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सांप्रदायिक एवं निर्देशित हिंसा प्रतिरोध विधेयक, 2011 स्वयं में ही सांप्रदायिक है!

सांप्रदायिक एवं निर्देशित हिंसा रोकथाम विधेयक, 2011 बिल स्वयं अपने आप में साम्प्रदायिकता  के दलदल में धसी हुई नज़र आती है। अब जब भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता का भाव बढ़ रहा है तब बिल काल के रुप में सामने आयी है। यह बिल समाज को कई भागो में बाटने की कोशिश है। निम्नलिखित प्रश्नो के आधार यह बिल अपने आप में सांप्रदायिक प्रतीत होती है:- क्या साम्प्रदायिक दंगा सिर्फ हिन्दुओं या बहुसंख्यकों के द्वारा ही होता है? क्या NAC द्वारा बिल की ड्राफ्टिंग गैर संवैधानिक प्रक्रिया नहीं है? क्या बिल की प्रकृति स्वयं में ही साम्प्रदायिक नहीं है? देश में कई ऐसी जगह है जहां हिन्दू भी अलपसंख्य हैं या जब एक अलसंख्यक बर्ग दूसरे अलपसंख्यक बर्ग के खिलाफ इस प्रकार कोई कृत करता है तो उस स्थित में क्या होगा? क्या यह बिल संघीय प्रणाली की घोतक नहीं है? क्या यह बिल सिर्फ वोट बैंक राजनीति का परिणाम नहीं है?

<p style="text-align: justify;">सांप्रदायिक एवं निर्देशित हिंसा रोकथाम विधेयक, 2011 बिल स्वयं अपने आप में साम्प्रदायिकता  के दलदल में धसी हुई नज़र आती है। अब जब भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता का भाव बढ़ रहा है तब बिल काल के रुप में सामने आयी है। यह बिल समाज को कई भागो में बाटने की कोशिश है। निम्नलिखित प्रश्नो के आधार यह बिल अपने आप में सांप्रदायिक प्रतीत होती है:- क्या साम्प्रदायिक दंगा सिर्फ हिन्दुओं या बहुसंख्यकों के द्वारा ही होता है? क्या NAC द्वारा बिल की ड्राफ्टिंग गैर संवैधानिक प्रक्रिया नहीं है? क्या बिल की प्रकृति स्वयं में ही साम्प्रदायिक नहीं है? देश में कई ऐसी जगह है जहां हिन्दू भी अलपसंख्य हैं या जब एक अलसंख्यक बर्ग दूसरे अलपसंख्यक बर्ग के खिलाफ इस प्रकार कोई कृत करता है तो उस स्थित में क्या होगा? क्या यह बिल संघीय प्रणाली की घोतक नहीं है? क्या यह बिल सिर्फ वोट बैंक राजनीति का परिणाम नहीं है?</p>

सांप्रदायिक एवं निर्देशित हिंसा रोकथाम विधेयक, 2011 बिल स्वयं अपने आप में साम्प्रदायिकता  के दलदल में धसी हुई नज़र आती है। अब जब भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता का भाव बढ़ रहा है तब बिल काल के रुप में सामने आयी है। यह बिल समाज को कई भागो में बाटने की कोशिश है। निम्नलिखित प्रश्नो के आधार यह बिल अपने आप में सांप्रदायिक प्रतीत होती है:- क्या साम्प्रदायिक दंगा सिर्फ हिन्दुओं या बहुसंख्यकों के द्वारा ही होता है? क्या NAC द्वारा बिल की ड्राफ्टिंग गैर संवैधानिक प्रक्रिया नहीं है? क्या बिल की प्रकृति स्वयं में ही साम्प्रदायिक नहीं है? देश में कई ऐसी जगह है जहां हिन्दू भी अलपसंख्य हैं या जब एक अलसंख्यक बर्ग दूसरे अलपसंख्यक बर्ग के खिलाफ इस प्रकार कोई कृत करता है तो उस स्थित में क्या होगा? क्या यह बिल संघीय प्रणाली की घोतक नहीं है? क्या यह बिल सिर्फ वोट बैंक राजनीति का परिणाम नहीं है?

उपरोक्त सवालों का जब जवाब ढूढने का प्रयास करते है तो सबसे प्रथम आता है कि क्या इस देश में दंगा सिर्फ हिन्दुओ या बहुसंख्यक वर्ग द्वारा ही होता है इसमें कथाकथित अलपसंख्यक वर्ग की कोई भूमिका नहीं होती है। इतिहास गवाह रहा कि इस प्रकार के सांप्रदायिक दंगे किसी एक  पक्ष का परिणाम नहीं होता है अपितु इसमें दोनों पक्षों की बराबर की जवाहदेही होती है। दंगो में सिर्फ अलपसंख्यक वर्ग को ही जान माल की हानि नहीं होती है इसमें बहुसंख्यको को भी हानि पहुंचती है लेकिन सिर्फ किसी खास वर्ग विशेष को बिल के दायरे मे लाना और दूसरे वर्ग को इसके लिए जिम्मेवार ठहराना इस बिल के साम्प्रदायिक पृष्टभूमि को दर्शाता है। ड्राफ्टिंग कमैटी ने बिल बनाते वक्त देश में घटित विभिन्न दंगो का उदाहरण दिया है लेकिन इसमें गोधरा कांड को नहीं लिया गया जिसमे 59 हिन्दुओ की हत्या हुई थी। इसके अलावा 1992 के मुबंई दंगे या 1993 का वम बलास्ट क्या  हिन्दू साजिश का नतीजा था सम्पूर्ण बिल को पढ़ने से  लगता है कि यह बिल 2002 गुजरात  दंगो के आस-पास केन्द्रित करके बनाई गयी है व इसके केन्द्र बिन्दु में संघ परिवार है। इसके अलावा धर्मांतरण को यह बिल किस तरह देखता है स्पष्ट नही है।

दूसरा बड़ा सवाल है कि क्या NAC जो कि अनिर्वाचित ढ़ाचा है उसके द्वारा बिल डाफ्ट्र करना संवैधानिक परम्पराओं का घोतक नही है या क्योंकि कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी जी इसकी अध्यक्ष है इसिलिए तो इसे सारे अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। तीसरा व महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या बिल की प्रकृति स्वयं में ही साम्प्रदायिक नहीं है। इस बिल की ड्राफ्टिंग कमैटी के सलाहकार परिषद में जो नाम है उनमें से अधिकतर किसी वर्ग विशेष के पक्षधर है। तीस्ता सीतलवा़ड जिसके खिलाफ कई बार सुप्रीम कोर्ट टिप्पणी कर चुकी है उसे इस बिल के साथ जोड़ना कहां तक सही है। जॉन दयाल, अबुसलेह शरीफ, असगर अली इंजीनियर, सैयद शहाबुद्दीन, कमाल फारुकी, सिस्टर मैरी सोनिया, फरा नक्वी, अनु आगा, हर्ष मंदर आदि उन लोगो में से हैं जो किसी समुदाय विशेष के साथ है या किसी समुदाय विशेष के कड़े आलोचक है इन से किस प्रकार से उम्मीद की जा सकती है कि इन्होने  निष्पक्ष होकर बिल तैयार किया होगा।

चौथा महत्वपूर्ण प्रश्न है कि आखिर अलपसंख्यक मानने के जो मापदंड अपनाया गया है वही सवालो के घेरे मे है, देश में कई ऐसी जगह है जहां हिन्दू अलपसंख्यक हैं दूसरे शब्दो में कहे लगभग हर ऱाज्य में  कोई न कोई जगह ऐसी है जहां हिन्दू अलपसंख्यक हो जाते है। उदाहरणस्वरुप हम अगर दिल्ली को लें तो जामिया, जामा मस्जिद जैसे कई इलाके है जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं अगर इन जगहों पर किसी प्रकार कि घटना घटती है तो क्या वह इस बिल के दायरे में आती है। उसी तरह इस बिल के रोचक बात है कि यहां राज्यो के आधार पर अलपसंख्यक निर्धारित किये गये ऐसे में जन्मू- कश्मीर ऐसा राज्य है जहां हिन्दू अलपसंख्यक है क्या यह बिल कश्मीरी पंडितों को वापस कश्मीर मे स्थापित करने और उनकी सुरक्षा स्थापित करने में मददगार साबित होगा जवाब है नहीं क्योंकि यह बिल जन्मू-कश्मीर पर लागू ही नही होता ।

इसके अलावा अगर अलपसंख्यक वर्ग दूसरे अलपसंख्यक वर्ग के खिलाफ कुछ करता है तो उस स्थिती में क्या होगा यह बिल मे स्पष्ट नहीं है। उदाहरणस्वरुप केरल में पादरी का हाथ अतिवादी मुस्लिमों ने काट दिया इस स्थिती में जब दोनो ही अलपसंख्यक समुदाय है तो यह बिल वहां निरर्थक सिद्ध होता है। इस बिल के अंतर्गत SC/ST वर्ग को भी शामिल किया गया है इस स्थिती में देखे तो केरल में कुल हिन्दुओ की संख्या में से अगर SC/ST  को निकाल दिया तब वे स्वत: अलपसंख्यक वर्ग में आ जायेंगे तो यहां बिल के अनुसार अब स्थिती अलपसंख्यक बनाम अलपसंख्यक हो जायेगी। यही स्थिती पंजाब मे सिखो के साथ है। दूसरी ओर अगर अलपसंख्यक समुदाय SC/ST के खिलाफ कुछ करता है उस स्तिथी में क्या होगा यहां भी स्पषटता का अभाव है।

पांचवा सवाल है कि क्या है बिल संघीय प्रणाली का घोतक नही है, अगर यह बिल इसी रुप में पास हो जाता है तो  भारतीय संघीय प्रणाली के लिए खतरनाक सिद्ध होगा। कानून एवं पुलिस व्यवस्था राज्य के मामले है इस बिल के द्वारा राज्य के अधिकारो का हनन होगा और उस स्थिती में राज्य और केन्द्र सरकार आमने सामने होगें। राज्यों के कार्यक्षेत्र में केन्द्र का दखल असंवैधानिक होगा। इसके आलवा इस बिल से प्रशासनिक अधिकारियों एवं पुलिस अधिकरियो का मनोबल भी गिरेगा। व दुविधा की स्थिती में रहेगें कि केन्द्र की सुने या राज्य की उनकी  स्वयं की इच्छा से किसी प्रकार की निर्णय लेने की प्रक्रिया प्रभावित होगी।

छठा सवाल अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि क्या यह बिल वोटबैंक की राजनीति का परिणाम तो नहीं है, देश में हमेशा कोई चुनाव होते रहते है, अभी पांच राज्यों के चुनाव खत्म हुए नहीं की आगामी विधानसभा चुनावो की तैयारी शरू हो गई है। उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इस बिल को सार्वजनिक करना कहीं कांग्रेस के द्वारा अलपसंख्यक वोटो को रिझाने का प्रयास तो नहीं है, एक समय में जहां उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस के खेमे मे हुआ करते थे वह धीरे-धीरे कांग्रेस से दूर चले गये, कांग्रेस इस तथ्य को अच्छी तरह से समझती है कि अगर किसी तरह फिर से इस वोट वैंक को पाने में कामयाब हो जाये तो वह उ.प्र मे अपनी स्थिती मजबूत कर पायेगी। उ.प्र. चुनाव के साथ-साथ वह 2014 के लोकसभा चुनाव को भी लक्ष्य बना कर चल रही है। कांग्रेस इस बिल के माध्यम से अपने को मुस्लमानो व अलपसंख्यको का सबसे बड़ा हितैसी साबित करने का प्रयास कर रही है। इन प्रश्नो के अलाव जिस प्रकार का दण्ड का प्रवाधान इस बिल के माध्यम से रखा गया है वह अभिव्यक्ति की स्वंत्रता पर भी आघत है।

उदाहरणस्वरुप अगर कोई संस्था या व्यक्ति अलपसंख्यको के खिलाफ किसी प्रकार का टिप्पणी करता है तो उस पर सीधे तौर से आपराधिक धारओं के अंतर्गत कारवाई की जायेगी। अगर यह बिल पारित होता तो संदीप दीक्षित द्वारा सेंट स्टीफेंस कालेज के बारे मे दिया गया बिचार के बाद उन पर आपराधिक धारओं के  अंतर्गत मुकदमा दर्ज हो जाता। उपरोक्त प्रश्वो के उत्तर का निचोर देखो तो लगता है कि यह बिल स्वंय में ही साम्प्रदायिक है। इस बिल का एक मात्र उदेश्य सम्पूर्ण समाज को अलपसंख्यक व बहुसंख्यक में बाटने का है। यह बिल समाज में एक प्रकार का भय का वातावरण बना रहा है। इस बिल को संशोधित करने की नहीं अपितु डंप करने की आवश्यकता है यही देश के लिए हितकारी सिद्ध होगा।

नवनीत

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