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मीडिया मंथन

आज की पत्रकारिता के हरिश्चन्द्र थे अशोकजी

‘तुम न प्रणव, गुस्से में जल्दी आ जाते हो.. कंट्रोल करो’-ये वे शब्द हैं जो अशोक जी ने मुझे उस मनहूस रात में जाते वक्त कही. रात के लगभग ढाई बज रहे थे और हम दोनों यही सब गपशप करते-करते गेट से बाहर निकले. मैंने कहा, सर आज सिगरेट नहीं पीना है क्या? उन्होंने कहा- नहीं, आज मूड नहीं है. दो-तीन मिनट और इधर-उधर की बात हुई, फिर मैंने उन्हें गुड मार्निंग कहा और निकल गया. वे ऑफिस में वापस चले गये. सुबह में मधुरेंद्र जी का फोन आया… कहां हो तुम? मैं सो रहा था. उन्होंने कहा- अशोक जी नहीं रहे, जल्दी से उनके घर जाओ और उनकी पत्नी को लेकर मेट्रो अस्पताल आ जाओ. मैं यह सोच ही नहीं पा रहा था कि अशोक जी नहीं रहे. अस्पताल जाने के बाद भी कुछ देर मैं उन्हें देखने नहीं गया, कि कोई आकर कहता… अशोक जी ठीक हैं. पर हकीकत तो हकीकत है, उसे नंगी आंखों से स्वीकारना पड़ता है. अंतिम संस्कार के बाद घर लौटा, लेकिन रात में तो जैसै नींद ही भाग गई थी. सोचते-सोचते सुबह हो गई. दो माह पहले मेरी माता जी भी गुजर गईं. मुझे पूरी तरह याद है, उस रात भी मैं नहीं सो पाया था. आखिर क्या था अशोक जी के व्यक्तित्व में, जो ऐसे हुआ.

<p align="justify">'तुम न प्रणव, गुस्से में जल्दी आ जाते हो.. कंट्रोल करो'-ये वे शब्द हैं जो अशोक जी ने मुझे उस मनहूस रात में जाते वक्त कही. रात के लगभग ढाई बज रहे थे और हम दोनों यही सब गपशप करते-करते गेट से बाहर निकले. मैंने कहा, सर आज सिगरेट नहीं पीना है क्या? उन्होंने कहा- नहीं, आज मूड नहीं है. दो-तीन मिनट और इधर-उधर की बात हुई, फिर मैंने उन्हें गुड मार्निंग कहा और निकल गया. वे ऑफिस में वापस चले गये. सुबह में मधुरेंद्र जी का फोन आया... कहां हो तुम? मैं सो रहा था. उन्होंने कहा- अशोक जी नहीं रहे, जल्दी से उनके घर जाओ और उनकी पत्नी को लेकर मेट्रो अस्पताल आ जाओ. मैं यह सोच ही नहीं पा रहा था कि अशोक जी नहीं रहे. अस्पताल जाने के बाद भी कुछ देर मैं उन्हें देखने नहीं गया, कि कोई आकर कहता... अशोक जी ठीक हैं. पर हकीकत तो हकीकत है, उसे नंगी आंखों से स्वीकारना पड़ता है. अंतिम संस्कार के बाद घर लौटा, लेकिन रात में तो जैसै नींद ही भाग गई थी. सोचते-सोचते सुबह हो गई. दो माह पहले मेरी माता जी भी गुजर गईं. मुझे पूरी तरह याद है, उस रात भी मैं नहीं सो पाया था. आखिर क्या था अशोक जी के व्यक्तित्व में, जो ऐसे हुआ. </p>

‘तुम न प्रणव, गुस्से में जल्दी आ जाते हो.. कंट्रोल करो’-ये वे शब्द हैं जो अशोक जी ने मुझे उस मनहूस रात में जाते वक्त कही. रात के लगभग ढाई बज रहे थे और हम दोनों यही सब गपशप करते-करते गेट से बाहर निकले. मैंने कहा, सर आज सिगरेट नहीं पीना है क्या? उन्होंने कहा- नहीं, आज मूड नहीं है. दो-तीन मिनट और इधर-उधर की बात हुई, फिर मैंने उन्हें गुड मार्निंग कहा और निकल गया. वे ऑफिस में वापस चले गये. सुबह में मधुरेंद्र जी का फोन आया… कहां हो तुम? मैं सो रहा था. उन्होंने कहा- अशोक जी नहीं रहे, जल्दी से उनके घर जाओ और उनकी पत्नी को लेकर मेट्रो अस्पताल आ जाओ. मैं यह सोच ही नहीं पा रहा था कि अशोक जी नहीं रहे. अस्पताल जाने के बाद भी कुछ देर मैं उन्हें देखने नहीं गया, कि कोई आकर कहता… अशोक जी ठीक हैं. पर हकीकत तो हकीकत है, उसे नंगी आंखों से स्वीकारना पड़ता है. अंतिम संस्कार के बाद घर लौटा, लेकिन रात में तो जैसै नींद ही भाग गई थी. सोचते-सोचते सुबह हो गई. दो माह पहले मेरी माता जी भी गुजर गईं. मुझे पूरी तरह याद है, उस रात भी मैं नहीं सो पाया था. आखिर क्या था अशोक जी के व्यक्तित्व में, जो ऐसे हुआ.

कहां से याद करूं, समझ में नहीं आता. रांची में प्रभात खबर के बाद ईटीवी में काम मिला. वहां राजस्थान चैनल में मुझे भेजा गया. अशोक जी एंकरिंग करते थे. सभी काफी सम्मान देते थे. मेरी एक खास आदत है कि मैं किसी को भी बेवहज सम्मान नहीं देता. औपचारिकता भर से काम चलाता हूं. जब यह लग जाता है कि वह वाकई सम्मान देने लायक है, तभी देता हूँ. सामान्य परिचय के बाद लगभग बीस दिन तक कोई खास बात नहीं हुई. लोगों से संपर्क बढ़ा तो जानने को मिला की आजकल उन्हें शंटिंग पोस्ट पर रखा गया है. पहले तो राजस्थान चैनल के हेड के बराबर थे. मैंने कारण पूछा तो बताया गया कि सभी को छुट्टी दे देते थे. किसी को मना नहीं करते थे. कोई फोन पर भी कह देता कि सर आज तबीयत ठीक नहीं है, उसे मना नहीं करते. जबकि वही शख्स उस दिन किसी सिनेमा हॉल में पाया जाता. उन्हें पता भी चल जाता तो कहते थे कि चलो काम चल गया है ना. धीरे-धीरे परिचय बढ़ा. पता चला कि छपरा के रहने वाले हैं. मैं मोतिहारी का था. उनको भी काफी खुशी हुई. फौरन मैंने कहा, क्यूं न सर जब हम अकेले में बात करें तो भोजपुरी में बोलें. उन्होंने कहा, ठीक है. पर मेरी भोजपुरी उतनी बेहतर नहीं है, क्योंकि मैं कभी उस इलाके में नहीं रहा. फिर भी कुछ तो बोल ही लूंगा. सिलसिला शुरू हुआ. धीरे-धीरे बातचीत होने लगी. उसके बाद से 25 दिसंबर, 2009 तक की आखिरी रात तक यह क्रम अनवरत रहा. ईटीवी में कई ऐसे मौके आये जब मुझे किसी के बारे में जानने की इच्छा हुई, मैंने उनसे ही पूछा और अकेले उनको ही दिल की बात बताई.

खैर, कुछ ही दिन बाद ईटीवी में उन्हें फिर से नेशनल हिंदी डेस्क प्रभारी बनाया गया और उसी मैनेजमेंट ने बनाया, जिसने उन्हें राजस्थान चैनल के प्रभारी से हटाया था. मेरी इस पर भी बात हुई, तो उनका कहना था कि… यार नौकरी करनी है… तो नौकरी शब्द में से अंत में बड़ी ई की मात्रा हटा कर सोचोगे तो किसी भी तरह का फर्क नहीं पड़ेगा. क्या बात थी. मैने कई दफा देखा है कि जो उन्हें कभी नीचा दिखाने की कोशिश करते थे, बाद में वही उन्हें सम्मान देते थे और उनके लिए दूसरों से लड़ते भी थे. ईटीवी के मालिक रामोजी राव भी उनकी बातों पर भरोसा करते थे. किसी भी विवादास्पद विषय पर अशोक जी की एक लाइन की टिप्पणी काफी होती थी. ऐसा शानदार व्यक्तित्व था अशोक जी का. दरअसल उनके जैसे आदमी पत्रकारिता में बिरले ही होंगे. कहीं दोहराव नहीं… बिखराव नहीं.

दिमाग से उतर कर वे कब मेरे दिल में आ गये, पता तक नहीं चला. खालिस सच के साथ पत्रकारिता को जीने का अंदाज. सबका भला चाहना. व्यक्तित्व में सादगी और जूनियर्स को आगे बढ़ाने का जज्बा. मुझे अब तक एक भी वाकया ऐसा नहीं सुनने को मिला, जब उनकी किसी ने निंदा की हो. कभी भी निराशा नहीं, कोई छलावा नहीं, कोई निगेटिव बात नहीं. मुझे लगता है कि वे पत्रकारिता के हरिश्चंद्र थे. जब चहुंओर झूठ का बाजार हो तब ऐसा शख्स होना, उसमें भी उसके साथ आपका संपर्क होना-मेरी खुशनसीबी थी.

दरअसल वे इतने बेहतर इंसान थे कि उनके बारे में मेरे पास शब्द ही नहीं हैं. मीडिया में मैंने अब तक कई लोगों को देखा. करीब आया. कई भले लोग मिले, पर किसी न किसी मौके पर सबने एक फीसदी हो या सौ फीसदी, राजनीति की. किसी को उठाने और गिराने की बात कही. गुस्सा किया. पर 20 जनवरी 2007 (जिस दिन मैंने ईटीवी ज्वाइन किया था) से लेकर अब तक मैंने उन्हें इस तरह की किसी भी टुच्ची चीजों में पड़ते या करते नहीं देखा. किसी ने कुछ बुरा सोचा और उन्हें पता लगा तो बस मुस्कुराते हुए एक लाइन कि प्रतिक्रिया होती थी– पता है प्रणव फलां… मुझे बहुत पसंद करते हैं. उन्हें मेरा चेहरा बहुत अच्छा लगता है. क्या आज की दुनिया में कोई ऐसा भी हो सकता है.

एक बार मेरे पूर्व इनपुट हेड अजय जी ने मुझे बुलाया और पूछा-तुम अशोक जी को कब से जानते हो? मैंने पूछा-क्यूं? उन्होंने कहा-यार ये आदमी बिलकुल ही सीधा है. उसका भी बुरा नहीं सोचता, जो उसे खंजर भोंकने के फिराक में रहता है. मैंने कहा-सर ये हमारी-आपकी तरह नहीं हैं. अजय जी का कमेंट था-ऐसे आदमी भी मीडिया में हैं.

उनके गुजरने के एक दिन बाद फिर से अपनी सीट पर बैठा हूं. रात के साढ़े बारह बज रहे हैं और सब काम निपटाते-निपटाते दो बज ही जायेंगे. उस सीट की ओर देखता हूं, जहां से उनकी आवाज आती रहती थी. इस स्टोरी का विजुअल कहां है. ये खबर दोपहर से आई है, अब तक नहीं बनी. पर अब वह आवाज फिर से सुनने को नहीं मिलेगी. किसे कहूंगा कि सर ये कल बड़ी खबर हो सकती है… ये होना है.. आप हैं ही, देख लीजिएगा…..

मृत्यु सत्य है, पर इस मौके पर… इस मोड़ पर जब हम सब आपको सोच रहे हैं. सागर (उनका बेटा) छोटा है,,, उसे आपकी जरूरत थी. अभी आपको जाना नहीं चाहिए था. हिंदू मान्यता के मुताबिक पुनर्जन्म सच है तो ख्वाहिश यही है फिर से आपसे संपर्क का मौका मिले और आग्रह यही कि तब इस तरह से छोड़ कर न जाना.  

हर लाइन के साथ दिल भर जा रहा है. आंसू छलक रहे हैं. खुद पर काबू रख कर अब तक जो लिख सका… अब दिमाग-दिल जवाब दे रहा है…सॉरी…अशोक सर.

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लेखक प्रणव टीवी जर्नलिस्ट हैं. इन दिनों वीओआई में कार्यरत हैं. उनसे संपर्क 9953558485 के जरिए किया जा सकता है.

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