अजय कुमार, लखनऊ
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में करीब तीन दशकों के बाद चतुष्कोणीय मुकाबला होता दिख रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी और पिछले छहः माह में कांग्रेस ने ऐसा ‘रंग’ बदला है कि अब उसे भी राजनैतिक पंडित चुनावी बिसात परं गंभीरता से लेने लगे हैं। 27 वर्षो के बाद पहली बार कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनने से यूपी में सियासी समीकरण काफी बदल सकते हैं। कुछ माह बाद के अंतराल के बाद होने वाले विधान सभा चुनाव के लिये भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर सभी प्रमुख दलों ने अपना मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित कर दिया है। सपा की तरफ से अखिलेश यादव और बसपा की ओर से मायावती का नाम तो सीएम की रेस के लिये पहले से ही तय था, लेकिन कांग्रेस की तरफ से शीला दीक्षित को आगे बढ़ाना सबके लिये चौकाने वाली घटना रहा। कांग्रेस ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को सीएम की कुर्सी के लिये प्रोजेक्ट करके चुनावी हवा का रूख अपनी तरफ मोड़ने का जो प्रयास किया है उससे कांग्रेस को कितना फायदा होगा, यह तो समय ही बतायेगा लेकिन कांग्रेस ने कम से कम एक मामले में सपा की राह जरूर आसान कर दी।
कांग्रेस द्वारा शीला दीक्षित के नाम की घोषणा के साथ ही तय हो गया कि अखिलेश का मुख्यमंत्री पद की दो ऐसी महिला दावेदारों से सीधे मुकाबला होगा जिनके ऊपर भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं। शीला दीक्षित टैंकर घोटाले में आरोपी है तो माया के खिलाफ आय से अधिक सम्पति, ताज कॉरिडोर में भ्रष्टाचार के मामले कोर्ट में लंबित हैं। अखिलेश सरकार भले ही कानून व्यवस्था के र्मोचे पर बुरी तरह से नाकाम रही है, लेकिन अखिलेश के ऊपर आज तक भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा हैं। इसी तरह से समाजवादी पार्टी को भले ही उसके विरोधी गुंडों की पार्टी कहते रहते हों, मगर अखिलेश यादव को इस मामले में भी विरोधियों से माइलेज हासिल है।
चुनावी मौसम में यह ‘अंतर’ बसपा-कांग्रेस के लिये मुश्किल पैदा कर सकता है। समाजवादी पार्टी के रणनीतिकार माया-शीला के भ्रष्टाचार को जनता के बीच पूरी शिद्दत से उठायेंगे, इसमें कहीं किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। बात मायावती की हो तो उन पर विरोधी ही नहीं उनकी पार्टी से बगावत करने वाले नेता भी भ्रष्टाचार और धन उगाही का आरोप लगाते रहते हैं। माया राज में भ्रष्टाचार की कई इबारते लिखी जा चुकी हैं। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सूबे की सत्ता संभालने के बाद जब पहली बार मीडिया से रूबरू हुए थे तो उन्होंने पूर्ववर्ती बसपा सरकार और उसकी सुप्रीमो मायावती पर निशाना साधते हुए कहा था कि मायावती के कार्यकाल में हाथी प्रतिमाओं की स्थापना, पत्थरों के स्मारकों के निर्माण समेत विभिन्न कार्यो और योजनाओं में 40 हजार करोड़ का घोटाला हुआ है। इसमें कई पूर्व मंत्रियों की संलिप्तता है। अखिलेश का यह बयान इस लिये और अहम था क्योंकि पुलिस ने लखनऊ-नोएडा में हाथी प्रतिमाएं लगाने में कथित गड़बड़ी की जांच के क्रम में राजकीय निर्माण निगम के गोमती नगर स्थित कार्यालय में छापा मारा।
अखिलेश यादव ने तब कहा था कि उनके शुरूआती कार्यकाल में ही एनआरएचएम, इको पार्क, नोएडा, पार्क, हाथी प्रतिमाओं और पॉम ट्री समेत एक दर्जन घोटाले अब तक सामने आ चुके हैं। सीएम अखिलेश का यह भी कहना था कि घोटाले में अभी तक सिर्फ सरकारी खजाने से निकाले गए धन का ही जिक्र किया गया है, जमीन की कीमत जोड़ी नहीं गई है। ऐसा कर दिया जाए तो आंकड़ा कहीं ज्यादा होगा। यहां यह बता देना जरूरी है कि 2012 के विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान सपा के कई दिग्गज नेताओं ने ऐलान किया था कि उनकी सरकार बनी तो प्रदेश का खजाना लूटने वाली बसपा सुप्रीमों मायावती जेल में होंगी। यह और बात है कि 2012 से 2016 आ गया है, लेकिन अखिलेश सरकार ने उनको जेल भेजना तो दूर एक भी मुकदमा तक नहीं दर्ज कराया है। यह अखिलेश का दोमुंहापन और अवसरवादिता है जिसके जरिए वह एक तरह से करप्शन को सपोर्ट करते दिख रहे हैं।
बसपा ही नहीं, कांग्रेस का भ्रष्टाचार भी समाजवादी पार्टी को संजीवनी देने का काम कर रहा हैं। खासकर यूपी की मुख्यमंत्री पद की कांग्रेसी उम्मीदवार शीला दीक्षित पर भ्रष्टाचार के जो आरोप लगे हैं वह कांग्रेस के लिये चुनावी जंग में मुश्किल खड़ी कर सकते हैं। वाटर टैंकर घोटालें में फंसी दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दी़ि़क्षत को हाल ही में एंटी करप्शन ब्रांच (एसीबी) ने समन जारी करके पूछताछ के लिये बुलाया है। दिल्ली जल बोर्ड में टैंकर घोटाला साल 2010-11 के दौरान सामने आया था। दिल्ली में पीने के पानी की सप्लाई के लिए टैंकरों को किराए पर हायर किए जाने के दौरान यह घोटाला किया गया था।
शीला दीक्षित के कार्यकाल में दिल्ली की जिन कॉलोनियों में पानी की पाइप लाइनें नहीं हैं, वहां वाटर सप्लाई के लिए टैंकर किराए पर लिए जाने थे। इस काम के लिए जल बोर्ड को स्टेनलेस स्टील वाले 450 माउंटेड टैंकर हायर करने थे। इसके लिए कई बार टेंडर निकाले गए। पहली बार मार्च 2010 में टैंडर निकाला गया। सात साल के लिए जारी टेंडर की कुल कॉस्ट 50.98 करोड़ रुपए रखी गई थी। इसके बाद इस टेंडर को कैंसल कर दिया। इस तरह करीब डेढ़ साल में चार बार टेंडर कैंसल किए गए। आखिरकार दिसंबर 2011 में 10 साल के लिए टैंकरों को किराए पर लेने के लिए टेंडर पास किया गया। इस बार टेंडर की कुल कॉस्ट 50.98 करोड रुपए से अप्रत्याशित रूप से बढ़ाकर 637 करोड़ 23 लाख रुपये कर दी गई थी। इसी वजह से घोटाले का अरोप शीला सरकार पर लगने लगा था।
इसी काल खंड में यानी शीला दीक्षित के शासनकाल के दौरान दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ खेल घोटाले की छींटे भी शीला के ऊपर आईं थी।। खेल खत्म होने के महज एक दिन बाद ही नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने इस बड़े खेल आयोजन से जुड़ी उन विभिन्न परियोजनाओं का आकलन शुरू कर दिया है जो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी रही हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला 2011 में सामने आया जिसे भारत के सबसे बड़े घोटालों में से एक माना जा रहा है। 2010 में नई दिल्ली में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी के चरण और आचरण के दौरान पैसे की बड़े पैमाने पर हेराफेरी हुई थी। इस घोटाले का कुल मूल्य ७०,००० करोड़ रुपये होने का अनुमान है। शीला दीक्षित की इस घोटाले में काफी बदनामी हुई थी। शीला के ऐसे ही भ्रष्टाचारों का डंका पीटकर सपा, कांग्रेस के यूपी से पैर उखाड़ देना चाहती हैं।
बात भाजपा की कि जाये, जिसने अभी तक अपना सीएम प्रत्याशी घोषित नहीं किया है। चार में से तीन प्रमुख राजनैतिक दलों कांग्रेस, सपा, बसपा द्वारा अपना सीएम प्रत्याशी घोषित किये जाने के बाद भाजपा के ऊपर भी मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशाी घोषित करने का दबाव काफी बढ़ गया है। भाजपा पर न केवल सीएम प्रत्याशी घोषित करने का दबाव है, बल्कि उसे इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि उसका प्रत्याशी किसी भी तरह से कमजोर नजर न आये। मुख्यमंत्री के उम्मीदवार का नाम घोषित न होने से प्रतिस्पर्धी दलों ने भाजपा की घेरेबंदी शुरू कर दी है।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.