इतिहास खुद को दोहरा रहा है… ये ना आदि है ना अन्त है..ये चक्र है जो अनन्त है …ये वक्त है जो चल रहा ..खुद अपनी कहानी कह रहा ..आज से लगभग 25 साल पहले जिस जगह चन्द्रशेखर थे, आज उस जगह मुलायम सिंह यादव हैं। जिस जगह मुलायम सिंह यादव थे आज उस जगह पर अखिलेश यादव है । सियासत में विश्लेषण निर्मम होता है और ये किसी को नहीं बख्शता। मुलायम सिंह यादव सहानुभूति के पात्र हो सकते हैं उम्र के लिहाज से लेकिन आज जो घट रहा है उसके सूत्रधार तो स्वयं मुलायम सिंह यादव ही है। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाय या फिर जैसी करनी वैसी भरनी। अंतर सिर्फ इतना हो गया कि आज सियासत में पुत्र ने ही वो कर दिया जो वो हमेशा करते आए है तो इसमें पुत्र का दोष कैसा? क्या कोई मुलायम सिंह यादव से ये पूछ सकता है कि चन्द्रशेखर की पार्टी समाजवादी जनता पार्टी तोड़ने का सिद्धान्त क्या था ..क्या जिन उद्देश्यों और विचार को लेकर सजपा को मुलायम ने तोड़ा, क्या उनकी प्राप्ति हुई?
सबसे बड़ी बात तो यही है कि मुलायम ने चन्द्रशेखर को इसलिए टाटा बाय बाय बोल दिया था कि मुलायम ने ये आशंका जाहिर की वो कांग्रेस से मिल सकते है और अगर चन्द्रशेखर कांग्रेस से मिल गए तो उनका क्या होगा। लेकिन उसके बाद क्या हुआ ..मुलायम सिहं यादव ने उसके बाद पूरी राजनीति कांग्रेस से समर्थन लेकर या कांग्रेस को समर्थन देकर की। तो फिर बुनियादी सबाल तो वहीं अछूता रह गया ना ..कि क्या हुआ मुलायम की कांग्रेस विरोधी राजनीति का और रही बात विचार धारा का ….तो वो तो कब की परिवारवाद की भेंट चढ़ चुका है। लोहिया क्या चाहते थे? किस तरह के विचारों के आजीवन पोषक रहे? ये किसी से छिपा नहीं रहा। लोहिया के विचारों का लबादा ओढ़े मुलायम सिंह यादव बालीबुड हसीनाओं का नृत्य देखते रहे जिन्हे उन्होने लोकसंगीत और कलाकारों के बढ़ावा देने के नाम पर प्रचारित किया।
लोहिया के विचारों की कसमें खाते गए और परिवार के एक एक आदमी को सियासत में आगे बढ़ाते गए। लेकिन इस ब्रहमांड का सत्य है कि जिसका आदि है उसका अंत है और पच्चीस साल पहले जिस एकला चलो की राह पर सत्ता के लिए मुलायम सिंह यादव निकले थे आज उसी एकला चलो की राह से कारंवा गुजर रहा और फिर वो एकला चलो की राह पर चलने के लिए मजबूर है। आज उम्र के पड़ाव पर वो ये कहने के लिए मजबूर हैं कि वो खुद बेटे के खिलाफ चुनाव लडेगें। आज वो ये भावानात्मक अपील कर रहे हैं कार्यकर्ताओं से कि आप ने मेरा साथ हमेशा दिया है और आज इस घड़ी में मेरा साथ और दे दीजिए।
मुलायम सिंह यादव आज के वक्त में सिर्फ प्रदेश के नहीं बल्कि गठबंधन की राजनीति के दौर में देश के बड़े नेताओं में शुमार हो चुके है और एक वक्त ऐसा भी आया जब प्रधानमंत्री की गद्दी पर वो बैठते बैठते रह गए और उन्होने अखिलेश यादव को यूपी की सत्ता इसलिए सौपी थी कि बेटा यूपी की सत्ता संभाले और वो खुद दिल्ली की राजनीति से पीएम पद की दौड़ में आए लेकिन होनी कब कौन सी चाल चले ..ये तो वो भी नहीं जानते जिन्होने इस सृष्टि का निर्माण किया तो हमारी आपकी क्या बिसात….पर अब दिल्ली तो छोड़िए मुलायम के लिए लखनऊ की गद्दी ही मुश्किल हो चली है..सत्ता तो छोड़िए सियासत के लिए अपनी बनाई हुई जमीन ही खोती जा रही है …और अब तो सूबा चुनाव के दहलीज़ पर है।
जिस वक्त मुलायम को जनता के बीच अपने लिए वोट मांगना था …अब वो चुनाव आयोग में खड़े होकर अपने लिए साइकिल मांग रहे हैं…जिस वक्त उन्हें गठबंधन की राहे तलाशनी थी ..ऐसे वक्त में साइकिल कैसे बचे ..इसकी युक्तियां निकाल रहे हैं …हालांकि अब तरकश से तीर निकल चुका है ..लड़का बहक चुका है ..जब तक वो आपके पास था ..आप किसी और के पास थे ..आज जब वो आपसे दूर हो गया तब आप कह रहे है कि वो हमारी सुनता ही नहीं । अरे मुलायम सिंह यादव जी ..जरा सोचिए ..समझिए और दूसरों को दोष देने के बजाय अपनी करनी को सोचिए। आपको तसल्ली भी मिलेगी और दोषारोपड़ के झमेले से भी बाहर निकल आयेगें ।अब तो वैसे भी आप संरक्षक मंडल में आ गए हैं….सलाह मुफ्त है …हो सकता है कि कारगर ना लगे..लेकिन फिर दे रहा हूं…जीत जाएगें तो नाम नहीं होगा क्यों कि आप तो मंझे हुए सियासत के खिलाड़ी है लेकिन अगर हार गए पुत्र से तो सियासत में विदाई बड़ी दुखदाई होगी । मुझे लगता है आप जरुर समझेंगे।
मनीष बाजपेई
कार्यकारी संपादक
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