्रकार हैं.

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