माओवाद से लड़ने के लिए बड़े पैमाने पर ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाने वाले भारतीय गृह मंत्रालय को नहीं मालूम कि माओवादियों की विचारधारा क्या है? सूचना के अधिकार के तहत भेजे गए डेटलाइन इंडिया के एक आवेदन का निरक्षर किस्म का जवाब आया है। गृह मंत्रालय में उप सचिव एसएस दास ने इस याचिका के उत्तर में कहा है कि उन्हें नहीं मालूम कि माओवादियों की विचारधारा क्या है? माओवादियों को लगातार सरकारी फाइलों में नक्सलवादी कहने और लिखने के कारण यह याचिका दी गई थी और इसमें पूछा गया था कि क्या गृह मंत्रालय के पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार माओवादी आतंकवादी मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा से संबंध रखते हैं? सवाल इसलिए पूछा गया था क्योंकि नक्सलवाद नाम की विचारधारा कबकी खत्म हो चुकी है और देश में एक भी नक्सलवादी बचे होने का कोई प्रमाण नहीं है। सभी जानते हैं कि माओवादी चीन के नेता माओ से प्रेरित हैं और उनका एक जमाने में बहुत ताकतवर रही नक्सलवादी विचारधारा से कोई संबंध नहीं हैं। इसलिए पूछा गया था और जवाब आपने देख लिया कि क्या मिला है।
इसके बाद गृह मंत्रालय के दास साहब ने अपना ज्ञान बघेरा है जिसमें कहा गया है कि उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से इस आंदोलन की शुरूआत हुई थी और अब भी बहुत सारे संगठन और उनके सहायक संगठन आम तौर पर नक्सलवादी या वामपंथी आतंकवादी माने जाते हैं। यह जवाब बहुत कुछ ऐसा ही है जैसे गृह मंत्री पी चिदंबरम को गांधीवादी करार दे दिया जाए क्योंकि गांधी जी कभी कांग्रेस के मार्ग दर्शक हुआ करते थे। जवाब देने में असाधारण लापरवाही बरती गई है । गृह मंत्रालय के एक और उप सचिव एस के भटनागर ने हमारा आवेदन एस एस दास के मत्थे मढ़ दिया। वह चिट्ठी भी साथ में आई है जिस पर लिखा है कि आपको इस पत्र का जवाब देने के लिए कहा जा रहा है और यह भी आग्रह है कि अगर आपके वश का इसका जवाब देना न हो तो इसे संबंधित अधिकारी को भेज दें। आप जानते हैं कि चिदंबरम से ले कर प्रधानमंत्री तक माओवादी हिंसा को लगातार नक्सलवाद कहते रहते हैं। यह तथ्य की भूल हैं लेकिन जिस गृह मंत्रालय में फाइलें बनाने वाले एस एस दास जैसे अनपढ़ बैठे हो वहां से उम्मीद क्या की जा सकती है? हमारा पत्र भी साथ में लौट कर आया है और वह पूरी कहानी अपने आप कह देता है।
पहला सवाल कि क्या माओवादी माक्र्सवादी लेनिनवादी विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं- सामने पेन से लिखा है नहीं। फिर पूछा गया है कि क्या नक्सल आंदोलन अब भी जीवित है और अगर हां तो इस संगठन का नाम क्या है- हालांकि सरकारी जवाब में इसे टाल दिया गया है लेकिन पेन से लिखा हुआ है ‘नक्सली हिंसा’। प्रिय पाठकों अपना ज्ञान बढ़ा लीजिए। नक्सलवाद का पूरा नाम नक्सली हिंसा है। फिर पूछा गया कि माओवादियों को नक्सलवादी कहा जा सकता है- जवाब हैं हां। पूछा गया कि क्या इससे आम लोगों के बीच गलतफहमी पैदा नहीं होगी- नॉर्थ ब्लॉक के एक छोटे से कमरे में बैठे दास साहब ने लिख दिया- नहीं।
फिर पूछा गया कि क्या गृह मंत्रालय माओवाद को माओवाद कहने पर कोई विचार कर रही है- जवाब- नहीं। और आखिर में प्रधानमंत्री के नाम पर बोला गया झूठ। पूछा गया कि क्या सरकारी नीति के तहत माओवादियों को नक्सलवादी कहा जा रहा है और इसे प्रधानमंत्री की सहमति प्राप्त हैं। जवाब है- नहीं। आखिरी जवाब का मतलब है कि अफसर अपनी मनमर्जी से माओवादियों के नक्सली होने का फैसला कर रहे हैं और प्रधानमंत्री तथा भारत सरकार को इस संबंध में कतई कोई जानकारी नहीं हैं और उनकी सहमति होने का तो सवाल ही नहीं उठता। जाहिर है कि खुद गृह मंत्रालय का यह अनपढ़ अधिकारी मान रहा है कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को गलत सूचनाएं देना उसका विशेषाधिकार है और इसके लिए उसे किसी की सहमति नहीं चाहिए। इस बीच माओवादियों के खिलाफ झारखंड, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अभियान तेज हो गया है। सीआरपीएफ के जवान हथेली पर जान ले कर उनसे मुकाबला कर रहे हैं मगर गृह मंत्रालय में बैठे भटनागरों और दासों को तो यह भी पता नहीं हैं कि वे जिनसे मुकाबला कर रहे हैं उनकी विचारधारा असल में क्या है? मुकाबला क्या वे खाक करेंगे?
लेखक आलोक तोमर जाने-माने पत्रकार हैं.