देश में हिंदी अख़बारों और पत्रकारों का कुनबा हमेशा से लचीला रहा है, खेद प्रकाश की परम्परा इसी लचीलेपन का प्रतीक है. मायावती को जाति सूचक शब्दों से संबोधित करने से लेकर राजशेखर रेड्डी की मौत के किस्सागोई पर अख़बारों ने माफ़ी मांगी, लेकिन अब तक जिस माफ़ी की चर्चा सबसे ज्यादा रही वो थी पुण्य प्रसून वाजपेयी की माफ़ी. उन्होंने इशरत के इनकाउंटर के मामले में मीडिया की तरफ से मांगी थी. एक मजिस्ट्रेट की जाँच रिपोर्ट और नरेन्द्र मोदी के अति हिंदूवादी चरित्र को पार्श्व में रखकर पुण्य प्रसून ने हम सब की तरफ से माफ़ी मांग ली. अपने माफीनामे में पुण्य प्रसून ने कहा था “अगर मजिस्ट्रेट जांच सही है, तो उस दौर में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका को किस तरह देखा जाए। खासकर कई रिपोर्ट तो मुबंई के बाहरी क्षेत्र में, जहां इसरत रहती थी, उन इलाकों को भी संदेह के घेरे में लाने वाली बनी”.
और अब 6 साल बाद मुंबई हमलों के आरोपी हेडली ने कबूल किया है कि वो इशरत, जिसकी मौत की माफ़ी मांग रहे थे, लश्कर-ए-तोयबा की सक्रिय सदस्य ही नहीं, मानव बम थी, उसने ये जानकारी एनआईए को दी है. अब क्या होगा उस माफीनामे का जिससे एक पल में ही तमाम संवाददाताओं, अख़बारों और चैनलों को मोदी का पिट्ठू साबित कर दिया गया था. पुण्य प्रसून ही नहीं, एक आम मीडियाकर्मी भी पुलिस द्वारा आये दिन होने वाले मुठभेड़ों का सच जानता है, लेकिन कितनी बार माफ़ी मांगी जाती है? कितनी बार मुठभेड़ों के पीछे के सच को जानने की कोशिश की जाती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि गुजरात और वहां की कानून व्यवस्था को लेकर मीडिया की अतिवादी सोच, सही ख़बरों को हम तक पहुंचने से पहले फ़िल्टर कर रही है? कहीं ऐसा भी तो नहीं की हम गुजरात ही नहीं, पूरे देश में अल्पसंख्यकों को व्यवस्था और भगवा आतंक के घेरे में दिखाकर अपनी निरपेक्षता साबित करने में लगे हैं.
15 जून 2004 को सबेरे के वो बुलेटिन मुझे आज भी याद हैं. सभी चैनल्स इशरत और अन्य तीन की लाशों को बारबार दिखाकर लश्कर-ए-तोइबा के आतंक पर बढ़-चढ़ कर ख़बरें दिखा रहे थे. इन चैनलों में इण्डिया टीवी सबसे आगे था. वहां पर इशरत के संबंधों को लेकर तमाम तरह की सनसनी लगातार परोसी जा रही थी. इशरत का खूबसूरत चेहरा देखकर यकीन करना मुश्किल था कि वो आतंकी भी हो सकती थी. घटना के दो महीने बाद तक इशरत के मुठभेड़ को लेकर मीडिया के भीतर चर्चाओं का बाजार गरम था. मगर पुण्य प्रसून के साथ ऐसा नहीं था. उन्हें मुठभेड़ के तत्काल बाद उनके संवाददाता ने जो पहली खबर भेजी, उसमें इस मुठभेड़ को फर्जी बताया गया था, मगर उन्होंने संवाददाता की पहली टिप्पणी को नजरअंदाज कर दिया. वही हुआ जो आम तौर पर होता आया है. क्राइम न्यूज थी. पुलिस की जबान में लिख दी गयी.
पुण्य प्रसून खुद कहते हैं- ”घटना स्थल पर पुलिस कमिश्नर कौशिक, क्राइम ब्रांच के ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर पांधे और डीआईजी वंजारा खुद मौजूद हैं, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम प्लान बता रहे हैं. ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल खड़ा कौन करे? 6 बजे सुबह से लेकर 10 बजे तक यानी चार घंटों के भीतर ही जिस शोर-हंगामे में लश्कर का नया आतंक और निशाने पर मोदी के साथ हर न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरू हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी फर्जी एनकाउंटर को कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत करें कौन? यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था.” मगर फिर कुछ दिनों बाद नजारा बदल गया. पुण्य प्रसून वाजपेयी जाग उठे थे. उनका माफीनामा ये बता रहा था कि अब उनकी आँखों में खुमारी नहीं है.
क्या सचमुच जाग उठे थे पुण्य प्रसून? या फिर उन्हें जबरन जगाया जा रहा था कि उठो और मीडिया बाजार में साबित करो कि हम निरपेक्ष हैं. उस वक़्त वाजपेयी के माफ़ीनामे से कई सवाल उठ खड़े हुए थे. पुण्य प्रसून वाजपयी मीडिया का एक बड़ा चेहरा है. उनके द्वारा की गयी रिपोर्टिंग से हम और हमारे जैसे लोग सीखते हैं. ऐसे में इशरत का सच बयान करने का मतलब था मोदी का समर्थन और खुद को उस जमात का हिस्सा बनाना, जिसके लिए पुण्य प्रसून वाजपयी ने माफ़ी मांगी. मुझे याद है उस दौरान अहमदाबाद से मेरी पत्रकार मित्र विशाखा सिंह ने बताया कि आवेश जी, मुठभेड़ सही हो या न हो, मगर इशरत दोषी थी, हमारे पास ऐसे तथ्य हैं जो ये बताते हैं कि वो आतंकियों से मिली हुई थी, मगर मजबूरी ये है कि जो माहौल बनाया जा रहा है उसमें हम सच को जानते हुए भी, परखते हुए भी नहीं छाप सकते, यही काम पुण्य प्रसून कर रहे हैं, तीस्ता सीतलवाड़ कर रही हैं. शायद हम भी पुण्य प्रसून की जगह होते तो वही करते जो उन्होंने किया लेकिन क्या ये ख़बरों की विश्वसनीयता के प्रति न्याय होता? ये तो हमें करना ही होगा कि जो हम सोचेंगे समझेंगे वही लिखेंगे या फिर जो दिखाया जायेगा वो लिखेंगे.
ऐसा नहीं है कि निरपेक्षता से जुड़ा संकट सिर्फ इशरत के मामले तक ही है. इस वक़्त ख़बरों की निरपेक्षता का सर्वाधिक संकट नक्सलवाद से जुडी ख़बरों के सिलसिले में हैं. हत्याओं के इस दौर में पुण्य प्रसून वाजपेयी के सम्पादन में चल रहे चैनल समेत सभी समाचार पत्र (अपवादों को छोड़ दें) वही दिखा या पढ़ा रहे हैं जो सरकार दिखा रही है. नक्सलवाद के नाम पर किये जा रहे उत्पीडन और शोषण से जुडी तमाम ख़बरें नदारद हैं. उनको लेकर किसी ने माफ़ी नहीं मांगी. और हम जानते हैं आगे भी कभी नहीं मांगेगा. दैनिक जागरण माओवाद को लेकर जिस तरह की रिपोर्टिंग करा रहा है उनसे लगता है बस चले तो पूरे छत्तीसगढ़ के जंगलों में आग लगा दे. वहीँ स्टार न्यूज के संवाददाता का कैमरा हमेशा वर्दी वालों के पीछे से ही दुनिया को देखता है. इनकी वजहें भी हैं. चाहे इशरत हो या फिर प्रज्ञा पाण्डेय, अफजल हो या छत्तीसगढ़ के जंगलों में तबाही मचा रहा लालव्रत, ख़बरों की विश्वसनीयता हमें खुद ही तय करनी होगी. संभव है हर बार हम सही नहीं हों, संभव है कि हमें बार बार माफ़ी मांगनी पड़े, लेकिन यूँ न होगा कि हमें पूरी पत्रकार बिरादरी की ओर से क्षमा याचना मांगनी पड़े, अन्यथा खुद के एजेंडे को शामिल कर ख़बरों को देखना विश्वसनीयता का अभूतपूर्व संकट पैदा करता रहेगा.
लेखक आवेश तिवारी जर्नलिस्ट हैं और इन दिनों लखनऊ-इलाहाबाद से प्रकाशित डेली न्यूज एक्टिविस्ट अखबार के सोनभद्र के ब्यूरो चीफ के रूप में कार्यरत हैं.