हिंदी ने बनाया प्रभाष जोशी को स्टार : अक्टूबर के आखिरी हफ्ते का कोई दिन रहा होगा। मैं तेजी से हिन्दुस्तान टाइम्स बिल्डिंग की सीढ़ियों की तरफ बढ़ा जा रहा था। संपादकीय मीटिंग का समय होने वाला था। अचानक मुझे लगा कि कोई बड़ी छाया मेरा रास्ता रोक रही है। मैं जब तक अपना बाइफोकल सेट कर उसकी तरफ देखूं तब तक उसके दोनों हाथ मेरे कंधों पर पड़ चुके थे। ‘और पंडित बहुत तेजी में हो।’ देखा सिल्क का लंबा कुर्ता और धोती पहने प्रभाष जी (जोशी) सामने खड़े हैं। एचटी बिल्डिंग में उन्हें देख कर सुखद आश्चर्य हुआ। शायद बीबीसी से आ रहे होंगे। बोले, “जनसत्ता के प्रयोग पर किताब आ रही है। रवींद्र (त्रिपाठी) संपादित कर रहे हैं।” ‘मुझसे तो कहा नहीं।’ ‘मैं बोलूंगा। घर आना।’ करीब दो मिनट की इस बातचीत में उनका हाथ मेरे कंधे पर ही रहा और आने-जाने वाला उन्हें निहारता रहा। यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी। पत्नी उनके घर गईं क्योंकि उनके यहां कोई गमी हो गई थी। उसके बाद 6 नवंबर को मैंने उन्हें रात के डेढ़ बजे आईसीयू में ही देखा। उन्होंने अपनी चादर जतन से ओढ़ी थी, इसीलिए ज्यों की त्यों धर के चले गए थे। चेहरे पर एक कम्युनिकेटर का शांत भाव था। वह जिसने अपने समाज से जी भर संवाद किया। जो लगा वो लिखा और जो मन में आया कहते चले गए।
सबकी खबर ली और सबको खबर दी। वे अपने को कबीर, नानक और गांधी की परंपरा का कम्युनिकेटर ही कहलाना पसंद करते थे। उसमें एक्टिविज्म भी था और रामकथा कहने की रामधुन भी थी। रात में उतरे इस गहरे दुख के साथ एक आशंका भी सता रही थी। डर लग रहा था कि कहीं गुटबाजी में फंसा हमारा मीडिया और जातियों, इलाकों के खांचे में बटा हिंदी समाज अपनी इतनी बड़ी क्षति पर उसके अनुकूल प्रतिक्रिया जता पाएगा। लेकिन सुबह होने के साथ ही जब सारे रास्ते गाजियाबाद की जनसत्ता सोसायटी की तरफ ही आने लगे तो लगा कि हमें अपने समाज पर उस तरह से दुखी होने की जरूरत नहीं है, जिस तरह प्रभाष जी कभी जैनेंद्र कुमार के निधन पर लोगों की बेरुखी से हुए थे। तब उन्होंने हिंदी समाज की बांग्ला और मराठी समाज वगैरह से तुलना करते हुए कोसा भी था। लेकिन उस दिन दिल्ली में रहने वाला प्रिंट और चैनल पत्रकारिता का हर छोटा-बड़ा शख्स जैसे भी, जब भी पहुंच पाया, उनके अंतिम दर्शन को आ गया। (नाम गिनाने में किसी के छूट जाने का खतरा है जो कहीं बुरा लगे तो ठीक बात नहीं होगी।) इसमें वे भी थे जो हाल में ब्लागों पर प्रभाष जी को ब्राह्मणवादी बता कर उनकी आलोचना कर रहे थे और वे भी थे जो बहुत चाह कर जनसत्ताई नहीं बन पाए थे। प्रभाष जी ऐसे द्रोणाचार्य थे, जो हमेशा पांडवों की तरफ से लड़े। उनके अर्जुन और भीम जैसे शिष्य भले हों, पर उनके एकलव्यों की बहुत बड़ी संख्या है। जिनसे उन्होंने कभी अंगूठा नहीं मांगा। इसीलिए वे आज अर्जुन से बड़े धनुर्धर हैं। जाहिर है, वे अपने पीछे हिंदी का बहुत बड़ा परिवार छोड़ गए जो अपनी तमाम कमियों और संकीर्णताओं के बावजूद एक दूसरे के ज्यादा करीब है। उनकी पार्थिव देह पर फूल चढ़ाने वे राजनेता भी आए जिन पर वे कई दशकों से कांटे बरसा रहे थे।
प्रभाष जोशी पर लगभग सभी चैनलों ने कुछ न कुछ दिखाया और हिंदी-अंग्रेजी सभी अखबारों ने किसी न किसी रूप में श्रद्धांजलि जरूर दी। यह उनके जीवंत संवाद का असर था। यह उस मीडिया का सरोकार भी था जिसे बाजारवादी बता कर प्रभाष जोशी लगातार कोसते रहते थे। जाहिर है, हर तरह की व्यावसायिक अनिवार्यता और राजनीतिक दबावों के बावजूद आज का मीडिया न तो मानवीय सरोकारों की उपेक्षा कर सकता है, न ही किसी कम्युनिकेटर को बाइपास कर सकता है। मीडिया के इस कवरेज के अलावा जब यह खबरें आना शुरू हुईं कि उनकी स्मृति में देश के तमाम जिलों में शोकसभाएं हुईं तो लगा कि उन्होंने अपने समाज पर कितना असर डाला था।
मुझे ही नहीं, हमारी पीढ़ी और उसके बाद पत्रकारों को यह सवाल बार-बार परेशान करेगा कि आखिर प्रभाष जोशी में ऐसा क्या था जिसके चलते वे समाज पर इतनी गहरी छाप छोड़ सके? नेताओं, अफसरों, साहित्यकारों और लेखकों के खिलाफ कठोर लेखन करने के बावजूद वे उनसे सहज संवाद कैसे बनाए रख पाए? आखिर इतना साहस उन्हें कहां से मिलता था? क्या उन्हें यह साहस रामनाथ गोयनका जैसे मालिक से ही मिल सकता था? अगर ऐसा था तो उनके न रहने के बाद भी वे कैसे इतने दमदार तरीके से लिखते और बोलते रहे? प्रभाष जी तो अपनी पत्रकारीय सफलता का श्रेय कई बार रामनाथ जी के अलावा, ईश्वर और भाग्य को भी देते थे। हम लोगों को उनकी कठिन साधना का भी इसमें भारी योगदान लगता है। इसमें उस भाषा यानी हिंदी की भी ताकत का योगदान रहा जिसमें वे अपने को अभिव्यक्त कर रहे थे।
अगर वे इंडियन एक्सप्रेस में ही रहते और अंग्रेजी के पत्रकार बने रहते तो शायद ही अपने समाज से ऐसा संवाद कर पाते। इसीलिए अज्ञेय से लेकर विजय देव नारायण साही और रामविलास शर्मा जैसे तमाम अंग्रेजी जानने वालों ने हिंदी को ही अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुना। लेकिन उनके लेखन और व्यक्तित्व को निकटता से देखकर मुझे लगा कि उन्होंने युवावस्था में ही महात्मा ‘गांधी की वह ताबीज’ पहन ली थी जिसे गांधी ने कतार के आखिरी आदमी के हितों के लिए सभी को बांधने की सलाह दी थी। जब उन्हें कोई भ्रम होता या उन पर कोई संकट आता था तो वह ताबीज उनकी रक्षा करती थी। शायद इसीलिए उन्हें अपनी पत्रकारिता पर गर्व जरूर था लेकिन वह उनके कुछ शिष्यों की तरह कभी उनके सिर चढ़ कर नहीं बोली। उसी के चलते वे हिंदुत्ववादियों के विरोध का साहस जुटा पाए।
लोग कहते रहे कि वे राज्यसभा में जाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। लेकिन उन्हें राज्यसभा की सदस्यता तो क्या पद्मश्री या पद्मभूषण जैसे पुरस्कार भी नहीं मिले। यह सब होता तो आरोप सही निकलते और संसार से विदा लेते समय उनकी चादर न तो उतनी दुग्ध धवल होती न ही उनके मुख पर वैसी कांति होती।
(लेखक अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों दैनिक हिंदुस्तान में एसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत हैं. वे जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस में काम कर चुके हैं. मेधा पाटकर और कल्याण सिंह का मोनोग्राफ 1998 में राजकमल से प्रकाशित. ‘कट्टरता के दौर में’ किताब राधाकृष्ण प्रकाशन से 2003 में आई. राजकिशोर द्वारा संपादित आज के प्रश्न श्रृंखला की सभी पुस्तकों में नियमित लेखन. महाश्वेता देवी के साथ वर्तिका के तीन अंकों और तीन पुस्तकों का संपादन)