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राजनीति-सरकार

किस रणनीति के तहत सैफई महोत्सव स्थल पर 35 फीट ऊंची हनुमान जी की मूर्ति स्थापित की गई?

अजय कुमार, लखनऊ

उत्तर प्रदेश में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। कौन होगा यूपी का अगला सीएम। यह जिज्ञासा चौतरफा देखी जा सकती है। सबके अपने-अपने दावे हैं, लेकिन इतिहास के पन्नोें में जो सिमटा हुआ है उसके आधार पर कहा जाये तो अखिलेश यादव के दोबारा सीएम बनने की उम्मीद न के बराबर है। इतिहास तो यही बताता है कि यूपी की जनता ने किसी को भी लगातार दो बार सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठाया है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि अगर अखिलेश नहीं तो कौन? क्या बसपा की फिर से सरकार बनेगी ? या कांग्रेस के सितारे चमकेंगे अथवा पीएम और बीजेपी के बड़े नेता नरेन्द्र मोदी का जादू यूपी में भी चलेगा। सियासी की बिसात पर सभी प्रमुख दल अपना वोट बैंक मजबूत और विरोधियो के वोट बैंक में बिखराव होता देखना चाहते हैं। नेताओं की इसी चाहत ने यूपी को एक बार फिर जातिवादी राजनीति के दलदल में ढकेल दिया है। मगर अबकी से मुसलमानों को लेकर यूपी की सियासत का रूख कुछ बदला-बदला नजर आ रहा है। बसपा हो या समाजवादी पार्टी अथवा कांग्रेस सभी दल अबकी से मुस्लिम वोट बैंक को मजबूत करने के चक्कर में ज्यादा उतावलापन नहीं दिखा रहे हैं। शायद इन दलों के रणनीतिकारों के दिलो-दिमाग मंे 2014 के लोकसभा चुनाव वाला मंजर निकल नहीं रहा होगा। इस लिये अबकी से कोई गलती न दोहराते हुए यह दल मुस्लिम सियासत के चक्कर में फंस कर हिन्दू वोट बैंक को लामबंद होते नहीं देखना चाहते  है। इसी वजह से प्रदेश में अल्पसंख्यकों को लेकर की जाने वाली सियासत का चेहरा अब बदलने लगी है।

<p>अजय कुमार, लखनऊ</p> <p>उत्तर प्रदेश में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। कौन होगा यूपी का अगला सीएम। यह जिज्ञासा चौतरफा देखी जा सकती है। सबके अपने-अपने दावे हैं, लेकिन इतिहास के पन्नोें में जो सिमटा हुआ है उसके आधार पर कहा जाये तो अखिलेश यादव के दोबारा सीएम बनने की उम्मीद न के बराबर है। इतिहास तो यही बताता है कि यूपी की जनता ने किसी को भी लगातार दो बार सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठाया है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि अगर अखिलेश नहीं तो कौन? क्या बसपा की फिर से सरकार बनेगी ? या कांग्रेस के सितारे चमकेंगे अथवा पीएम और बीजेपी के बड़े नेता नरेन्द्र मोदी का जादू यूपी में भी चलेगा। सियासी की बिसात पर सभी प्रमुख दल अपना वोट बैंक मजबूत और विरोधियो के वोट बैंक में बिखराव होता देखना चाहते हैं। नेताओं की इसी चाहत ने यूपी को एक बार फिर जातिवादी राजनीति के दलदल में ढकेल दिया है। मगर अबकी से मुसलमानों को लेकर यूपी की सियासत का रूख कुछ बदला-बदला नजर आ रहा है। बसपा हो या समाजवादी पार्टी अथवा कांग्रेस सभी दल अबकी से मुस्लिम वोट बैंक को मजबूत करने के चक्कर में ज्यादा उतावलापन नहीं दिखा रहे हैं। शायद इन दलों के रणनीतिकारों के दिलो-दिमाग मंे 2014 के लोकसभा चुनाव वाला मंजर निकल नहीं रहा होगा। इस लिये अबकी से कोई गलती न दोहराते हुए यह दल मुस्लिम सियासत के चक्कर में फंस कर हिन्दू वोट बैंक को लामबंद होते नहीं देखना चाहते  है। इसी वजह से प्रदेश में अल्पसंख्यकों को लेकर की जाने वाली सियासत का चेहरा अब बदलने लगी है।

अजय कुमार, लखनऊ

उत्तर प्रदेश में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। कौन होगा यूपी का अगला सीएम। यह जिज्ञासा चौतरफा देखी जा सकती है। सबके अपने-अपने दावे हैं, लेकिन इतिहास के पन्नोें में जो सिमटा हुआ है उसके आधार पर कहा जाये तो अखिलेश यादव के दोबारा सीएम बनने की उम्मीद न के बराबर है। इतिहास तो यही बताता है कि यूपी की जनता ने किसी को भी लगातार दो बार सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठाया है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि अगर अखिलेश नहीं तो कौन? क्या बसपा की फिर से सरकार बनेगी ? या कांग्रेस के सितारे चमकेंगे अथवा पीएम और बीजेपी के बड़े नेता नरेन्द्र मोदी का जादू यूपी में भी चलेगा। सियासी की बिसात पर सभी प्रमुख दल अपना वोट बैंक मजबूत और विरोधियो के वोट बैंक में बिखराव होता देखना चाहते हैं। नेताओं की इसी चाहत ने यूपी को एक बार फिर जातिवादी राजनीति के दलदल में ढकेल दिया है। मगर अबकी से मुसलमानों को लेकर यूपी की सियासत का रूख कुछ बदला-बदला नजर आ रहा है। बसपा हो या समाजवादी पार्टी अथवा कांग्रेस सभी दल अबकी से मुस्लिम वोट बैंक को मजबूत करने के चक्कर में ज्यादा उतावलापन नहीं दिखा रहे हैं। शायद इन दलों के रणनीतिकारों के दिलो-दिमाग मंे 2014 के लोकसभा चुनाव वाला मंजर निकल नहीं रहा होगा। इस लिये अबकी से कोई गलती न दोहराते हुए यह दल मुस्लिम सियासत के चक्कर में फंस कर हिन्दू वोट बैंक को लामबंद होते नहीं देखना चाहते  है। इसी वजह से प्रदेश में अल्पसंख्यकों को लेकर की जाने वाली सियासत का चेहरा अब बदलने लगी है।

2014 के लोकसभा चुनाव तक कई दलों के नेतागण मुस्लिमों के तुष्टीकरण की खुली राजनीति करते रहे थे, लेकिन 2014 में बीजेपी ने विरोधियों के खिलाफ मुस्लिम तुष्टिकरण का ढिढोरा पीट कर हिन्दू वोटरों को अपने पक्ष में लामबंद किया तो मुस्लिम वोटों की चाहत रखने वालों के हाथ के तोते उड़ गये। अब ज्यादातर सियासी पार्टिंयां मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण की खुली राजनीति से बचने लगी हैं, इसी वजह से आजम खान जैसे नेताओं को सपा ने पार्टी से बाहर का रास्ता भले ही न दिखाया हो लेकिन एक तरह से हासिये पर तो डाल ही दिया है। बाहुबली मुख्तार अंसारी जैसे लोगों द्वारा खड़े किये घोर मुस्लिमपरस्त दलों से सपा नजदीकी बनाने से बचने लगी है। सपा-बसपा के समझ में आ गया है कि वे ध्रुवीकरण करते हैं, तो उसका जवाबी ध्रुवीकरण  होने लगता है। इसका नतीजा 2014 के आम चुनाव में सब देख चुके हैं। यूपी में 80 में से 73 सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी। अल्पसंख्यकों के ध्रुवीकरण के नाम पर जो राजनीति चली, उसका फायदा भाजपा ने हिंदुओं का जवाबी ध्रुवीकरण करके उठाया। हालांकि यह कोशिश दिल्ली और उसके बाद बिहार विधानसभा चुनाव में परवान नहीं चढ़ पाई। हां, असम विधानसभा चुनाव में यह फिर से परवान चढ़ती दिखी।

अगले वर्ष पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव होना है। यूपी भी उसमें एक है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारी चल रही है, तो 2014 का मंजर देख चुके मुस्लिमपरस्त नेता जवाबी ध्रुवीकरण के खतरे को लेकर सचेत नजर आ रहे हैं। इस सियासी बदलाव से न सिर्फ प्रदेश की राजनीति बदली है बल्कि नेताओं के सुर भी बदल गये हैं। उत्तर प्रदेश में इस समय जो राजनीतिक सरगर्मियां हैं, उनसे यह लग रहा है कि 2017 का विधानसभा चुनाव में हिन्दू वोट बैंक को एकजुट करने के ज्यादा प्रयास किये जायेंगे। भाजपा व संघ विकास, जाति के साथ-साथ  हिंदू मतों के धु्रवीकरण पर काम कर रही है, तो दूसरी ओर बसपा, सपा व कांग्रेस को भय सता रहा है कि उदारवादी दिखने के चक्कर में कहीं मुस्लिम मतों का लोकसभा चुनाव की तरह फिर से बंटवारा नहीं हो जाये।

गैर-भाजपा दलों की चिंता यहीं नहीं खत्म हुई है। मुस्लिम वोटों के बंटवारे की संभावना में घुले जा रहे नेताओं को  यह दर्द भी अंदर ही अंदर खाये जा रहा है कि उदारवादी रवैया अख्तियार करने के बाद भी  भाजपा उन्हें मुस्लिमों का पक्षधर बताकर उनके विरुद्ध हिंदू मतों का  धु्रवीकरण करने में लगी है। हालात यह कि सपा-बसपा और कांग्रेस आदि दल भाजपा की सांप्रदायिकता की बात तो कर रहे हैं, लेकिन मुस्लिम समुदाय से जुड़े मुद्दों को मुखर ढंग से नहीं उठा पा रहे हैं।

दरअसल, मुस्लिम वोटों की चाहत रखने वाले दलों की सोच में परिवर्तन पड़ोसी राज्य बिहार की सियासत से आया है। बसपा, कांग्रेस और सपा जैसे दल चाहते हैं कि मुस्लिम मत उनके पाले में बिहार की तर्ज पर आगे बढ़े। बिल्कुल खामोशी से। असल में गैर-भाजपाई नेता मुस्लिमों वोटों का धु्रवीकरण तो चाहते हैं लेकिन हिंदुओं का जवाबी धु्रवीकरण न हो पाए,इसके लिये भी प्रयत्नशील रहते हैं। इसीलिये बसपा, सपा और कांग्रेस अपनी राजनीति में हिंदुओं के हितों के लिये भी कुछ न कुछ कहते रहते हैं।बसपा गरीब सवर्णाे को आरक्षण की बात कहती है तो सपा श्रवण तीर्थयात्रा चलाती है। गौरतलब हो, ऐसी ही योजनाओं के सहारे  मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने खासा चुनावी लाभ हासिल किया था।  सपा के नेता और विधायक जहां भी संभव होता है, हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां लगवाते हैं या बनवाने में भरपूर आर्थिक सहयोग देते हैं।

इसी रणनीति के तहत सैफई महोत्सव स्थल पर 35 फीट ऊंची हनुमान जी की मूर्ति स्थापित की गई थी। जब कैराना सें हिन्दुओं के पलायन की खबरें आती हैं तो वहां की सच्चाई पता लगाने के लिये  सीएम अखिलेश यादव हिन्दू धर्मालंबियों की फौज भेज देते हैं ताकि हिन्दुओं की नाराजगी को कम किया जा सके। गौरतलब हो, कथित पलायन की जांच के लिए सपा सरकार ने एक समिति गठित करके आचार्य प्रमोद, स्वामी कल्याण, नारायण गिरि, स्वामी चिन्मयानंद और स्वामी चक्रपाणि को कैराना का दौरा कराया था जिन्होंने दौरे के बाद सपा सरकार के पक्ष में अपनी रिपोर्ट तैयार करते हुए कहा कि कैराना से हिंदुओं के पलायन की खबर सच नहीं है। संतों की बात को मीडिया के सामने मजबूती के साथ रखा गया। अखिलेश सरकार यह सब काम ढिंढोरा पीट के कर रही हैं ताकि उसकी मुस्लिम परस्त ईमेज नहीं बने। वैसे भी सीएम अखिलेश यादव अक्सर साधू-संतों से मिलते जुलते रहते हैं।

लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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