अजय कुमार, लखनऊ
उत्तर प्रदेश में जब भी किसी चुनाव का आगाज होता है, उस समय कांग्रेस मंे प्रियंका गांधी वाड्रा के नाम का जाप शुरू हो जाता है। यह सिलसिला 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार जारी है। 2009 मतलब वो साल जब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का परचम फहराने के लिये उसके उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने ‘वन मैन आर्मी’ की तरह पूरे प्रदेश को ‘नाप’ डाला था। उनकी बड़ी-बड़ी जनसभाएं हुईं थी। इसमें भीड़ भी जुट रही थी। कांग्रेसियों को लगने लगा था कि यूपी में 20 वर्षो का ‘सूखा’ राहुल खत्म कर देंगे। केन्द्र में मनमोहन की यूपीए सरकार पदारूढ़ थी। इस वजह से कांग्रेस के पास संसाधनों और धनबल की कोई कमी नहीं थी।
2004 में कांग्रेस के पास यूपी में मात्र 09 लोकसभा सीटें थी,लेकिन राहुल के जर्बदस्त प्रचार के बाद यह आकड़ा 21 पर पहुंच गया। इसके अलावा कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली अजित सिंह की राष्ट्रीय लोकदल पार्टी के खाते में भी पांच सीटें आईं थी। यह सीटें कांग्रेस के लिये उम्मीद से काफी कम थीं,परंतु उस समय राहुल गांधी के युवा जोश को देखकर यह मान लिया गया कि राहुल का ‘सिक्का’ चल पड़ा है, लेकिन इसके बाद हुए 2012 के विधान सभा चुनाव, 2014 के लोकसभा चुनाव और तमाम उप-चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी अधिकांश सीटों पर चौथे नबंर पर नजर आने लगे थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो कांग्रेस के सांसदों की संख्या दो पर ही यानी सोनिया-राहुल तक सिमट गई। इससे बड़ी बात यह थी कि लोकसभा चुनाव के समय अधिकाश कांग्रेसी उम्मीदवार सोनिया गांधी की तो जनसभा अपने यहां कराना चाह रहे थे, लेकिन राहुल गांधी की जनसभा अपने क्षेत्र में कराने को लेकर कोई भी प्रत्याशी रूचि नहीं दिखा रहा था।
राहुल में अनेक खामियां हो सकती हैं, परंतु उनकी एक सबसे बढ़ी खूबी यह है कि उन्होंने कभी हार नहीं मानी और अपने अंदर कभी झांक कर यह देखने की कोशिश नहीं की कि वह पीएम बनने के योग्य भी हैं या नहीं। इसी लिये जब वह मोदी को चुनौती देते हैं तो ऊंट की पहाड़ से जुड़ी कहावत याद आ जाती है। 2009 से 2016 आते-आते राहुल में एक बदलाव और आ गया है। जब उन्हें यह लगने लगा कि बीजेपी को वह अकेले शिख्सत नहीं दे सकते हैं तो वह प्रशांत किशोर यानी पीके को यह सोच कर ले आये कि मोदी और नीतीश की तरह पीके उनकी भी कायाकल्प कर देंगे। मगर यह खेल भी लम्बा चलता नहीं दिख रहा है। ऐसे में कांग्रेस प्रियंका को लेकर संभावनाएं तलाश रही हैं।
कांग्रेस आलाकमान प्रियंका में संभावनाएं तलाश रहा है तो प्रियंका भी आलाकमान के सुर में सुर मिला रही हैं। गत दिनों अपनी दादी इंदिरा गांधी के जन्मशती समारोह पर स्वराज भवन आईं प्रियंका गांधी ने सक्रिय राजनीति में आने के संकेत दे भी दिए। इससे पहले वह राजनीतिक आयोजनों और किसी भी तरह का बयान देने से बचती रहतीं थी, लेकिन इस बार कार्यकर्ताओं से मुलाकात के दौरान प्रियंका ने सिर्फ सियासी मुद्दों पर बात की, जो कार्यकर्ता स्वराज भवन में प्रवेश नहीं कर सके, वह बाहर से प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने की मांग को लेकर नारेबाजी करते रहे और जिनकी प्रियंका से मुलाकात हुई, उन्होंने सीधे तौर पर प्रियंका से यूपी में पार्टी की कमान संभालने की मांग की। प्रियंका ने भी कार्यकर्ताओं को हताश नहीं किया। उन्होंने आश्वस्त किया कि इस बारे में जल्द ही कोई निर्णय लेंगी।
प्रियंका से मुलाकात के दौरान पार्टी के कई नेताओं ने तो यहां तक मांग उठाई कि पंडित नेहरू के जाने के बाद से फूलपुर संसदीय क्षेत्र दुर्दशा का शिकार है। कांग्रेस यहां कमजोर हैं। अगर प्रियंका 2019 के लोकसभा चुनाव में इस सीट से चुनाव लड़ जाएं, तो पार्टी को अपनी विरासत वापस मिल जाएगी। प्रियंका ने धैर्य के साथ सबको सुना और मुस्कुराते हुए बोलीं, ‘दिल्ली लौटकर कार्यकर्ताओं की सभी बातों पर विचार करुंगी और उचित समय आने पर निर्णय भी लूंगी।’ प्रियंका ने साफ तौर पर तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनकी ओर से कांग्रेसियों को मिला आश्वासन ही उन्हें उत्साहित करने के लिए काफी था।
नेहरू की कर्मस्थली और इंदिरा की जन्म स्थली पर सियासत में हलचल मचा गईं प्रियंका गांधी को लेकर फिर नई बहस छिड़ गई है। जितना प्रियंका का सियासत में आना तय लग रहा है उतनी ही पक्की बात यह यह भी है कि प्रियंका को राहुल के नेतृत्व में ही काम करना पड़ेगा,वह अपनी सियासत नहीं चमका पायेंगी। 2009 में कांग्रेस ने राहुल गांधी को तुरूप के पत्ते की तरह पेश किया था,जो चल नहीं पाया। जानकार कहते हैं कि अब कांग्रेस के पास प्रियंका गांधी आखिरी सबसे बड़ा तुरूप का पत्ता रह गई हैं।अगर यह नहीं चला तो नेहरू-गांधी परिवार की सियासत इतिहास बन सकती हैं,लेकिन ऐसे लोंगो की भी कमी नहीं है जो राहुल के फ्लाप होने के बाद प्रियंका में नजर जमाये बैठे हैं और प्रियंका भी नहीं चली तो प्रियंका के बच्चों की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखने लगेंगे। कांग्रेस की सियासत का यही रंग-ढंग है।
बहरहाल, प्रियंका के राजनीति में आने की खबरों से कांग्रेसी खुश हैं तो प्रियंका के सामने चुनौती भी कम नहीं होगी। पिछले 27 वर्षो में यूपी में कांग्रेस का जनाधार पूरी तरह से बिखर चुका है,जिसे वापस कांग्रेस खेमें में लाना प्रियंका के लिये असंभव तो नहीं, मुश्किल जरूर है। कांग्रेस का दलित वोटर बसपा के साथ और मुस्लिम वोटर सपा के पाले में चला गया है तो बीजेपी ने बनिया-ब्राहमणों को अपनी तरह कर रखा है। इसके अलावा भले ही प्रियंका का चेहरा-मोहरा भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी जैसा हो, लेकिन इंदिरा गांधी जैसा सियासी दिमाग वह कहां से लायेंगी। प्रियंका की अपरिपक्ता 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान देखने को मिली थी। प्रियंका के ‘नीच’ वाले बयान को मोदी ने जिस तरह से हवा दी थी, उससे तब काग्रेस को बच कर निकलना मुश्किल हो गया था। इसी तरह से प्रियंका के पति राबर्ट वाड्रा के जमीन घोटालों को विपक्ष चुनावी मुद्दा बनायेगा। इससे बचकर निकल जाना प्रियंका के लिये आसान नहीं होगा।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.