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अपने 20 साल के पत्रकारीय करियर में ऐसा कभी न देखा, न सुना

संजीव चौहान: बुश को जूता, बापू को अंगूठी : द लास्ट सैल्यूट ! :  तारीख 15 मई 2011 । दिन रविवार। समय शाम करीब पौने पांच बजे। जगह दिल्ली में राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधी । समाधी के चारों ओर चिलचिलाती धूप ।  पसीने से तर-ब-तर जबरदस्त भीड़। क्या बच्चे, क्या बूढ़े-जवान । सबको पड़ी है, करीब से बापू की समाधि के दर्शन करने की। समाधि के इर्द-गिर्द शोर के नाम पर गिलहरियों की चीं-चीं और कौवों की कांव-कांव। कभी-कभार बीच-बीच में समाधि के चारों ओर मौजूद हरी घास पर अनजाने में घुस आये बच्चों को हटाने के लिए गार्ड द्वारा बजाई गयी सीटी की आवाज ध्यान को भंग करती है। भीड़ में इक्का-दुक्का फोटोग्राफर हैं, जो लोगों को बुला-बुलाकर ग्रुप में बापू की समाधि के बैक-ग्राउंड में यादगार फोटो खिंचवाने को प्रेरित कर रहे हैं।  दो जून की रोटी के जुगाड़ में।

<p style="text-align: justify;"><img src="http://bhadas4media.com/images/2011/schauhaan111.jpg" border="0" alt="संजीव चौहान" width="85" height="77" style="float: left;" />: <strong>बुश को जूता, बापू को अंगूठी : द लास्ट सैल्यूट ! </strong>:  तारीख 15 मई 2011 । दिन रविवार। समय शाम करीब पौने पांच बजे। जगह दिल्ली में राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधी । समाधी के चारों ओर चिलचिलाती धूप ।  पसीने से तर-ब-तर जबरदस्त भीड़। क्या बच्चे, क्या बूढ़े-जवान । सबको पड़ी है, करीब से बापू की समाधि के दर्शन करने की। समाधि के इर्द-गिर्द शोर के नाम पर गिलहरियों की चीं-चीं और कौवों की कांव-कांव। कभी-कभार बीच-बीच में समाधि के चारों ओर मौजूद हरी घास पर अनजाने में घुस आये बच्चों को हटाने के लिए गार्ड द्वारा बजाई गयी सीटी की आवाज ध्यान को भंग करती है। भीड़ में इक्का-दुक्का फोटोग्राफर हैं, जो लोगों को बुला-बुलाकर ग्रुप में बापू की समाधि के बैक-ग्राउंड में यादगार फोटो खिंचवाने को प्रेरित कर रहे हैं।  दो जून की रोटी के जुगाड़ में।</p>

संजीव चौहान: बुश को जूता, बापू को अंगूठी : द लास्ट सैल्यूट ! :  तारीख 15 मई 2011 । दिन रविवार। समय शाम करीब पौने पांच बजे। जगह दिल्ली में राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधी । समाधी के चारों ओर चिलचिलाती धूप ।  पसीने से तर-ब-तर जबरदस्त भीड़। क्या बच्चे, क्या बूढ़े-जवान । सबको पड़ी है, करीब से बापू की समाधि के दर्शन करने की। समाधि के इर्द-गिर्द शोर के नाम पर गिलहरियों की चीं-चीं और कौवों की कांव-कांव। कभी-कभार बीच-बीच में समाधि के चारों ओर मौजूद हरी घास पर अनजाने में घुस आये बच्चों को हटाने के लिए गार्ड द्वारा बजाई गयी सीटी की आवाज ध्यान को भंग करती है। भीड़ में इक्का-दुक्का फोटोग्राफर हैं, जो लोगों को बुला-बुलाकर ग्रुप में बापू की समाधि के बैक-ग्राउंड में यादगार फोटो खिंचवाने को प्रेरित कर रहे हैं।  दो जून की रोटी के जुगाड़ में।

अचानक समाधि के आसपास आवाजें आने लगीं।  महेश जी नमस्कार। भट्ट जी नमस्ते। कैसे हैं भट्ट सर आप। पूजा जी भी आई हैं क्या आपके साथ। क्या शूटिंग करेंगे राजघाट पर। आपकी फिल्में बहुत बढ़िया लगती हैं। हमें तो विश्वास ही नहीं हो रहा, कि हम आपके और आप हमारे इतने करीब मौजूद हैं। हर कोई महेश जी को छू-कर देखने को आतुर। बच्चे नहीं जानते कि ये शख्स कौन हैं ? फिर भी मम्मी-पापा, दादा-दादी की रौ में महेश की जींस-कमीज, हाथ-पांव खींचने में जुट गये हैं। शायद ये सोचकर की जब मम्मी-पापा महेश जी से मिलने को इतने आतुर हैं, तो महेश जी जरुर कुछ खाने-पीने की चीज होंगे।  सबकी नज़रें महेश की तरफ ही उठ जाती हैं।…बापू की समाधि से हटकर। भीड़ घेर लेती है समाधि पर पहुंचने से पहले ही महेश जी को। पूरी बाहों वाली (आस्तीन आधी ऊपर को पलटी हुई)  काले रंग की शर्ट, नीली जींस और पैरों में हवाई चप्पल पहने ये महेश जी थे- “महेश भट्ट”। फिल्म मेकर। या कहिये पूजा भट्टा के पिता महेश भट्ट। या इनकी देश में एक नई पहचान राहुल भट्ट के पिता के रुप में भी बन गयी है। वही राहुल भट्ट, जिस पर मुंबई हमले का ब्लू-प्रिंट बनाने वाले हेडली को भाड़े की रिहाईश दिलवाने के आरोप लगे। देश भर में बबाल मचा था। ये महेश भट्ट उसी राहुल भट्ट के पिता भी हैं।

महेश भट्ट बापू की समाधि पर क्या पहुंचे ? अपने साथ चीख-पुकार भी लेकर आये। महेश भट्ट के समाधि परिसर में पांव पड़ते ही, थोडी देर पहले घास पर मूंगफली चब रहीं गिलहरियां गायब हो गयीं। महेश भट्ट के आने के बाद मची भागम-भाग में समाधि के आस-पास घास की रखवाली कर रहे सुरक्षा गार्ड सीटी बजाना भूल गया। भट्ट के साथ तीन चार लोग और थे। इनमें से दो के चेहरे, कद काठी मेरे दिल-ओ-दिमाग में उतर गये। एक गबरु जवान था। जिसकी उम्र रही होगी करीब 35-40 साल। गोरा-चिट्टा रंग। ठोढ़ी पर छोटी सी स्याह काली दाढ़ी। बदन पर काला हल्का कोट। पैरों में काले जूते। मजबूत कद-काठी।  और दूसरी शख्शियत थीं, एक गोरी मेम। यानि अंग्रेज महिला। उनका नाम न मैंने पूछा। न किसी ने बताया । मेम की उम्र का अंदाज हमने खुद लगा लिया। रही होंगी यही कोई 55 से 60 साल के बीच।

महेश भट्ट के साथ उस गबरु नौजवान और उन गोरी मेम ने भी गांधी को नत-मस्तक होकर श्रद्धाभाव जाहिर किया। कुछ देर वे सब बापू के सम्मान में सिर झुकाये खड़े रहे। आसपास की बाकी भीड़ से बे-खबर। सबसे पहले महेश भट्ट, उसके बाद गोरी मेम और फिर एक-एक कर,  बाकी सब लोगों ने भी अपने चेहरे ऊपर उठाकर आंखें खोल दीं। और समाधि की ओर हाथ जोड़कर खड़े हो गये। शायद ये सोचने के लिए कि- “दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल ।” लेकिन मेरी नज़र अब भी उस गबरु जवान पर ही गड़ी थी। जिसने अब भी बापू चरणों में झुके अपने सिर को ऊपर उठाकर नहीं देखा था। अपने काफिले के बाकी लोगों की तरह । धीरे-धीरे उस नौजवान ने आंखे बंद किये-किये ही सिर को ऊपर उठाया। समाधि की ओर जोड़कर रखे गये हाथों को खोला। और अपने हाथ की एक उंगली में मौजूद अंगूठी को निकालकर बापू की समाधि पर ही उनके चरणों पर चढ़ा दिया। बिना आंखे खोले। बिना इधर उधर किसी को देखे-भाले।

जो कुछ मैं देख रहा था, वो था तो सच। लेकिन खुद पर और अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। क्योंकि 40 साल की अपनी कुल उम्र और 20 साल के अपने पत्रकारिता के कार्यकाल में मैंने ऐसा कभी न देखा, न सुना था, कि श्रद्धाभाव के वशीभूत किसी ने बापू के चरणों में उनकी समाधि पर अपने हाथ में पहनी हुई अंगूठी समर्पित कर दी हो। मेरी याद में बापू के चरणों में फूल समर्पित करने से आगे कोई बढ़ा हो अब तक। चाहे वो हम-वतन का कोई नेता रहा हो या फिर अमेरिका जैसी सुपर-पॉवर का कोई राष्ट्रपति।  बार-बार जेहन में सवाल कौंधने लगा, कि महेश भट्ट के साथ भीड़ में शामिल ये गबरु नौ-जवान कुछ खास तो है। जो देखने-भालने भर का ही मुझे अपनी और आपकी तरह नज़र आ रहा है, लेकिन दिल-ओ-दिमाग से हम और आपसे काफी कुछ हटकर है। उस नौजवान के बारे में जानने के लिए मेरे जेहन में पैदा हुए तमाम सवाल भीड़ और महेश भट्ट के ग्लैमर में ही दब-कुचलकर रह गये। कोई नहीं जान-समझ पाया बापू के चरणों में अंगूठी चढ़ाने वाले उस गबरु जवान के बारे में। न मैं और न राजघाट पर बापू की समाधि के दर्शन करने पहुंची भीड़ में से कोई। मगर जरुरी था उस युवक के बारे में जानना। हमारा और आपका। जिसकी भाषा थी अरबी और देखने में था हम-सबसे (हिंदुस्तानियों) जुदा-जुदा।

देखते-करते शाम के करीब साढ़े छह बज गये।  सूरज ढलने लगा। सूरज ढलने के साथ ही राजघाट पर भीड़ बढ़ने लगी । भीड़ बढती देख महेश भट्ट का काफिला राजघाट से बाहर निकल गया ।  भट्ट साहब का काफिला आईटीओ होता हुआ मंडी हाउस पहुंचकर श्रीराम सेंटर के सामने रुक गया। कारों से सब लोग उतरकर श्रीराम सेंटर के भीतर जा पहुंचे। पीछे-पीछे मैं भी श्रीराम सेंटर जा पहुंचा। उस नौ-जवान के बारे में जानने की जिज्ञासा पाले, जिसने बापू की समाधि पर उतारकर चढ़ा दी थी, अपनी उंगली में मौजूद अंगूठी । श्रीराम सेंटर में प्रवेश करते ही चारों तरफ देखने को मिले होर्डिंग, बैनर। सुर्ख लाल रंग के। जिन पर सफेद और काले रंग से लिखा था- “द लास्ट सैल्यूट” (THE LAST SALUTE) । और द लास्ट सैल्यूट के नीचे एक कोने में बना था जूता ।  टिकट खिड़की पर पूछा तो पता चला कि श्रीराम सेंटर के सभागार में द लास्ट सैल्यूट नाटक का मंचन होना है। सात बजे से। नाटक की स्क्रिप्ट (पटकथा) लिखी है राजेश कुमार ने और निर्देशन किया है- अरविन्द गौड़ ने।

नाटक शुरू हुआ । मंच पर सबसे पहले अवतरित हुए फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट। महेश भट्ट ने पढ़ना शुरु किया।  खुद का लिखा वो ख़त जो उन्होंने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को संबोधित करते हुए लिखा था- कि वे (महेश भट्ट) बुश साहब के मेहमान बनने को तैयार नहीं हैं। इसके बाद शुरु हो गया नाटक- द लास्ट सैल्यूट। यानि आखिरी सलाम। नाटक करीब डेढ़ घंटे चला। पूरा नाटक मैंने भी देखा। नाटक उस घटना पर आधारित था, जिसमें इराक में प्रेस-कांफ्रेंस के दौरान एक इराकी पत्रकार ने उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के मुंह पर अपने जूते फेंक कर दे मारे थे। नाटक खत्म होने पर परदा गिरा। लाइटें बंद हुईं। चंद लम्हे बाद मंच पर जब दुबारा रोशनी हुई तो खड़े नज़र आये महेश भट्ट और वही गोरा-चिट्टा गबरु नौजवान, जिसने राजघाट पर बापू की समाधि पर चढ़ा दी थी, हाथ की उंगली से उतार अंगूठी।

जेहन में फिर सवाल कौंध गये । अरे आखिर कौन है, ये नौजवान ? जिसने चढ़ा दी थी गांधी की समाधि पर अंगूठी !  जिसे न बोलनी आती अंग्रेजी और न बोल पाता है हिंदी । जो अरबी भाषा के अलावा दुनिया की कोई और भाषा न बोल सकता है, न समझ सकता है ।  दर्शकों की भीड़ में बैठा मैं उस युवक के बारे में किसी से कुछ पूछूं,  उससे पहले ही नाटक के निर्देशक अरविंद गौड़ मंच पर आ जाते हैं। और बोलना शुरु कर देते हैं – दोस्तो आईये अब आपको मिलवाते हैं, उस शख्शियत से।  जिस पर, और जिसके कारण लिखा गया है नाटक –  द लास्ट सैल्यूट । अभी आप लोगों द्वारा देखे गये नाटक में मुख्य किरदार यानि बुश पर जूता फेंकने वाले इराकी पत्रकार का रोल निभाया था-  इमरान खान ने। इमरान खान यानि महेश भट्ट की आने वाली फिल्म चंदू के नायक । और आईये महेश भट्ट जी के साथ जो शख्शियत खड़ी है, वो ही है द लास्ट सैल्यूट का असली किरदार….यानि इराकी पत्रकार मुंतजर अल ज़ैदी।

मुंतजर अल ज़ैदी। कानों में आवाज सुनाई दी। तो चंद लम्हों को तो सोचने-समझने की ताकत ही जाती रही। विश्वास नहीं हुआ, कि जिस शख्स ने बापू की समाधि पर उनके चरणों में श्रद्धाभाव के चलते मेरी आंखों के सामने अपनी अंगूठी चढ़ा दी।  वो गबरु नौजवान कोई और नहीं। जार्ज बुश पर जूता फेंकने वाला इराकी पत्रकार मुंतजर अल ज़ैदी थे। यानि जार्ज बुश को जूता और बापू को अंगूठी। द लास्ट सैल्यूट, देखने के बाद सामने आयी उस शख्स की हकीकत, जिसके पीछे मैं भरी दोपहरी दिन-भर यहां वहां की खाक छानता फिरता रहा। और समझा कि –  द लास्ट सैल्यूट, का असली हीरो खुद ही मेरे पास वाली कुर्सी पर बैठकर देख रहा था- खुद पर तैयार नाटक….द लास्ट सैल्यूट, का मंचन ।

चलते-चलते हमने मुंतजर अल ज़ैदी से अंगूठी का राज जानना चाहा, तो उन्होंने साथ मौजूद अपने ट्रांसलेटर (दुभाषिये) और जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्धालय के अरबी साहित्य के रिसर्च स्कॉलर मोहम्मद ईसा के जरिये बताया- ये वो अंगूठी है, जो उनके धर्म से जुड़ी है। ये अंगूठी, जॉर्ज बुश पर जूता फेंकने की घटना से पहले उन्होंने अपने दोस्त के हवाले कर दी थी। इस गुजारिश के साथ कि अगर अमेरिकी राष्ट्रपति पर जूता फेंकने के आरोप में वो मारा जाये, तो अंगूठी निशानी के तौर पर उसके घर वालों के हवाले कर दे। तो ये अंगूठी थी राजघाट पर बापू के चरणों में अर्पित,  मुंतजर अल ज़ैदी का महात्मा गांधी को — दा लास्ट सैल्यूट।

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लेखक संजीव चौहान न्‍यूज एक्‍सप्रेस चैनल में एडिटर (क्राइम) के पद पर कार्यरत हैं.

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