3 मई। कसाब के फैसले का दिन। मुम्बई का तमाम मीडिया आर्थर रोड जेल के सामने सुबह आठ बजे से ही मौजूद। 150 से ज्यादा मीडियाकार। कई दर्जन ओबी वैन। मुम्बई की उमस से सब पसीने-पसीने। दिन भर लगातार स्टोरी पर स्टोरी। शाम के 6 बजे तक उन्हें काम करते लगातार 10 घंटे हो चुके हैं। बस ठोड़ी देर और… सभी रिलीव होने के इंतजार में। लेकिन यह इंतजार खत्म नहीं होता। सात बजे से पहले मुम्बई की लोकल ट्रेनों के मोटरमैन हड़ताल पर चले जाते हैं। दरअसल वे सुबह से ही भूख हड़ताल करते हुए काम कर रहे थे। पद, ग्रेड और सैलरी बढ़ाने की मांग को लेकर। शाम होते-होते उनका शरीर जवाब देने लगा। अस्पताल ले जाने की नौबत आ गयी।
… और मुम्बई की लाइफलाइन थम गयी। ट्रेनें क्या रुकीं, मुम्बई ही थम गयी। पीक आवर का वक्त। भीड़ सड़कों पर बेतहाशा बढ़ती चली गयी। ओबी वैन चर्चगेट और सीएसटी स्टेशनों की ओर मुडऩे लगीं। लाखों लोगों से सड़कें भर गयीं। बसें और टैक्सियां ऊंट के मुंह में जीरे की तरह हो गयीं। रात तक हालात 26 नवंबर, 2008 जैसे हो चले। उस दिन भी आतंकी हमले के कारण ट्रेनें थमी थीं। फर्क सिर्फ इतना था कि लोग इधर-उधर छिपकर सुबह होने का इंतजार करते रहे थे। और आज वे सड़कों पर उमड़े पड़ रहे थे।
रात साढ़े ग्यारह बजे मैं एडिशन छोड़कर बाहर का जायजा लेने निकलता हूं। टाइम्स ऑफ इंडिया की बिल्डिंग के सामने सीएसटी के दरवाजे बंद कर दिये गये हैं। पुलिस लोगों को पीछे ठेल रही है। पसीने से तरबतर, भूखे-प्यासे लोग। मैं फाउंटेन तक का चक्कर लगा आता हूं। दुकानों, होटलों और स्टालों से खाने-पीने का सामान खत्म हो गया है। भीड़ बढ़ती जा रही है। लोग थककर सड़कों पर बैठ गये हैं। आखिर रात को कहां जायें? क्या खायें? कोई बस आती, तो उसकी ओर दौड़ लगाते। पर उसमें भी कितने समाते?
पुलिस की सक्रियता देखते ही बनती है। आजाद मैदान थाने के सिपाही लाठियां भांज रहे हैं। उन्हीं के सामने से होकर कसाब और इस्माइल सीएसटी से निकलकर कामा अस्पताल में जा घुसे थे। वहीं से निकलकर उन्होंने करकरे, काम्टे और सालस्कर को मौत की नींद सुलाया था। तब ये सिपाही कहीं नजर नहीं आ रहे थे। आज असहाय, भूखे-प्यासे लोगों पर ताकत दिखा रहे हैं। एसीपी-डीसीपी तक सड़कों पर आ गये हैं।
रात 12 बजे मैं दफ्तर लौटता हूं। शायद घर लौटना मुमकिन न हो। इसलिए दफ्तर में ही रुकने का फैसला करता हूं। तभी खबर आती है कि मेल ट्रेनों को लोकल बनाकर छोड़ा जा रहा है। मैं अपने तीन सहयोगियों कुमार पार्थसारथी, ए. एन. मिश्रा और नारायण के साथ
ïदफ्तर की ड्रॉप कार से निकलता हूं। रात सवा बजे। दो बजे कार को हम दहिसर स्टेशन पर छोड़ते हैं, क्योंकि हमारे उपनगर वसई तक कार नहीं जाती। स्टेशन के पुल पर खड़े होकर हम विरार की ओर जाने वाली ट्रेन का इंतजार करते हैं। आधा घंटा बीतता है। हमारा घीरज चुकने लगता है। प्लेटफार्म पर चार सिपाही अलसाये से बैठे हैं। वे भी शायद थक गये हैं। रात ढाई बजे एक मेल ट्रेन आती है। हम उसमें घुस जाते हैं। रात सवा तीन बजे घर पहुंचता हूं। बैग सोफे पर रखकर टीवी ऑन करता हूं। हर चैनल पर हड़ताल की ही खबर चल रही है। कई रिपोर्टर तो वही नजर आते हैं, जो सुबह आठ बजे से कसाब के फैसले की खबरें कर रहे थे। उन्हें काम करते 19 घंटे हो गये हैं। उन पर तरस आता है, स्नेह उमड़ता है, उन्हें पार्टी देने का मन करता है।
चार बजे के बाद नींद आती है। सुबह भी कसाब के फैसले और हड़ताल की खबरों में आगे रहने की होड़ मची रहती है। वही रिपोर्टर थकान को भुलाकर काम में जुटे नजर आते हैं। दोपहर को दफ्तर के लिए निकलता हूं। आज कम लोग घरों से निकले हैं। सवा घंटे का सफर तीन घंटे में तय करके दफ्तर पहुंचता हूं। हड़ताल खत्म हो गयी है। मुम्बई थमी रही इस बीच। मुम्बईकर बहुत परेशान रहे। अब जाकर परेशानी दूर हुई। … लेकिन करीब 30 घंटे तक काम करते रहे इन मीडियाकारों को कोई सलाम करेगा क्या?
लेखक भुवेन्द्र त्यागी नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.