हिंदुत्व का राग अलापा : उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी से तीन बार निष्कासित किए गए वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह ने नई पार्टी बनाई है। उनकी नई पार्टी का नाम है जनक्रांति पार्टी। कल्याण ने अपने बेटे राजबीर सिंह को इसका अध्यक्ष बनाया है। हैरतअंगेज बात तो ये है कि कल्याण की इस पार्टी का मुख्य एजेंडा हिंदुत्व रखा गया है। ठोस हिंदुत्व। मतलब ये कि अभी भी हिदुत्व के घोड़े पर सवार होकर सत्ता की मलाई डकारने के ख्वाब संजो रहे हैं कल्याण सिंह। यानि लौट के लल्लू घर को आए। लेकिन जिस घर पर लौटे उस घर के दरवाज़े तो बंद हैं। खूब खटखटाया मगर खुले नहीं। वो घर है बीजेपी का। मंगलवार को लखनऊ में अपनी नई पार्टी का ऐलान करते हुए कल्याण सिंह काफी आहत, चोटिल और बदला लेने पर आमादा नज़र आए।
उनके हाव-भाव ऐसे थे कि मानों संकेत देना चाहते हों कि वो हर उस इंसान को गलत साबित करने जा रहे हैं जिसने उन पर भरोसा नहीं किया। लेकिन ऐसी ही तल्खी तब भी देखी गई थी जब कल्याण ने 5 जनवरी 2000 को ‘राष्ट्रीय क्रान्ति पार्टी’ का गठन किया था। लेकिन वक्त के थपेड़ों में कल्याण खो गए और उनकी तल्खी भी। कल्याण सिंह ने समाजवादी पार्टी को पानी पी-पी कर गरियाया। खूब गरियाया। गरियाते ही चले गए। गरियायें भी क्यों ना, आखिर सपाइयों ने उन्हे ऐसे बाहर का रास्ता दिखाया कि पुरानी मसल याद आ गई कि बड़े बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले। यहां तो निकाले गए वो भी बुरी तरह बेइज्जत कर। ठेठ देसी अंदाज़ में कहें तो लतिया कर। खिसियाए कल्याण मुलायम पर जी भर कर सख्त हुए। राजबीर भी कल्याण के सुर में बोले, “समाजवादी पार्टी से लव मैरिज हुई थी, तलाक हो गया।” लेकिन एक कहावत और है कि जब वक्त खराब होता है तो ऊंठ पर बैठे शख्स को भी कुत्ता काट लेता है।
भइया कल्याण को माया के ऊपर भरोसा था नहीं तो उनसे संपर्क किया नहीं। हालांकि कुछ लोग ये भी कहते हैं कि चोरी-छुपे संपर्क किया तो था लेकिन बहन जी ने घास डाली नहीं। वैसे कल्याण सिंह ने जब मायावती के साथ मिलकर साझा सरकार बनाई थी तब मायावती को अपनी सगी बहन से बढ़कर बताया था। वक्त का तकाज़ा देखिए कि वही बहन पिघलने का नाम नहीं ले रही।
खैर, पार्टी बनाने के पहले कल्याण सिंह ने अपने सारे घोड़े दौड़ा लिए थे खुद को दोबारा बीजेपी में पहुंचाने के लिए। जैसा चाहा था वैसा हुआ नहीं। ना खुदा मिला, ना बिसाल-ए-सनम। बीजेपी के दर पर सज़दा करने वाले कल्याण का कल्याण नहीं हुआ। बीजेपी और सपा को करारा जवाब देने की ‘अंतिम इच्छा’ के साथ कल्याण सिंह ने बना ली नई पार्टी। इस पार्टी की कमान अपने बेटे राजबीर सिंह को सौंप दी। नाम रखा जनक्रांति पार्टी। लेकिन ये नहीं बता पाए कि कौन सी क्रांति और किसके लिए क्रांति? उन्होने ये भी नहीं बताया कि 5 जनवरी 2000 को अपने जन्मदिन के मौके पर जब ‘राष्ट्रीय क्रान्ति पार्टी’ का गठन किया था तब किसका क्या उखाड़ पाए थे वो? उलटा अपना पाला तक नहीं बचा पाए थे वो।
वो कहते हैं कि जब वक्त खराब होता है तो अपना साया भी साथ छोड़ देता है। कल्याण ने जिस-जिस का पल्ला पकड़ा, उसका पहुंचा ही नाप लिया। लुटिया डुबो दी। इसीलिए सबने उनसे कर लिया किनारा। बेटे राजबीर सिंह का करियर बीजेपी में अच्छा खासा चल रहा था लेकिन उसमें भी पलीता लगा दिया कल्याण ने। राजबीर की मर्ज़ी के खिलाफ बीजेपी छुड़वा दी, सपा में शामिल करवा दिया। राजबीर वहां जमने का जुगाड़ कर ही कर रहे थे कि जनक्रांति पार्टी बना डाली। बेचारे राजबीर करें भी तो क्या करें। पिता तो पिता होता है। राम की तरह राजबीर भी तैयार हो गये बनवास पर जाने के लिए। पिता के आगे बेबस जो ठहरे।
कल्याण सिंह ने अपने 77वें जन्मदिन के दिन पार्टी की स्थापना के साथ-साथ ये भी ऐलान कर डाला कि वो अभियान का आगाज़ अयोध्या से ही करेंगे और बेटे राजबीर एवं बहू प्रेमलता के साथ अयोध्या कूच करेगें। यानी एक बार फिर से राम भरोसे हैं कल्याण। लेकिन खेल देखिए… राम के सहारे रह कर कल्याण ने बीजेपी में वापसी के रास्ते बंद नहीं किए हैं। अपनी पार्टी में कोई पद नहीं लिया है उन्होने। मतलब ये कि बीजेपी की आइडियोलॉजी पर पार्टी को आगे बढ़ाया जाएगा और जैसे ही मौका मिलेगा लपक कर बीजेपी का दामन थाम लिया जाएगा। राजनाथ के राज में तो कल्याण को चारा तक नहीं डाला गया लेकिन कट्टर संघी नितिन गडकरी इसके लिए ज्यादा मुफीद साबित हो सकते हैं। सो उन पर डोरे डालने का काम भी लगातार कर रहे हैं कल्याण। झंडा भी बीजेपी के रंग वाला बनाया है। सिर्फ कमल का फूल नहीं है उसमें।
साल 1999 में कल्याण सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से पंगा ले लिया था और राष्ट्रीय क्रांति दल के नाम से अपनी नई पार्टी बनायी थी। तब उन्होंने राम मंदिर मुद्दे को झटक दिया था, लिहाज़ा जनता ने उन्हे झटका दे दिया। फिर हाथ-पांव जोड़कर साल 2004 में बीजेपी में वापसी कर ली। साल 2007 का विधानसभा चुनाव बीजेपी ने उनके नेतृत्व में लड़ा लेकिन करारी हार हाथ आई। फिर उन्होंने मुलायम सिंह से हाथ मिलाया और समाजवादी पार्टी के समर्थन से 2009 में एटा से लोकसभा चुनाव जीता।
जानकारों की अगर मानें तो दो बार ‘असफल समाजवादी’ बन चुके कल्याण सिंह का दोबारा ‘हिंदू नेता’ बनना काफी मुश्किल होगा। उनका कहना है कि कल्याण सिंह अपना भला भले ही ना कर पाएं लेकिन वो लोध और पिछड़े वर्गों के वोट काटकर मुलायम को नुकसान और मायावती को फायदा ज़रूर पहुंचा सकते हैं। कुल मिलाकर, जनक्रांति पार्टी के झंडे तले कल्याण कोई क्रांति करें या अपना कल्याण, लेकिन विरोधियों के खिलाफ मोर्चा ज़रूर खोल दिया है उन्होने। हर उस शख्स को गरिया रहे हैं जिसने उन्हे गच्चा दिया है। या यूं कहें कि जिसने उन्हे दूध की मक्खी की तरह से निकाल फेंका। लेकिन जनाब हम तो फिर यही कहेंगे कि कौए के कोसने से ढोर कहां मरा करते हैं?
लेखक अतुल अग्रवाल टीवी न्यूज़ चैनल ‘वॉयस ऑफ इंडिया’ के एंकर और आउटपुट हेड हैं.