मोदी पर तानाशाह होने के आरोप यों ही नहीं लगते। उन्हें बहुत करीब से जानने वाले तथा उनकी कार्यशैली को समझने वाले जानते हैं कि वे न केवल अपने विरोधियों को बहुत चालाकी से ठिकाने लगाने के उस्ताद हैं, बल्कि वे अलोकतांत्रिक भी हैं और मनमाने फैसले लेकर अपने आगे किसी की नहीं चलने देते चाहे उसकी बात कितनी ही उपयोगी क्यों न हो। मोदी के तानाशाही रवैये के कारण ही सरकार और संगठन में उनका विरोध करने का साहस कोई नहीं करता, बल्कि स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि सभी उनके सामने साष्टांग करते नजर आते हैं। यहाँ तक कि गौ-हत्या, श्रम कानून में संशोधन आदि अनेक मुद्दों पर तो रा.स्व.से. संघ भी उनके समर्थन में उतर आया।
गुजरात में उनके बतौर मुख्यमंत्री रहते सारा देश उनकी इस कार्यशैली से पहले ही परिचित हो चुका था, रही-सही कसर अब पूरी होते देख रहा है। प्रधानमंत्री बनते ही मोदी ने सबसे पहला वार किया पार्टी की पुरानी पीढ़ी के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जसवंतसिंह, यशवंत सिन्हा, रामलाल जैसे अनेक नेताओं पर। इन सबको किनारे करने में कामयाबी हासिल करने के बाद वे अपनी पसंद के अपने ही पूर्व सहयोगी गुजराती भाई अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष के पद पर बैठाने के लिए अपने मातृ-संगठन रा.स्व.से. संघ को मनाने में भी सफल हो गये। इससे मोदी की पकड़ सरकार के साथ-साथ संगठन पर भी मजबूत हो गई और उनके तईं खुला खेल फर्रूखबादी खेलने की राह बहुत ही आसान हो गई।
यहाँ तक तो ठीक और इसमें पार्टी से बाहर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है भला। लेकिन चारों तरफ से की गई इस किलेबंदी के बाद मोदी ने जो मनमाने फैसले लेने शुरू किये आम देशवासी को उससे तकलीफ होना स्वाभाविक ही माना जायेगा। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री बनने के एक महीने के भीतर जिस तरह उन्होंने देश के करोड़ों श्रमिकों के विरुद्ध मालिकों को लाभ पहुँचाने की नीति का ऐलान किया, उससे उन्हें बिना किसी कारण के किसी भी श्रमिक को अचानक नौकरी से निकाल बाहर करने का अधिकार दे दिया गया। अपने इस आदेश से मोदी ने बेचारे मजदूर की फरियाद किसी भी न्यायिक मंच पर सुने जाने के उसके न्याय पाने के प्राकृतिक अधिकार का भी हनन कर डाला।
इसके बाद राजीव गांधी से लेकर अटल बिहारी बाजपेयी तक सभी प्रधानमंत्रियों ने जिस बुलेट ट्रेन परियोजना पर काम आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा, उसे मोदी ने तमाम तरह के जन-विरोध के बावजूद पटरी पर लाने की कवायद शुरू कर दी। जबकि सभी को मालूम है कि इस ट्रेन का किराया और इसमें लगने वाला समय हवाई जहाज से भी अधिक होगा। मोदी ने दिल्ली से चलने वाली ट्रेनों की छतों पर बैठने, पायदान पर लटक कर या कपलिंग पर बैठ कर किसी तरह यात्रा पूरी करने को विवश निम्न वर्ग के यात्रियों की तकलीफों को कम करने के लिए उक्त ट्रेनों में न तो साधारण श्रेणी के अतिरिक्त डिब्बे लगाना उचित समझा और न ही ऐसे मार्गों पर अतिरिक्त रेलगाड़ियाँ चलाने की जरूरत महसूस की। यदि ऐसा किया गया होता तो यहाँ की रेल कोच फैक्ट्रियों के श्रमिकों से लेकर देश के अन्य सभी सम्बंधित क्षेत्रों से जुड़े लोगों को लाभ होता; परन्तु मोदी ने इसकी कोई परवाह नहीं की। जबकि यह दिन के उजाले की तरह एकदम साफ है कि देश के अमीर वर्ग से प्राप्त कुल राजस्व से कई गुना अधिक कर मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग अदा करता है। बल्कि देश के धनाड्यों की मौज इसी उपेक्षित वर्ग की कमरतोड़ मेहनत के बूते होती है और देश में कालाधन और बेनामी संपत्तियां इसी अमीर तबके के पास हैं।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर चुके और देश के कुशल अर्थशास्त्री रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराज रामन को कार्य करने का एक और मौका देने की अपेक्षा मोदी ने अम्बानी के साले और उनकी कंपनी रिलायंस में उच्च स्तर पर काम कर चुके अपने एक और गुजराती भाई उर्जित पटेल को रिजर्व बैंक का नया गवर्नर बना कर उन्होंने कॉर्पोरेट क्षेत्र को देश की अर्थ-व्यवस्था की उन्नति के मुकाबले तरजीह देना पसंद किया।
विदेशी पूँजी-निवेश, गौ-हत्या, महंगाई, बेरोजगारी, कालाधन, विदेशी व्यापार असंतुलन आदि जैसे विभिन्न मुद्दों पर कांग्रेस को गरिया कर सत्ता के शिखर पर काबिज हुए मोदी के कार्यकाल में इन सभी क्षेत्रों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। कारपोरेट क्षेत्र की उन्नति मोदी के ऐजेंडे में शीर्ष पर है, भले ही उन्हें देश की सभी प्रचलित नीतियों तथा नियम-कानूनों को शीर्षासन ही क्यों न कराना पड़े। कालेधन पर प्रहार उनका मुख्य चुनावी मुद्दा था, लेकिन ढाई साल तक सत्ता चलाते हुए उन्होंने इस दिशा में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ाया और जब बड़े नोटों को प्रचलन से बाहर करने का निर्णय लिया भी तो उससे कालेधन के खिलाड़ियों को ही मदद पहुँचाने का इंतजाम कर दिया 2000 हजार का नया नोट जारी कर।
जब सरकारी आकड़ों के ही अनुसार देश की 78 प्रतिशत जनता प्रतिदिन 20 रुपए से अधिक खर्च नहीं कर सकती तो फिर 2000 का नया और पहले से भी बड़ा नोट जारी कर किसकी जरूरत पूरी की गई? 2000 का और भी बड़ा नोट क्यों लाया गया? जबकि जरूरत देश में फैले कालेधन के मकड़जाल को ध्वस्त कर अर्थ-व्यवस्था को साफ-सुथरा करने के लिए 100 से ऊपर के दोनों नोटों को बंद करने की थी। साफ देखा जा रहा है कि इस नई कसरत से देश के मध्यम तथा निम्न-मध्यम वर्ग के करोड़ों लोगों को मुसीबत में डाल दिया गया। स्पष्ट है मोदी का यह फैसला न केवल कालेधन के कारोबारी मुट्ठी भर लोगों की सुविधा के लिए है, वरन् इससे मोदी के तानाशाही रवैये का भी साफ पता चलता है। यही नहीं वे देश की शासन-सत्ता को आम नागरिक के हितों को दृष्टि में रख कर नहीं चला रहे हैं, बल्कि अमीरों को और भी अमीर तथा गरीबों को और भी अधिक गरीब बनाने की भरपूर कोशिश में जुटे हुए हैं।
श्यामसिंह रावत
वरिष्ठ पत्रकार
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